SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मामृत ( अनगार) योग इत्यर्थो वाच्यः मनोवाक्कायवर्गणालम्बनात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणस्य तस्यापि जीवविकारित्वाविशेषात् । एतेन बाह्यमान्तरं बन्धकारणं व्याख्यातं प्रतिपत्तव्यम् । उक्तं च-- जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो। भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरायदोसमोहजुदो ॥ [ पञ्चास्ति. १४८ ] प्रकृतिविदुषः-प्राक्तनं कर्मानुभवतो जीवस्य । स तत्कर्मेत्यादि-एषः कर्मस्वातन्त्र्यविवक्षायां बन्ध ६ उक्तो द्विष्ठत्वात्तस्य । मिथः श्लेषः । बन्धन बन्ध इति निरुक्तिपक्षे । उक्तं च परस्परं प्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । एकत्वकारको बन्धो रुक्मकाञ्चनयोरिव ॥ [ अमित. पं. सं. (पृ. ५४) पर उद्धृत ] तदत्र मोहरागद्वेषस्निग्धः शुभोऽशुभो वा परिणामो जीवस्य भावबन्धः। तन्निमित्तेन शुभाशुभकर्मत्वपरिणतानां जीवेन सहान्योन्यमूर्च्छनं पुद्गलानां द्रव्यबन्धः । उक्तं च बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो॥ का अर्थ है जीवके प्रदेशों में कर्मस्कन्धोंका प्रवेश । उसका कारण है योग । अतः योग बहिरंग कारण है। उसकी विवक्षामें परिणति विशेषका अर्थ योग लेना चाहिए। मनोवर्गण वचन-वर्गणा और कायवर्गणाके आलम्बनसे जो आत्मप्रदेशों में हलन-चलन होता है उसे योग कहते हैं। वह योग भी जीवका विकार है। इस तरह बन्धके अन्तरंग और बहिरंग कारण जानना। पंचास्तिकाय गाथा १४ का व्याख्यान करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रजीने कहा है ग्रहणका अर्थ है कर्मपुद्गलोंका जीवके प्रदेशोंके साथ एक क्षेत्र में स्थित कर्मस्कन्धोंमें प्रवेश । उसका निमित्त है योग। योग अर्थात् वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणाके आलम्बनसे होनेवाला आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द । बन्धका अर्थ है कर्मपुद्गलोंका विशिष्ट शक्तिरूप परिणाम सहित स्थित रहना। उसका निमित्त है जीवभाव । जीवभाव मोह रागद्वेषसे युक्त है अर्थात् मोहनीयके उदयसे होनेवाला विकार । अतः यहाँ पुद्गलोंके ग्रहणका कारण होनेसे बहिरंग कारण योग है और विशिष्ट शक्तिकी स्थिति में हेतु होनेसे जीव भाव ही अन्तरंग कारण है । बन्धका दूसरा लक्षण है जो जीवको परतन्त्र करता है। यह कर्मकी स्वातन्त्र्य विवक्षामें बन्धका स्वरूप कहा है क्योंकि बन्ध दोमें होता है। तीसरा लक्षण है जीव और कर्मस्कन्धके प्रदेशोंका परस्परमें श्लेष । कहा है 'चाँदी और सोने की तरह जीव और कर्मके प्रदेशोंका परस्परमें एकत्व करानेवाला प्रवेश बन्ध है।' जैसे पात्रविशेषमें डाले गये अनेक रस और शक्तिवाले पुष्प और फल शराबके रूपमें बदल जाते हैं वैसे ही आत्मामें स्थित पुद्गल भी योगकषाय आदिके प्रभावसे कर्मरूपसे परिणमित हो जाते हैं । यदि योग कषाय मन्द होते हैं तो बन्ध भी मन्द होता है और तीव्र होते हैं तो बन्ध भी तीव्र होता है। मोह राग और द्वेषसे स्निग्ध शुभ या अशुभ परिणाम भावबन्ध है। उसका निमित्त पाकर शुभाशुभ कर्मरूपसे परिणत पुद्गलोंका जीवके साथ परस्परमें संश्लेष द्रव्यबन्ध है । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy