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________________ ६ द्वितीय अध्याय १३७ पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो। जोगा पयडिपदेसा ठिदि अणुभागा कसायदो होंति ॥ [ द्रव्यसं. ३२-३३ ] ॥३८॥ अथ के ते प्रकृत्यादय इत्याह ज्ञानावरणाद्यात्मा प्रकृतिस्तद्विधिरविच्युतिस्तस्मात् । स्थितिरनुभवो रसः स्यादणुगणना कर्मणां प्रदेशश्च ॥३९॥ - ज्ञानावरणस्य कर्मणोऽर्थानवगमः कार्यम् । प्रक्रियते प्रभवत्यस्य इति प्रकृतिः स्वभावो निम्बस्येव तिक्तता। एवं दर्शनावरणस्यार्थानालोचनम् । वेद्यस्य सदसल्लक्षणस्य सुख-दुःखसंवेदनम् । दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम् । चारित्रमोहस्यासंयमः। आयुषो भवधारणम् । नाम्नो नारकादिनामकरणम् । गोत्रस्य उच्चैर्नीचैःस्थानसंशब्दनम् । अन्तरायस्य दानादिविघ्नकरणम् । क्रमेण तदृष्टान्तार्था गाथा यथा ___ पडपडिहारसिमज्जाहलि-चित्तकुलालभंडयारीणं। 'जह एदेसि भावा तह कम्माणं वियाणाहि ॥ [ गो. क. २१ ] _ 'जिस अशुद्ध चेतनाभावसे कर्म बँधते हैं उसे भावबन्ध कहते हैं । कर्म तथा आत्माके प्रदेशोंका परस्परमें दूध-पानीकी तरह मिल जाना द्रव्यबन्ध है। बन्धके चार भेद हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध तो योगसे होते हैं और कषायसे स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध होते हैं।' द्रव्यसंग्रहकी संस्कृत टीकामें ब्रह्मदेवने एक शंका उठाकर समाधान किया है, आशाधर जीने भी अपनी संस्कृत टीकामें उसे दिया है। शंका-मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रवके भी हेतु हैं और बन्धके भी। दोनोंमें क्या विशेषता है ? समाधान-पहले समयमें कर्मोंका आना आस्रव है, आगमनके अनन्तर दूसरे आदि समयमें जीवके प्रदेशोंमें स्थित होना बन्ध है। तथा आस्रवमें योग मुख्य है और बन्धमें कषाय आदि । इस प्रकार आस्रव और बन्धमें कथंचित् कारणभेद जानना ॥३८॥ आगे प्रकृतिबन्ध आदिका स्वरूप कहते हैं द्रव्यबन्धके चार भेद हैं । कर्मों में ज्ञानको ढाकने आदि रूप स्वभावके होनेको प्रकृतिबन्ध कहते हैं। और उस स्वभावसे च्युत न होनेको स्थितिबन्ध कहते हैं। कर्मोंकी सामर्थ्य विशेषको अनभवबन्ध कहते हैं और कमरूप परिणत पुद्गल स्कन्धोंके परमाणुओंके द्वारा गणनाको प्रदेशबन्ध कहते हैं ॥३९॥ विशेषार्थ-प्रकृति कहते हैं स्वभावको। जैसे नीमकी प्रकृति कटुकता है, गुड़की प्रकृति मधुरता है। इसी तरह ज्ञानावरणका स्वभाव है पदार्थका ज्ञान नहीं होना । दर्शनावरणका स्वभाव है पदार्थका दर्शन न होना। सातावेदनीय-असातावेदनीयका स्वभाव है सुख-दुःखका अनुभवन । दर्शनमोहका स्वभाव है तत्त्वार्थका अश्रद्धान । चारित्र मोहनीयका स्वभाव है असंयम । आयुका कार्य है भवमें अमुक समय तक रहना । नामकर्मका स्वभाव है नारक देव आदि नाम रखाना। गोत्रका स्वभाव है उच्च-नीच व्यवहार कराना। अन्तरायका स्वभाव है विघ्न करना। कहा भी है 'पट (पर्दा), द्वारपाल, शहद लगी तलवार, मद्य, हलि (जिसमें अपराधीका पैर फाँस देते थे), चित्रकार, कुम्हार, और भण्डारीके जैसे भाव या कार्य होते हैं वैसा ही कार्य आठ कर्मोंका भी जानना चाहिए'। इस प्रकारके स्वभाववाले परमाणुओंके बन्धको प्रकृतिबन्ध कहते हैं। तथा जैसे बकरी, गाय, भैंस आदिके दूधका अमुक काल तक अपने माधुर्य १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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