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________________ द्वितीय अध्याय १३५ इति आगमोक्त्या | योगः आत्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणो मनोवाक्कायव्यापारः । यदुपाधयः- येषां मिथ्यादर्शनादिभावास्रवभेदानां विशेषाः । कलियुजः - ज्ञानावरणादिकर्मबन्धकाः ||३७|| अथ बन्धस्वरूपनिर्णयार्थमाह स बन्धो बध्यन्ते परिणतिविशेषेण विवशी क्रियन्ते कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि वा । स तत्कर्माम्नातो नयति पुरुषं यत्स्ववशतां, प्रदेशानां यो वा स भवति मिथः श्लेष उभयोः ॥ ३८ ॥ परिणतिविशेषेण - मोहरागद्वेष स्निग्धपरिणामेन मोहनीयकर्मोदयसंपादितविकारेणेत्यर्थः । स एष जीवभावः कर्मपुद्गलानां विशिष्टशक्तिपरिणामेनावस्थानस्य निमित्तत्वाद् बन्धस्यान्तरङ्गकारणं जीवप्रदेशवत कर्मस्कन्धानुप्रवेशलक्षणकर्मपुद्गलग्रहणस्य कारणत्वाद् बहिरङ्गकारणं योगः । तद्विवक्षायां परिणतिविशेषेणेत्यस्य का उदय तीसरे में माना है । किन्तु यह परम्परासम्मत नहीं है । इसी तरह उन्होंने संयतासंयतमें मिथ्यात्व के साथ अविरतिका अभाव बतलाया है किन्तु यह कथन भी शास्त्रसम्मत नहीं है । पाँचवें गुणस्थान में पूर्णविरति नहीं होती, एकदेशविरति होती है । हम नहीं कह सकते कि आशाधर-जैसे बहुश्रुत ग्रन्थकारने ऐसा कथन किस दृष्टिसे किया है । आगम में हमारे देखने में ऐसा कथन नहीं आया । यहाँ हम कुछ प्रमाण उद्धृत करते हैं प्राकृत पंचसंग्रह और कर्मकाण्डमें प्रमादको अलगसे बन्धके कारणों में नहीं लिया है । इसलिए वहाँ प्रथम गुणस्थानमें चार, आगेके तीन गुणस्थानोंमें तीन, देशविरतमें अविरतिसे मिश्रित विरति तथा कषाय योग बन्धके हेतु हैं ॥३७॥৷ बन्धका स्वरूप कहते हैं पूर्वबद्ध कर्मों के फलको भोगते हुए जीवकी जिस परिणति विशेष के द्वारा कर्म बँधते हैं अर्थात् परतन्त्र कर दिये जाते हैं उसे बन्ध कहते हैं । अथवा जो कर्म जीवको अपने अधीन कर लेता है उसे बन्ध कहा है । अथवा जीव और कर्मके प्रदेशोंका जो परस्पर में मेल होता है उसे कहते हैं ||३८|| विशेषार्थ - यहाँ तीन प्रकारसे बन्धका स्वरूप बतलाया है। पहले कहा है कि कर्मबद्ध संसारी जीवकी जिस परिणति विशेषके द्वारा कर्म बाँधे जाते हैं - परतन्त्र बनाये जाते हैं वह बन्ध है | यहाँ कर्मसे कर्मरूप परिणत पुद्गल द्रव्य लेना चाहिए। और परतन्त्र किये जाने से यह आशय है कि योगरूपी द्वारसे प्रवेश करने की दशा में पुण्य-पापरूपसे परिणमन करके और प्रविष्ट होनेपर विशिष्ट शक्तिरूपसे परिणमाकर भोग्यरूपसे सम्बद्ध किये जाते हैं । यहाँ परिणति विशेषसे मोह राग और द्वेषसे स्निग्धं परिणाम लेना चाहिए । अर्थात् मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाले विकारसे युक्त जीव भाव। वही जीव भाव कर्मपुद्गलोंके विशिष्ट शक्ति रूपसे अवस्थानमें निमित्त होनेसे बन्धका अन्तरंग कारण है । और कर्मपुद्गल ग्रहण Jain Education International १. 'सासादन - सम्यग्दृष्टि - सम्यक्मिथ्यादृष्टि- असंयतसम्यग्दृष्टीनामवि रत्यादयश्चत्वारः । संयतासंयतस्याविरतिविरतिमिश्राः । सर्वार्थ, त. रा. वा. ८।१ agesओ बंधो पढमे अणंतरतिये तिपच्चइओ | मिस्स विदिओ उवरिमदुगं च देसेक्कदेस म्हि ॥ - प्रा. पं. सं. ४७८ For Private & Personal Use Only ३ ६ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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