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धर्मामृत (अनगार) यदाखुविषवन्मर्तसंबन्धेनानुभूयते ।
यथास्वं कर्मणः पुंसा फलं तत्कर्म मूर्तिमत् ॥३०॥ __फलं-सुखदुःखहेतुरिन्द्रियविषयः। प्रयोगः-कर्म मूर्त मूर्तसंबन्धेनानुभूयमानफलत्वादाखुविषवत् । आखुविषपक्षे फलं शरीरे मूषकाकारशोफरूपो विकारः ॥३०॥ अथ जीवस्य स्वोपात्तदेहमात्रत्वं साधयति
स्वाङ्ग एव स्वसंवित्या स्वात्मा ज्ञानसुखादिमान् ।
यतः संवेद्यते सर्वः स्वदेहप्रमितिस्ततः ॥३१॥ स्वाङ्ग एव न परशरीरे नाप्यन्तराले स्वापि सर्वत्रव तिलेष तैलमित्यादिवदभिव्यापकाधारस्य विवक्षितत्वात् । ज्ञानदर्शनादिगुणः सुखदुःखादिभिश्च पर्याय: परिणतः । प्रयोगः-देवदत्तात्मा तद्देह एव तत्र सर्वत्रैव च विद्यते तत्रैव तत्र सर्वत्रैव च स्वासाधारणगुणाधारतयोपलभ्यमानत्वात् । यो यत्रैव यत्र सर्वत्रव च
( स्वासाधारणगुणाधारतयोपलभ्यते स तत्रैव तत्र सर्वत्रैव च विद्यते। यथा देवदत्तगृहे एव तत्र सर्वत्रव) १२ चोपलभ्यमानः स्वासाधारणभासुरत्वादिगुणः प्रदीपः । तथा चायं, तस्मात्तथेति । तदसाधारणगुणाः ज्ञानदर्शन
सुखवीर्यलक्षणाः ते च सर्वाङ्गीणास्तत्रैव चोपलभ्यन्ते ।
यतः जीव चूहेके विषकी तरह कर्मके फल सुख-दुःखको मूर्तके सम्बन्धसे ही यथायोग्य भोगता है अतः कर्म मूर्तिक है। इसके आधारपर अनुमान प्रमाणसे सिद्ध होता है-कर्म मत है क्योंकि उनका फल मूर्तके सम्बन्धसे भोगा जाता है, जैसे चूहेका विष । चूहेके काटनेपर उसके विषके प्रभावसे शरीरमें चूहेके आकारकी सूजन आती है ॥३०॥
विशेषार्थ-जो मूर्तिकके सम्बन्धसे पकता है वह मूर्तिक होता है। जैसे अन्न-धान्य वगैरह जल, सूर्यका ताप आदिके सम्बन्धसे पकते हैं अतः मूर्तिक हैं। इसी तरह कर्म भी गुड़, काँटा आदि मूर्तिमान् द्रव्यके मिलनेपर पकता है-गुड़ खानेसे सुखका अनुभव होता है, काँटा चुभनेसे दुःखका अनुभव होता है । इसलिए वह मूर्तिक है ॥३०॥
आगे जीवको अपने शरीरके बराबर परिमाणवाला सिद्ध करते हैं- यतः सभी लोग अपने शरीरमें ही ज्ञान सुख आदि गुणोंसे युक्त अपनी आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा अनुभव करते हैं । अतः आत्मा अपने शरीरके बराबर ही परिमाणवाला है ॥३१॥
विशेषार्थ-ज्ञान-दर्शन आदि गुणों और सुख-दुःख आदि अपनी पर्यायोंके साथ अपनी आत्माका अनुभव अपने शरीरमें ही सर्वत्र होता है, न तो पर-शरीरमें होता है और न अपने शरीर और पर-शरीरके मध्यमें होता है किन्तु तिलमें तेलकी तरह अपने शरीरमें ही सर्वत्र अपनी आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभव होता है। जैसे मैं सुखी हूँ या मैं दुःखी हूँ। उसीपर-से यह अनुमान होता है-देवदत्तकी आत्मा उसके शरीरमें ही सर्वत्र विद्यमान है क्योंकि उसके शरीर में ही सर्वत्र अपने असाधारण गुणोंको लिये हुए पायी जाती है। जो जहाँपर ही सर्वत्र अपने असाधारण गुणोंको लिये हुए पाया जाता है वह वहाँ ही सर्वत्र विद्यमान रहता है, जैसे देवदत्तके घरमें ही सर्वत्र अपने असाधारण प्रकाश आदि गुणोंको लिये हुए पाया जानेवाला दीपक । वैसे ही आत्मा भी सर्वत्र शरीर में ही पायी जाती है इसलिए
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