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द्वितीय अध्याय
'सुखमाह्लादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् ।
शक्तिः क्रियानुमेया स्याद्यूनः कान्तासमागमे ॥' [ स्याद्वादमहार्णव ] इति वचनात् । तस्मादात्मा स्वदेहप्रमाण इति ॥३१॥
देहे देहे भिन्नो जीव इति दर्शयति
कोऽश्नुते जन्म जरां मृत्यु सुखादि वा ।
तदैवान्योऽन्यदित्यङ्गया भिन्नाः प्रत्यङ्गमङ्गिनः ॥३२॥
अन्यत् — जरादि जन्मादि च । यदा ह्येको जायते तदैवान्यो जीर्यति - म्रियते वा । यदा चैको जीर्यति म्रियते वा तदैवान्यो जायते । तथा यदैवैकः सुखमैश्वर्यादिकं वाऽनुभवति तदैवान्यो दुःखं दौर्गत्यादिकं वाऽनुभवतीति जगद्वैचित्रो कस्य न वास्तवी निराबाधबोधे प्रतिभासात् । अङ्गयाः – बोष्याः ॥३२॥
अथ चार्वाकं प्रति जीवस्य पृथिव्यादिभूतकार्यतां प्रतिषेधयतिचित्तश्चेत् क्ष्माद्युपादानं सहकारि किमिष्यते । तच्चेत् तत्वान्तरं तत्त्वचतुष्क नियमः कुतः ॥३३॥ चित्तः - चेतनायाः उपादानम् । तल्लक्षणं यथात्यक्तात्यक्तात्मरूपं यत्पौर्वापर्येण वर्तते । कालत्रयेऽपि तद्द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ॥ [
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'आह्लादनाकार अनुभूतिको सुख कहते हैं और पदार्थ के जाननेको ज्ञान कहते हैं ।
अतः आत्मा अपने शरीरके ही बराबर परिमाणवाला है' ॥३१॥
आगे कहते हैं कि प्रत्येक शरीरमें भिन्न जीव हैं
जिस समय एक जीव जन्म लेता है उसी समय दूसरा जीव मरता है या वृद्ध होता
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वह शरीरमें ही सर्वत्र रहती है। उसके असाधारण गुण हैं-ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि । ये गुण सब शरीरमें ही पाये जाते हैं। कहा है
है । जिस समय एक जीव मरता है या बूढ़ा होता है उसी समय दूसरा जीव जन्म लेता है । जिस समय एक जीव सुख या ऐश्वर्यका भोग करता है उसी समय दूसरा जीव दुःख या दारिद्रयको भोगता है । जगत् की यह वास्तविक विचित्रता किसको सत्यरूपसे प्रतिभासित नहीं होती । अतः प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न जीव जानना चाहिए ||३२||
विशेषार्थ - जैसे कुछ दार्शनिक आत्माको सर्वव्यापी या अणुमात्र मानते हैं वैसे ही अद्वैतवादी सब जीवोंको एक ब्रह्मरूप ही मानते हैं । इन मतोंके खण्डनके लिए प्रमेय कमल मार्तण्ड, अष्ट सहस्री आदि दार्शनिक ग्रन्थ देखना चाहिए ||३२||
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चार्वाक मानता है कि जीव पृथिवी आदि भूतोंका कार्य है । उसका निषेध करते हैंयदि चार्वाक पृथिवी, जल, अग्नि और वायुको चेतनाका उपादान कारण मानता है तो उसका सहकारी कारण - :- बहिरंग कारण क्या है ? क्योंकि सभी कार्य अन्तरंग और बहिरंग कारणोंके समूहसे ही उत्पन्न होते हैं । और यदि पृथिवी आदि चार भूतों से भिन्न कोई सहकारी कारण चार्वाक मानता है तो चार्वाकदर्शनमें कहा है
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'पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि । तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा:' पृथिवी, जल, तेज, वायु ये चार ही तत्त्व हैं। उनके एकत्र होनेपर शरीर, इन्द्रिय, विषय आदि बनते हैं । ये जो चार तत्त्वोंका नियम है वह कहाँ रहता है ||३३||
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