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द्वितीय अध्याय
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अथ आत्मनो मूर्तत्वे युक्तिमाह
विद्यदाद्यैः प्रतिभयहेतुभिः प्रतिहन्यते ।
यच्चाभिभूयते मद्यप्रायमूर्तस्तदङ्गभाक् ॥२९॥ विद्यदाद्यैः-तडिन्मेघगजिताशानिपातादिभिः । प्रतिहन्यते-निद्वय( निरुद्ध )प्रसरः क्रियते । अभिभूयते-व्याहतसामर्थ्यः क्रियते । मद्यप्रायैः-मदिरा-मदन-कोद्रव-विषधत्तूरकादिभिः ॥२९॥
अथ कर्मणो मूर्तत्वे प्रमाणमाहकिये बिना ऊपर-ऊपर झलक मात्र दीखता है। रत्नका पारखी तो ऐसा ही जानता है किन्तु जो पारखी नहीं है उसे तो वह लालमणिकी तरह लाल ही प्रतिभासित होती है। उसी तरह जीव कर्मों के निमित्तसे रागादिरूप परिणमन करता है। वे रागादि जीवके निजभाव नहीं हैं, आत्मा तो अपने चैतन्यगुणसे विराजता है। रागादि उसके स्वरूपमें प्रवेश किये बिना ऊपरसे झलक मात्र प्रतिभासित होते हैं। ज्ञानी तो ऐसा ही जानता है क्योंकि वह आत्मस्वरूपका परीक्षक है। किन्तु जो उसके परीक्षक नहीं हैं उन्हें तो आत्मा रागादिस्वरूप ही प्रतिभासित होता है । यह प्रतिभास ही संसारका बीज है। इस तरह कर्मों के साथ परस्परमें एक दूसरेके प्रदेशोंका प्रवेशरूप एकत्वको प्राप्त हुआ जीव व्यवहारसे मूर्त कहाता है। कहा भी है
'बन्धकी अपेक्षा जीव और कर्ममें एकपना है किन्तु लक्षण से दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए जीवका अमूर्तिकपना अनेकान्त रूप है। अतः जीव कथंचित् मूर्त है । इसीसे कर्मबन्ध होता है । यदि सर्वथा अमूर्तिक होता तो सिद्धों के समान उसके बन्ध नहीं होता ॥२८॥
आगे आत्माके मत होनेमें युक्ति देते हैं
अचानक उपस्थित हुए बिजलीकी कड़क, मेघोंका गर्जन तथा वळपात आदि भयके कारणोंसे जीवका प्रतिघात देखा जाता है तथा मदिरा, विष, धतूरा आदिके सेवन से जीवकी शक्तिका अभिभव देखा जाता है-वह बेहोश हो जाता है अतः जीव मृत है ॥२९॥
विशेषार्थ-नशीली वस्तुओंके सेवनसे मनुष्यकी स्मृति नष्ट हो जाती है और वह बेहोश होकर लकड़ीकी तरह निश्चल पड़ जाता है। इसी तरह कर्मोंसे अभिभूत आत्मा मूत है ऐसा निश्चय किया जाता है । शायद कहा जाये कि मद्य, चक्षु आदि इन्द्रियोंको ही अभिभूत करता है क्योंकि इन्द्रियाँ पृथिवी आदि भूतोंसे बनी हैं, आत्माके गुणोंपर मद्यका कोई प्रभाव नहीं होता क्योंकि वह अमूर्तिक है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि विचारणीय यह है कि इन्द्रियाँ चेतन हैं या अचेतन ? यदि अचेतन हैं तो अचेतन होनेसे मद्य उनपर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकता। यदि अचेतनपर भी मद्यका प्रभाव होता तो सबसे प्रथम उसका प्रभाव उस पात्रपर होना चाहिए जिसमें मद्य रखा जाता है। यदि कहोगे कि इन्द्रियाँ चेतन हैं तो पृथिवी आदि में तो चैतन्य स्वभाव पाया नहीं जाता। अतः प्रथिवी आदि भतोंसे बनी इन्द्रियोंको चेतन द्रव्यके साथ सम्बन्ध होनेसे ही चेतन कहा जाता है । अतः मद्य आत्मगुणोंको ही मोहित करता है यह सिद्ध होता है। और इससे आत्माका कथंचित् मूर्तिकपना सिद्ध होता है क्योंकि अमूर्तिकका मूर्तिकके द्वारा अभिघात आदि नहीं हो सकता ॥२९॥
आगे कर्मोके मूर्त होनेमें प्रमाण देते हैं
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