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धर्मामृत ( अनगार) अथ आत्मनः किंचिद् मूर्तत्वानुवादपुरस्सरं कर्मबन्धं समर्थयते
स्वतोऽमूर्तोऽपि मूतेन यद्गतः कर्मणैकताम् ।
पुमाननादिसंतत्या स्यान्मूर्तो बन्धमेत्यतः ॥२८॥ स्वतोऽमूर्तः-स्वरूपेण रूपादिरहितः । उक्तं च
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं ।
जाणमलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥ [ प्रवचनसार २८० । ] एकतां-क्षीरनीरवदेकलोलीभावम् । स्यान्मूर्तः । अत इत्यत्रापि संबध्यते । स्याच्छब्दोऽनेकान्तद्योतक एकान्तनिषेधकः कथंचिदर्थे निपातः। ततः कर्मणा सह अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षणमेकत्वपरिणतिमापन्नो जीवो * व्यवहारेण मूर्त इत्युच्यते । तथा चोक्तम्
बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवदि तस्स णाणत्त ।
तम्हा अमुत्तिभावो यंतो हवदि जीवस्स ॥ [ सर्वार्थसि. ( २१७ ) में उद्धृत ] अतः कथंचिन्मूर्तत्वात् ॥२८॥
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कार्योंकी उत्पत्तिका प्रसंग आनेसे दूसरे क्षणमें उसे कुछ भी करनेको शेष नहीं रहेगा। और ऐसी स्थितिमें वह अवस्तु सिद्ध होगा। रहा क्रम, सो क्रमके दो प्रकार हैं-देशक्रम और कालक्रम । पहले एक देशमें कार्य करके फिर दूसरे देशमें कार्य करनेको देशक्रम कहते हैं। और पहले एक समयमें कार्य करके पुनः दूसरे समयमें कार्य करनेको कालक्रम कहते हैं । क्षणिकमें ये दोनों ही क्रम सम्भव नहीं हैं। क्योंकि बौद्धमत में कहा है
'क्षणिकवादमें जो जहाँ है वहीं है और जिस क्षणमें है उसी क्षणमें है । यहाँ पदार्थों में न देशव्याप्ति है और न कालव्याप्ति है अर्थात् एकक्षणवर्ती वस्तु न दूसरे क्षणमें रहती है और न दूसरे प्रदेश में । क्षणिक ही जो ठहरी । तब वह कैसे क्रमसे कार्य कर सकती है' ? ॥२७॥
आगे जीवको कथंचित् मूर्त बतलाते हुए कर्मबन्ध का समर्थन करते हैं
यह जीव यद्यपि स्वरूपसे अमूर्तिक है तथापि बीज और अंकुर की तरह अनादि सन्तानसे मूर्त पौद्गलिक कर्मों के साथ दूध और पानीकी तरह एकमेक हो रहा है अतः कथंचित् मूर्तिक है। और कथंचित् मूर्त होनेसे ही कम पुद्गलोंके साथ बन्धको प्राप्त होता है ॥२८॥
विशेषार्थ-संसारी जीव भी स्वरूपसे अमूर्तिक है। जीवका स्वरूप इस प्रकार कहा है
'जीवमें रस नहीं है, रूप नहीं है, गन्ध नहीं है, अव्यक्त है-सूक्ष्म है, शुद्ध चेतना उसका गुण है, शब्द रूप नहीं है, स्वसंवेदन ज्ञानका विषय है, इन्द्रियोंका विषय नहीं है तथा सब संस्थानों-आकारोंसे रहित है।
किन्तु स्वरूपसे अमूर्तिक होनेपर भी अनादि सन्तानसे जीव पौद्गलिक कर्मों के साथ दूध पानीकी तरह मिला हुआ है। यद्यपि उस अवस्थामें भी जीव जीव ही रहता है
और पौद्गलिक कर्म पौद्गलिक ही हैं। न जीव पौद्गलिक कर्मरूप होता है और न पौद्गलिक कर्म जीवरूप होते हैं। पौद्गलिक कर्मकी बात दूर, पौद्गलिक कर्मका निमित्त मात्र पाकर जीवमें होनेवाले रागादि भावोंसे भी वह तन्मय नहीं है। जैसे लाल फूलके निमित्तसे स्फटिक मणि लाल दिखाई देती है। परन्तु वह लाल रंग स्फटिकका निज भाव नहीं है, उस समय भी स्फटिक अपने श्वेतवर्णसे युक्त है। लालरंग उसके स्वरूपमें प्रवेश
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