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________________ wwwwwwwwwwww द्वितीय अध्याय १२१ अवित्-मन्दमतिः । आज्ञयेव-'नान्यथावादिनो जिनाः' इत्येवं कृत्वा । जीवान् जीवनगुणयोगाज्जीवः । तदुक्तम् 'पाणेहि चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं ।। सो जीवो पाणा पुण बलमिदियमाउ उस्सासो॥' [पञ्चास्ति. ३०] सिद्धेतरान्-मुक्तान् संसारिणश्च । अपार्थः-निष्फलः । श्रमः-तपश्चरणाद्यभ्यासः । यत्तात्विकः अप्पा मिल्लिवि णाणमउ जे परदवि रमंति। अण्ण कि मिच्छाइट्ठियहो म इ सिंग हवंति ॥[ ] अथ जीवपदार्थ विशेषेणाधिगमयतिजोवे नित्येऽर्थसिद्धिःक्षणिक इव भवेन्न क्रमादक्रमाद्वा नामूर्ते कर्मबन्धो गगनवदणुवद् व्यापकेऽध्यक्षबाधा। नैकस्मिन्नुवादिप्रतिनियमगतिःक्ष्मादिकार्ये न चित्त्वं यत्तन्नित्येतरादिप्रचुरगुणमयः स प्रमेयः प्रमाभिः ॥२६॥ नित्ये-यौगादीन् प्रति अर्थसिद्धिः-कार्योत्पत्तिर्न भवेत्, पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेः । क्षणिके-बौद्धं प्रति, अमूर्ते-योगादीन् प्रति । अणुवत्-वटकणिकामात्रे यथा। १५ व्यापके-यौगादीन् प्रति, एकस्मिन्-ब्रह्माद्वैतवादिनं प्रति, क्ष्मादिकार्ये-चार्वाकं प्रति, चेतनत्वम् । नित्येत्यादि-नित्यानित्यमूर्ताद्यनेकधर्मात्मकः । प्रमाभिः-स्वसंवेदनानुमानागमप्रमाणः ॥२६॥ अनुयोग कहते हैं प्रश्नपूर्वक उत्तर को। जैसे जिनके द्वारा वस्तुके स्वरूप संख्या आदि पूछी जायें और उनका उत्तर दिया जाये वे निर्देश आदि या सत् संख्या आदि अनुयोग हैं। इन सबके द्वारा जीवादि द्रव्योंको जानना चाहिए। किन्तु उनमें भी अजीव द्रव्योंसे जीव द्रव्यको विशेष रूपसे जानना चाहिए क्योंकि उसको जाने विना व्रत, संयम, तपश्चरण सभी व्यर्थ है ॥२५॥ जीवपदार्थको विशेष रूपसे कहते हैं___ जैसे जीवको क्षणिक माननेपर क्रम या अक्रमसे कार्यकी निष्पत्ति सम्भव नहीं है वैसे ही जीवको सर्वथा नित्य माननेपर भी क्रम या अक्रमसे कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। तथा आकाशकी तरह सर्वथा अमूर्त माननेपर कर्मबन्ध नहीं हो सकता। तथा जीवको अणु बराबर माननेपर जैसे प्रत्यक्षसे बाधा आती है वैसे ही सर्वत्र व्यापक माननेमें भी प्रत्यक्षबाधा है। सर्वथा एक ही जीव माननेपर जन्म-मरण आदिका नियम नहीं बन सकता। जीवको पृथिवी आदि पंच भूतोंका कार्य माननेपर चेतनत्व नहीं बनता। इसलिए प्रमाणके द्वारा जीवको नित्य, अनित्य, मूर्त, अमूर्त आदि अनेक धर्मात्मक निश्चित करना चाहिए ॥२६॥ विशेषार्थ-क्षणिकवादी बौद्ध चित्तक्षणोंको भी क्षणिक मानता है। योग आत्माको सर्वथा नित्य व्यापक और अमूर्तिक मानता है। ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्म ही मानता है। चार्वाक जीवको पंच भूतोंका कार्य मानता है। इन सबमें दोष है। जीवको सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक माननेपर उसमें अर्थक्रिया नहीं बनती। अर्थक्रिया या तो क्रमसे होती है या युगपद् । क्षणिक पदार्थ तो कोई कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि वह उत्पन्न होते ही नष्ट १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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