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धर्मामृत ( अनगार) अथ जीवादिवस्तुनः सर्वथा नित्यत्वे सर्वथा क्षणिकत्वे च क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वानुपपत्त्याऽवस्तुत्वं प्रस्तौति
नित्यं चेत् स्वयमर्थकृत्तदखिलार्थोत्पादनात् प्राकक्षणे
नो किञ्चित् परतः करोति परिणाम्येवान्यकाक्षं भवेत् । तन्नैतत् क्रमतोऽथंकृन्न युगपत् सर्वोद्भवाप्तः सकृन्
नातश्च क्षणिकं सहायंकृदिहाव्यापिन्यहो कः क्रमः ॥२७॥ हो जाता है उसे कार्य करनेके लिए समय ही नहीं है। नित्य पदार्थ क्रमसे काम नहीं कर सकता। क्योंकि जब वह सदा वर्तमान है तो क्रमसे कार्य क्यों करेगा। और यदि सभी कार्य एक ही समयमें उत्पन्न कर देगा तो दूसरे समयमें उसे करनेके लिए कुछ भी नहीं रहेगा। ऐसी अवस्थामें वह अवस्तु हो जायगा; क्योंकि वस्तुका लक्षण अर्थक्रिया है। इसी तरह आत्माको सर्वथा अमूर्तिक माननेपर आकाशकी तरह वह कर्मोंसे बद्ध नहीं हो सकता। आत्माको अणु बराबर या सर्वत्र व्यापक माननेपर प्रत्यक्षबाधा है; क्योंकि, स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे आत्मा अपने शरीरमें ही सर्वत्र प्रतीत होती है, उससे बाहर उसकी प्रतीति नहीं होती। अद्वैतवादकी तरह केवल एक आत्मा मानने पर जन्म-मरण आदि नहीं बन सकता। एक ही आत्मा एक ही समय में कैसे जन्म-मरण कर सकता है । जीवको पृथिवी, जल, अग्नि, वायुका कार्य मानने पर वह चेतन नहीं हो सकता; क्योंकि पृथ्वी आदिमें चेतनपना नहीं पाया जाता। उपादान कारणका गुण ही कार्यमें आता है, उपादानमें जो गुण नहीं होता वह कार्यमें नहीं आ सकता। किन्तु जीवमें चैतन्य पाया जाता है। अतः आत्माको एकरूप न मानकर अनेक गुणमय मानना चाहिए। वह द्रव्य रूपसे नित्य है, पर्याय रूपसे अनित्य है। अपने शुद्ध स्वरूपकी अपेक्षा अमूर्तिक है । कर्मबन्धके कारण मूर्तिक है । अपने शरीरके बराबर है। इस तरह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणोंसे आत्माको अनेक गुणमय जानना चाहिए ॥२६।।
_ आगे कहते हैं कि जीवादि वस्तुको सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक माननेपर अर्थक्रियाकारिता नहीं बनता, अतः अर्थक्रियाकारिता न बननेसे अवस्तुत्वका प्रसंग आता है____ यदि नित्य पदार्थ सहकारी कारणके विना स्वयं ही कार्य करता है तो पहले क्षणमें ही समस्त अपना कार्य करनेसे दसरे आदि क्षणों में कुछ भी नहीं करता। यदि कहोगे कि सहकारीकी अपेक्षासे ही वह अपना कार्य करता है तो अपना कार्य करने में सहकारीकी अपेक्षा करनेसे वह परिणामी-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक ही सिद्ध होता है। अतः नित्य वस्तु क्रमसे-कालक्रमसे तो कार्यकारी नहीं है। यदि कहोगे कि वह युगपत् अपना कार्य करता है सो भी कहना ठीक नहीं है । क्योंकि सभी कार्योंके एक साथ एक ही क्षणमें उत्पन्न होनेका प्रसंग आता है । इसपर बौद्ध कहता है कि नित्य पदार्थ भले ही कार्यकारी न हो, क्षणिक तों है। इसपर जैनोंका कहना है कि क्षणिक वस्तु युगपत् कार्यकारी है तब भी एक ही क्षणमें सब कार्य उत्पन्न हो जानेसे दूसरे क्षणमें वह अकार्यकारी हो जायेगा। यदि कहोगे कि अणिक पदार्थ-क्रमसे कार्य करता है तो जैन कहते हैं कि आश्चर्य इस बातका है जो कालान्तर और देशान्तरमें अव्यापी है उसमें आप क्रम स्वीकार करते हैं, ऐसे पदार्थमें न देशक्रम बनता है और न कालक्रम बनता है ॥२७॥
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