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धर्मामृत ( अनगार) जीवादीनां श्रुताप्तानां द्रव्यभावात्मनां नयैः । परीक्षितानां वाच्यत्वं प्राप्तानां वाचकेषु च ।। यद् भिदा प्ररूपणं न्यासः सोऽप्रस्तुतनिराकृतेः । प्रस्तुतव्याकृतेश्चार्थ्यः स्यान्नामाद्यैश्चतुर्विधः ।। अतद्गुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये। तत्संज्ञाकर्म तन्नाम नरेच्छावशवर्तनात् ।। साकारे वा निराकारे काष्ठादौ यन्निवेशनम् । सोऽयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ।। आगामिगुणयोग्योऽर्थो द्रव्यं न्यासस्य गोचरः ।
तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तु भावोऽभिधीयते ॥ [ अनुयोगः-प्रश्न उत्तरं च । तद्यथा
'स्वरूपादीनि पृच्छयन्ते प्रत्पुव्य (?) ते च वस्तुनः । निर्देशादयस्तेऽनुयोगाः स्युर्वा सदादयः ॥ [
विशेषार्थ-श्रुतज्ञानका लक्षण इस प्रकार कहा है
मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले अर्थसे अर्थान्तरके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । वह श्रुतज्ञान शब्दजन्य और लिंगजन्य होता है। श्रोत्रेन्द्रियसे होनेवाले मतिज्ञान पूर्वक जो ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान होता है। और अन्य इन्द्रियोंसे होनेवाले मतिज्ञान पूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है वह लिंगजन्य श्रुतज्ञान है। शब्दजन्य श्रुतज्ञान के दो भेद हैं, अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । गणधरके द्वारा केवलीकी वाणी सुनकर जो बारह अंगोंकी रचना की जाती है वह अंगप्रविष्ट है और उसके बारह भेद हैं। तथा अल्प बुद्धि अल्पायु जनोंके लिए आचार्योंके द्वारा जो ग्रन्थ रचे गये उन्हें अंगबाह्य कहते हैं। अंगबाह्यके अनेक भेद हैं।
निक्षेपका लक्षण तथा भेद इसप्रकार कहे हैं
श्रुतके द्वारा विवक्षित और नयके द्वारा परीक्षित तथा वाच्यताको प्राप्त द्रव्य भावरूप जीवादिका वाचक जीवादि शब्दोंमें भेदसे कथन करना न्यास या निक्षेप है। वह निक्षेप अप्रस्तुतका निराकरण और प्रस्तुतका कथन करनेके लिए होता है।
आशय यह है कि श्रोता तीन प्रकारके होते हैं, अव्युत्पन्न, विवक्षित पदके सब अर्थोंको जाननेवाला और एक देशसे जाननेवाला । पहला तो अव्युत्पन्न होनेसे विवक्षित पदके अर्थको नहीं जानता। दूसरा, या तो संशयमें पड़ जाता है कि इस पदका यहाँ कौन अर्थ लिया गया है या विपरीत अर्थ लेता है। तीसरा भी संशय या विपर्ययमें पड़ता है। अतः अप्रकृतका निराकरण करनेके लिए और प्रकृतका निरूपण करनेके लिए निक्षेप है। उसके चार भेद हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इनका स्वरूप-जिन पदार्थों में गण नहीं है, उनमें व्यवहार चलानेके लिए मनुष्य अपनी इच्छानुसार जो नाम रखता है वह नाम निक्षेप है। साकार या निराकार लकड़ी वगैरह में 'यह इन्द्र है' इत्यादि रूपसे निवेश करनेको स्थापना कहते हैं । आगामी गुणोंके योग्य पदार्थ द्रव्य निक्षेपका विषय है (जैसे राजपुत्रको राजा कहना)। और तत्कालीन पर्यायसे विशिष्ट वस्तुको भाव कहते हैं (जैसे, राज्यासनपर बैठकर राज करते हुएको राजा कहना)।
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