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द्वितीय अध्याय
११९ एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ [ पुरुषार्थ. २२५ ] ॥२४॥ अथैवं धर्मादिवदास्रवाद्यपि समधिगम्य श्रद्दध्यादित्यनुशास्तिधर्मादीनधिगम्य सच्छु तनयन्यासानुयोगैः सुधीः
श्रद्दध्यादविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धेतरान् । स्यान्मन्दात्मरुचेः शिवाप्तिभवहान्यर्थो पार्थः श्रमो
मन्येताप्तगिरानवाद्यपि तथैवाराधयिष्यन् दृशम् ॥२५॥ अधिगम्य-ज्ञात्वा । सच्छतं-सम्यक् श्रुतज्ञानम् । तल्लक्षणं यथा--
अर्थादर्थान्तरज्ञानं मतिपूर्वं श्रुतं भवेत् ।
शाब्दतल्लिङ्गजं वात्र द्वयनेकद्विषड्भेदगम् ॥ [ न्यासः-निक्षेपः । तल्लक्षणं यथा
स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी विवक्षामें द्रव्य है और नहीं है। स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी युगपत् विवक्षा होनेपर द्रव्य अवक्तव्य है। स्वद्रव्य क्षेत्र-काल भाव और युगपत् स्वपर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी विवक्षामें द्रव्य है और अवक्तव्य है। परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और युगपत् स्व-परद्रव्य-क्षेत्र-भावकी विवक्षामें द्रव्य नहीं है और अवक्तव्य है। स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल, परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और यगपत स्वपर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी विवक्षा होनेपर द्रव्य है, नहीं है और अवक्तव्य है । जैसे एक देवदत्त गौण और मुख्यकी विवक्षा से अनेकरूप होता है, वह पुत्रकी अपेक्षा पिता कहा जाता है और अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र कहाता है। मामाकी अपेक्षा भानेज कहा जाता है और भानेजकी अपेक्षा मामा कहलाता है । पत्नीकी अपेक्षा पति और बहिनकी अपेक्षा भाई कहाता है । इसी तरह एक भी द्रव्य गौण और मुख्य विवक्षा वश सप्तभंगमय होता है । सत् , एक, नित्य आदि धर्मों में से एक-एक धर्मको लेकर सात भंग होते हैं। जैसे ग्वालिन मथानीकी रस्सीको एक ओरसे खींचती है तो दूसरी ओरसे ढील देती है। इसी तरह
त्वको एक धर्म की मुख्यतासे खींचती हुई और इतर धर्मकी अपेक्षासे गौण करती हुई जैनीनीति जयशील होती है । आचार्य अमृत चन्द्र जीने यही कहा है ॥२४॥
आगे कहते हैं कि धर्म आदि की तरह आस्रव आदिको भी जानकर उनपर श्रद्धा करनी चाहिए
बुद्धिशाली जीवोंको समीचीन श्रुत, नय, निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा धर्म आदि द्रव्योंको जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिए। और मन्दबुद्धि जीवोंको 'जिन भगवान् अन्यथा नहीं कहते' ऐसा मनमें धारण करके उनकी आज्ञाके रूपमें ही उनका श्रद्धान करना चाहिए । किन्तु बुद्धिमानों और मन्दबुद्धि दोनों ही प्रकारके प्राणियोंको सम्यक् श्रुत आदिके द्वारा तथा आज्ञा रूपसे धर्म आदि अजीव द्रव्योंकी अपेक्षा मुक्त और संसारी जीवोंको
ष रूपसे जानना चाहिए, क्योंकि जिसकी आत्म विषयक श्रद्धा मन्द होती है, मोक्षकी प्राप्ति और संसारकी समाप्ति के लिए उसका तपश्चरण आदि रूप श्रम व्यर्थ होता है। तथा सम्यग्दर्शनकी आराधनाके इच्छुक बुद्धिमान और मन्दबुद्धि जनको उसी प्रकार आप्त की वाणीसे आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वको भी जानना चाहिए ।।२५।।
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