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धर्मामृत ( अनगार)
चारित्राधिकार है। इसके प्रारम्भमें ग्रन्थकारने धर्मतीर्थके कर्ता वर्धमान, शेष तीर्थकर, श्रमण आदिको नमस्कार करके लिखा है
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसि ॥४॥ तेसि विसुद्धदंसणणाण-पहाणासमं समासेज्ज ।
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।।५।। अर्थात समस्त अरहन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओंको नमस्कार करके उनके विशद्ध दर्शन और ज्ञान प्रधान आश्रमको प्राप्त करके साम्यभावको स्वीकार करता हूँ जिससे मोक्षकी प्राप्ति होती है।
इसके पश्चात इस ग्रन्थका प्रारम्भ 'चारित्तं खलु धम्मो' से होता है। इस चारित्रके भी दो रूप हैसराग और वीतराग। सरागी श्रमणोंको शुभोपयोगी और वीतरागी श्रमणोंको शुद्धोपयोगी कहते हैं । वीतरागी श्रमण ही मुक्ति प्राप्त करते हैं जैसा कि ऊपर कहा है।
कुन्दकुन्दके आठ प्राभूत उपलब्ध हैं। उनमें से एक चारित्तपाहड है। उसमें कतिपय गाथाओंसे श्रावकधर्मका बारह व्रतरूप सामान्य कथन है । शेष जिन प्राभृतोंमें भी आचार विषयक चर्चा है वह केवल मनि आचारसे सम्बद्ध है। उसमें शिथिलाचारीकी कड़ी आलोचना आदि है। इससे लगता है कि उस समय तक मनिधर्मका पालन बहुतायत से होता था। किन्तु उसके पश्चात् मुनिधर्ममें कमी आती गयी और शिथिलाचार भी बढ़ता गया है। मुनिधर्मका एकमात्र प्राचीन ग्रन्थ मूलाचार भी कुन्दकुन्दकृत कहा जाता है। वे ही मलसंघके मान्य आचार्य थे। मूलाचारके पश्चात् मनिधर्मका प्रतिपादक कोई प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। और श्रावकके आचार सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं 'जो प्रायः दसवीं शताब्दी
और उसके बादके रचे गये हैं। पं. आशाधरका अनगार धर्मामृत ही एक मुनिआचार-विषयक ग्रन्थ उत्तरकालमें मिलता है।
किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें मुनिआचार-विषयक विपुल साहित्य है। और उसमें श्रमणों और श्रमणियोंके आचार, संघ व्यवस्था, प्रायश्चित्त आदिका बहुत विस्तारसे कथन मिलता है जो परिग्रहसे सम्बद्ध होने के कारण दिगम्बर परम्पराके अनुकूल नहीं पड़ता। किन्तु उससे तत्कालीन आचार-विषयक अनेक बातोंपर प्रकाश पड़ता है।
श्वेताम्बर परम्परा भी गृहस्थाश्रमसे मुक्ति स्वीकार नहीं करती। किन्तु उसमें वस्त्रत्याग अनिवार्य न होने से, बल्कि उसके विपरीत उत्तरकालमें मुक्तिके लिए वस्त्रधारण आवश्यक कर दिये जानेसे ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि गृहस्थ अवस्था में ही केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गयी। फिर भी प्राचीन आगमिक साहित्य अनगारधर्मसे हो सम्बद्ध मिलता है।
इस तरह आचार विषयक साहित्यसे भी यही प्रमाणित होता है कि जैनधर्म में मुनि आचारका ही महत्त्व रहा है । इतने प्राथमिक कथनके पश्चात् हम अपने प्रकृत विषय पर आते हैं। ६. अनगार धर्म
पं. आशाधरजीने अपने धर्मामतको दो भागोंमें रचा है। प्रथम भाग अनगार धर्मामृत है और दूसरा भाग सागार धर्मामृत है। जहाँ तक हम जानते हैं आचार विषयक-उत्तरकालीन ग्रन्थ निर्माताओं में वे ही ऐसे ग्रन्थकार हैं जिन्होंने सागार धर्मसे पूर्व अनगार धर्मपर भी ग्रन्थ रचना की है और एक तरहसे मूलाचारके पश्चात् अनगारधर्म पर वही एक अधिकृत ग्रन्थ दि. परम्परामें है। उसमें नौ अध्याय है। पहले अध्यायमें धर्मके स्वरूप का निरूपण है । दूसरे में सम्यक्त्वकी उत्पत्ति आदिका कथन है। तीसरे में ज्ञानकी आराधनाका, चतुर्थ अध्यायमें सम्यक् चारित्रका, पाँचवेंमें भोजन सम्बन्धी दोषों आदिका, छठे अध्यायमें दस धर्म,
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