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प्रस्तावना
अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः ।
अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥१९॥ जो अल्पमति उपदेशक मुनिधर्मको न कहकर श्रावकधर्मका उपदेश देता है उसको जिनागममें दण्डका पात्र कहा है। क्योंकि उस दुर्बुद्धिके क्रमका भंग करके उपदेश देनेसे अत्यन्त दूर तक उत्साहित हआ भी शिष्य श्रोता तुच्छ स्थानमें ही सन्तुष्ट होकर ठगाया जाता है। अतः वक्ताको प्रथम मनिधर्मका उपदेश करना चाहिये, ऐसा पुराना विधान था।
इससे अन्वेषक विद्वानोंके इस कथनमें कि जैन धर्म और बौद्धधर्म मूलतः साधुमार्गी धर्म थे यथार्थता प्रतीत होती है।
लोकमान्य तिलकने अपने गीता रहस्यमें लिखा है कि वेदसंहिता और ब्राह्मणोंमें संन्यास आश्रम आवश्यक नहीं कहा गया। उलटा जैमिनिने वेदोंका यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गृहस्थाश्रममें रहनेसे ही मोक्ष मिलता है। उन्होंने यह भी लिखा है कि जैन और बौद्धधर्मके प्रवर्तकोंने इस मतका विशेष प्रचार किया कि संसारका त्याग किये बिना मोक्ष नहीं मिलता। यद्यपि शंकराचार्यने जैन और बौद्धोंका खण्डन किया तथापि जैन और बौद्धोंने जिस संन्यासधर्मका विशेष प्रचार किया था, उसे ही श्रौतस्मात संन्यास कहकर कायम रखा।
कुछ विदेशी विद्वानोंका जिनमें डा० जेकोबी' का नाम उल्लेखनीय है यह मत है कि जैन और बौद्ध श्रमणोंके नियम ब्राह्मणधर्मके चतुर्थ आश्रमके नियमोंको ही अनुकृति हैं।
किन्तु एतद्देशीय विद्वानोंका ऐसा मत नहीं है क्योंकि प्राचीन उपनिषदोंमें दो या तीन ही आश्रमोंका निर्देश मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद्के अनुसार गृहस्थाश्रमसे ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है । शतपथ ब्राह्मणमें गृहस्थाश्रमकी प्रशंसा है और तैत्तिरीयोपनिषदमें भी सन्तान उत्पन्न करनेपर ही जोर दिया है। गौतम धर्मसूत्र ( ८1८) में एक प्राचीन आचार्यका मत दिया है कि वेदोंको तो एक गृहस्थाश्रम ही मान्य है। वेदमें उसीका विधान है अन्य आश्रमोंका नहीं। वाल्मीकि रामायणमें संन्यासीके दर्शन नहीं होते। वानप्रस्थ ही दृष्टिगोचर होते हैं । महाभारतमें जब युधिष्ठिर महायुद्ध के पश्चात् संन्यास लेना चाहते हैं तब भीम कहता हैशास्त्रमें लिखा है कि जब मनुष्य संकटमें हो, या वृद्ध हो गया हो, या शत्रुओंसे त्रस्त हो तब उसे संन्यास लेना चाहिए। भाग्यहीन नास्तिकोंने ही संन्यास चलाया है।
अतः विद्वानोंका मत है कि वानप्रस्थ और संन्यासको वैदिक आर्योंने अवैदिक संस्कृतिसे लिया है (हिन्दूधर्म समीक्षा पृ. १२७ ) अस्तु ।
जहाँ तक जैन साहित्यके पर्यालोचनका प्रश्न है उससे तो यही प्रतीत होता है कि प्राचीन समयमें एक मात्र अनगार या मुनिधर्मका ही प्राधान्य था, श्रावक धर्म आनुषंगिक था। जब मुनिधर्मको धारण करनेकी ओर अभिरुचि कम हुई तब श्रावक धर्मका विस्तार अवश्य हुआ किन्तु मुनि धर्मका महत्त्व कभी भी कम नहीं हुआ, क्योंकि परमपुरुषार्थ मोक्षकी प्राप्ति मुनिधर्मके बिना नहीं हो सकती। यह सिद्धान्त जैन धर्ममें आज तक भी अक्षुण्ण है। ५. धार्मिक साहित्यका अनुशीलन
हमने ऊपर जो तथ्य प्रकाशित किया है उपलब्ध जैन साहित्यके अनुशीलनसे भी उसीका समर्थन होता है।
सबसे प्रथम हम आचार्य कुन्दकुन्दको लेते हैं। उनके प्रवचनसार और नियमसारमें जो आचार विषयक चर्चा है वह सब केवल अनगार धर्मसे ही सम्बद्ध है। प्रवचनसारका तीसरा अन्तिम अधिकार
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से. वु.ई. जिल्द २२ की प्रस्तावना पृ. ३२ ।
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