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धर्मामृत ( अनगार) भोगवृत्ति पर अंकुश लगाओ, परस्त्री गमन छोड़ो। ये सब कर्म क्या मानवधर्म नहीं हैं ? क्या इनका भी सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय विशेषसे है ? कौन बुद्धिमान ऐसा कहनेका साहस कर सकता है।
यदि मनुष्य इन दस मानवधर्मोको जीवन में उतार ले तो धर्म मनुष्य समाजके लिए वरदान बनकर अमृतत्वका ओर ले जाने में समर्थ होता है। आज जितना कष्ट है वह इन्हीं के अभावसे है। आजका मनुष्य अपने भारतीय चारित्रको भुलाकर विलासिता, धनलिप्सा, भोगतृष्णाके चक्रमें पड़कर क्या नहीं करता । और धर्मसे विमुख होकर धर्मकी हँसी उड़ाता है, धर्मको ढकोसला बतलाता है। क्यों न बतलावे, जब वह धर्मका बाना धारण करने वालोंको भी अपने ही समकक्ष पाता है तो उसकी आस्था धर्मसे डिगना स्वाभाविक है । इसमें उसका दोष नहीं है। दोष है धर्मका यथार्थ रूप दृष्टिसे ओझल हो जानेका। जब धर्म भी वही रूप धारण कर लेता है जो धनका है तब धन और धर्ममें गठबन्धन हो जानेसे धन धर्मको भी खा बैठता है। आज धर्म भी धनका दास बन गया है। धर्मका कार्य आज धनके बिना नहीं चलता। फलत: धर्म पर आस्था हो तो कैसे हो । धन भोग का प्रतिरूप है और धर्म त्यागका । अतः दोनोंमें तीन और छह जैसा वैमुख्य है। इस तथ्यको हृदयंगम करना आवश्यक है।
४. धर्मके भेद
जैनधर्मके उपदेष्टा या प्रवर्तक सभी तीर्थकर संसार त्यागी तपस्वी महात्मा थे। इस युगमें जैनधर्मके आद्य प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव तो महान् योगी थे। उनकी जो प्राचीन मूर्तियाँ मिलती हैं वे प्रायः कायोत्सर्ग मुद्रामें और सिर पर जटाजूटके साथ मिलती हैं जो उनकी तपस्विताकी सूचक है। गृहस्थाश्रमके साथ सर्वस्व त्यागकर वर्षों पर्यन्त वनमें आत्मध्यान करने के पश्चात् ही पूर्णज्ञानकी प्राप्ति होती है और पूर्णज्ञान होने पर ही धर्मका उपदेश होता है। धर्मोपदेश कालमें तीर्थंकर पूर्ण निरोह होते हैं उन्हें अपने धर्मप्रवर्तनकी भी इच्छा नहीं होती। इच्छा तो मोहकी पर्याय है और मोह रागद्वेषके नष्ट हए बिना पूर्णज्ञान नहीं होता।
इस तरह जब आत्मा परमात्मा बन जाता है तभी वह उपदेशका पात्र होता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामीने कहा है
अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् ।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पन्मुिरजः किमपेक्षते ॥-र. श्रा. अर्थात् धर्मोपदेष्टा तीर्थंकर कुछ भी निजी प्रयोजन और रागके बिना सज्जनोंको हितका उपदेश देते हैं। मृदंगवादकके हाथके स्पर्शसे शब्द करनेवाला मृदंग क्या अपेक्षा करता है। अर्थात जैसे वादकके हाथका स्पर्श होते ही मृदंग शब्द करता है उसी तरह श्रोताओंकी भावनाओंका स्पर्श होते ही समवसरणमें विराजमान तीर्थंकरके मुखसे दिव्यध्वनि खिरने लगती है।
उसके द्वारा धर्मके दो मुख्य भेद प्रकाशमें आते हैं अनगार या मुनि धर्म और सागार या श्रावक धर्म । मुनिधर्म ही उत्सर्ग धर्म माना गया है क्योंकि वही मोक्ष की प्राप्तिका साक्षात् मार्ग है। मुनिधर्म धारण किये बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। जो मुनि धर्म धारण करने में असमर्थ होते हैं किन्तु उसमें आस्था रखते हैं वे भविष्यमें मुनि बनने की भावनासे श्रावकधर्म अंगीकार करते हैं । अतः श्रावकधर्म अपवादधर्म है।
पुरुषार्थसिद्धयुपायसे ज्ञात होता है कि पहले जिनशासनका ऐसा आदेश था कि साधुके पास जो भी उपदेश सुनने के लिए आवे उसे वे मुनि धर्मका ही उपदेश देवें। यदि वह मुनिधर्मको ग्रहण करने में असमर्थ हो तो उसे पीछेसे श्रावकधर्मका उपदेश देवें। क्योंकि
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥१८॥
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