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प्रस्तावना
१७
इन्द्रियजय, संयम, बारह भावना आदिका कथन है। सातवें अध्यायमें अन्तरंग-बहिरंग तपोंका वर्णन है। आठवें अध्यायमें छह आवश्यकोंका वर्णन है और नौवें अध्याय में नित्यनैमित्तिक क्रियाओंका वर्णन है।
यहाँ हम अनगार धर्मपर विशेष रूपसे प्रकाश डालेंगे क्योंकि इसपर बहुत कम लिखा गया है और श्रावकोंकी तो बात ही क्या, अनगार धर्मका पालन करनेवाले भी अनगार धर्मका साधारण ज्ञान ही रखते हैं । अपने इस लेखनमे हम श्वेताम्बर साहित्यका भी उपयोग करेंगे। जहाँ दिगम्बर मान्यतासे भेद होगा वहाँ उसका निर्देश कर देंगे अन्यथा उसका पृथक् निर्देश नहीं करेंगे ।
मुनिदीक्षा
प्रवचनसारके तीसरे अधिकारके प्रारम्भमें मुनिपदकी दीक्षाके सम्बन्धमें कहा है-जो श्रमण होना चाहता है वह अपने परिजनोंसे आज्ञा लेकर किसी कुल, रूप और वयसे विशिष्ट गणीके पास जाकर उनसे प्रार्थना करता है। मुनिसंघकी अनुमति मिलनेपर वह अपने हाथसे अपने सिर और दाढ़ीके बालोंका लोंच करता है और 'यथा जात रूप धर' अर्थात् नग्न हो जाता है। यह रूप स्वीकार करके वह गुरुजनसे अपने कर्तव्यकर्मको सुनता है और उसे स्वीकार करके श्रमण हो जाता है।
दीक्षाके अयोग्य व्यक्ति
जैन श्रमणका पद एक बहुत ही आदरणीय और उच्च नैतिक मापदण्डका स्थान है। अतः उसे धारण करनेवालेमें कुछ विशेषताएँ होना आवश्यक हैं । श्वे. साहित्यके अनुसार नीचे लिखे व्यक्ति श्रमण संघमें प्रवेश करनेके अयोग्य माने गये हैं
१. जिसकी आयु आठ वर्षसे कम है, २. वृद्ध, ३. नपुंसक, ४. रोगी, ५. अंगहीन, ६. कायर या भीरु, ७. जड़बुद्धि, ८. चोर, ९. राजविरोधी, १०. पागल, ११. अन्ध, १२. दास, १३. धूर्त, १४. मूढ़, १५. कर्जदार, १६. भागा हुआ या भगाया हुआ, १७. गभिणी स्त्री तथा बालकवाली स्त्री। जहाँ तक हम जानते हैं दिगम्बर परम्परामें भी उक्त व्यक्ति मुनिदीक्षाके अयोग्य माने गये हैं।
श्वे. परम्परामें चारों वर्गों के व्यक्ति श्रमण हो सकते हैं किन्तु दि. परम्परामें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको ही उसके योग्य माना गया है।
संघके व्यवस्थापक
मूलाचार ( ४।१५५ ) में कहा है कि जिस गुरुकुलमें आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर न हों उसमें नहीं रहना चाहिए। आचार्यके सम्बन्धमें कहा है कि वह शिष्यों के अनुशासनमें कुशल होता है, उपाध्याय धर्मका उपदेशक होता है। प्रवर्तक संघका प्रवर्तक, उसकी चर्या आदिका व्यवस्थापक होता है। स्थविर मर्यादाका रक्षक होता है और गणधर गणका धारक होता है। श्वे. साहित्यमें इनके सम्बन्धमें विस्तारसे कथन मिलता है।
गण, गच्छ और कुल
उक्त संघ-व्यवस्थापकों के अन्तर्गत श्रमण विभिन्न समूहों में रहते हैं। तीन श्रमणोंका समूह गण कहलाता था और उसका प्रधान गणधर होता था। सात श्रमणोंका समूह गच्छ होता था। मूलाचारकी टीकासे लगता है कि टीकाकारके समयमें इनका यथार्थ स्वरूप लुप्त हो गया था क्योंकि ४।१७४ को टीकामें वह गच्छका अर्थ ऋषिसमुदाय, अथवा चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघ अथवा सात पुरुष या तीन पुरुषोंका समूह करते हैं । तथा 'कुल' का अर्थ गुरुसन्तान (४।१६६ ) किया है इसके सम्बन्धमें भी विशेष नहीं लिखा । आगे (५।१९३)
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