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________________ ११२ धर्मामृत ( अनगार) जीवादिपदार्थान् प्रत्येकं युक्त्या समर्थयते सर्वेषां युगपद गतिस्थितिपरीणामावगाहान्यथायोगाद् धर्मतदन्यकालगगनान्यात्मा त्वहं प्रत्ययात् । सिध्येत् स्वस्य परस्य वाक्प्रमुखतो मूर्तत्वतः पुद्गल स्ते द्रव्याणि षडेव पर्ययगुणात्मानः कथंचिद् ध्र वाः ॥२४॥ सर्वेषां-गतिस्थितिपक्षे जीवपुद्गलानां तेषामेव सक्रियत्वात् गतिमतामेव च स्थितिसंभवात् । परिणामावगाहपक्षे पुनः षण्णामपि अपरिणामिनः खपुष्पकल्पत्वात आधारमन्तरेण च आधेयस्थित्ययोगात् । नवरं कालः परेषामिव स्वस्यापि परिणामस्य कारणं प्रदीप इव प्रकाशस्य । आकाशं च परेषामिव स्वस्याप्यवकाशहेतुः 'आकाशं च स्वप्रतिष्ठमित्यभिधानात् । अन्यथायोगात् धर्मादीनन्तरेण जीवादीनां युगपद्भाविगत्याद्यनुपपतेः । तदन्यः-ततः श्रुतत्वाद् धर्मादन्योऽधर्मः । अहंप्रत्ययात्-अहं सुखी अहं दुखीत्यादिज्ञानात् प्रतिप्राणि स्वयं संवेद्यमानात् । सिद्धयेत्–निर्णयं गच्छेत् । वाक्प्रमुखतः वचनचेष्टादिविशेषकार्यात् । मूर्तत्वात्-रूपादिमत्त्वात् । यस्य हि रूपरसगन्धस्पर्शाः सत्तया अभिव्यक्त्या वा प्रतीयन्ते स सर्वोऽपि पुद्गलः । तेन पृथिव्यप्तेजोवायूनां पर्यायभेदेनान्योन्यं भेदो रूपाद्यात्मकपुद्गलद्रव्यात्मकतया चाभेदः । ते द्रव्याणि गुणपर्यायवत्त्वात् । तल्लक्षणं यथा 'गुण इदि दव्वविहाणं दव्वविकारो य पज्जओ गणिओ। तेहि अणणं दव्वं अजदपसिद्ध हवदि णिच्चं ॥ सर्वार्थसि. ५१३८ में उद्धत ] १२ करनेवाला दुर्नय है । जैसे अस्तित्वका विपक्षी नास्तित्व है। जो वस्तुको केवल सत् ही मानता है वह दुर्नय है, मिथ्या है क्योंकि वस्तु केवल सत् ही नहीं है । वह स्वरूपसे सत् है और पररूपसे असत् है। जैसे घट घटरूपसे सत् है और पटरूपसे असत् है। यदि ऐसा न माना जायेगा तो घट-पट में कोई भेद न रहनेसे दोनों एक हो जायेंगे। इस तरहसे वस्तुको जाननेसे ही यथार्थ प्रतीति होती है। और यथार्थ प्रतीति होनेसे ही आत्मापर पड़ा अज्ञानका पर्दा हटता है ॥२२॥ अब जीव आदि पदार्थोंमें से प्रत्येकको युक्तिसे सिद्ध करते हैं यथायोग्य जीवादि पदार्थों का एक साथ गति, स्थिति, परिणाम और अवगाहन अन्यथा नहीं हो सकता, इससे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल और आकाशद्रव्यकी सिद्धि होती है। 'मैं' इस प्रकारके ज्ञानसे अपनी आत्माकी सिद्धि होती है और बातचीत चेष्टा आदिसे दूसरोंकी आत्माकी सिद्धि होती है। मूर्तपनेसे पुद्गल द्रव्यकी सिद्धि होती है। इस प्रकार ये छह ही द्रव्य हैं जो गुणपर्यायात्मक हैं तथा कथंचित् नित्य हैं ॥२४॥ विशेषार्थ-जैनदर्शनमें मूल द्रव्य छह ही हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्मद्रव्य, आकाश और काल । इन्हींके समवायको लोक कहते हैं। सभी द्रव्य अनादि हैं तथा अनन्त हैं । उनका कभी नाश नहीं होता। न वे कम-ज्यादा होते हैं। इन छह द्रव्योंमें गतिशील द्रव्य दो ही हैं जीव और पुद्गल । तथा जो चलते हैं वे ही ठहरते भी हैं। इस प्रकार गतिपूर्वक स्थिति भी इन्हीं दो द्रव्योंमें होती है। किन्तु परिवर्तन और अवगाह तो सभी द्रव्योंमें होता है। परिवर्तन तो वस्तुका स्वभाव है और रहने के लिए सभीको स्थान चाहिए । इन छह द्रव्योंमें-से इन्द्रियोंसे तो केवल पुद्गल द्रव्य ही अनुभवमें आता है क्योंकि अकेला वही एक द्रव्य मूर्तिक है । मूर्तिक उसे कहते हैं जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पशे गुण पाये जाते हैं । चक्षु रूपको देखती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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