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द्वितीय अध्याय
भवति चात्रार्या -
'ज्ञातुरनिराकृते प्रतिपक्षो वस्त्वंशस्यास्त्यभिप्रायः । यः स नयोऽत्र नयाभो निराकृतप्रत्यनीकस्तु ॥' [ उक्तं च तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे - [ १।३३।२ ] 'सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ॥ [ आप्तमी. १७६ ]
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आचार्य समन्तभद्रने अपने आप्त मीमांसा नामक प्रकरणमें स्याद्वादके द्वारा प्रविभक्त अर्थ के विशेषोंके व्यंजकको नय कहा है । 'स्याद्वाद' से उन्होंने आगम लिया है और नयवादसे हेतुवाद या युक्तिवाद लिया है । उसीको दृष्टिमें रखकर पं. आशाधरजीने भी नयको 'तदविनाभूतान्यधर्मोत्थया' कहा है। इसका अर्थ उन्होंने टीकामें इस प्रकार किया है --विवक्षित धर्मसे अविनाभूत अर्थात् सहभाव या क्रमभाव रूपसे निश्चित अन्य धर्म यानी हेतु । क्योंकि कहा है-- जिसका साध्य के साथ सुनिश्चित अविनाभाव होता है उसे हेतु कहते हैं । उस हेतुसे जिसकी उत्पत्ति होती है ऐसा नय है । जैसे पर्वतमें आग सिद्ध करना चाहते हैं । उस आगका अविनाभावी रूपसे निश्चित धुआँ है क्योंकि धुआँ आगके बिना नहीं होता । अतः धूमसे आगको जानकर व्यवहारी पुरुष पर्वतमें होनेवाली आगके पास जाते हैं या उससे बच जाते हैं । इसी तरह जीवादि छह पदार्थों में से किसी एक पदार्थमें रहनेवाले सत्असत् आदि धर्मोंमें से किसी एक विवक्षित धर्मको जानकर ज्ञाता उसमें प्रवृत्ति या निवृत्ति करता है। इससे उसका अज्ञानान्धकार हटता है और वह वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जानता है ।
तथा श्रीमदकलङ्क देवैरप्युक्तम्
'उपयोगो श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितो ।
स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा ||' [ लघीयस्त्रय ६२ ]
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आक्षिप्तविपक्षया आक्षिप्तोऽपेक्षितोऽक्षिप्तो वाऽनिराकृतो विपक्ष: प्रत्यनीकनयो यया । द्रव्यार्थनयो हि पर्यायार्थनयं पर्यायार्थनयश्च द्रव्यार्थनयमपेक्ष्यमाण एव सम्यग् भवति । नान्यथा । एवं सदसदादिष्वपि चिन्त्यम् । तदित्यादि - तेन । विवक्षितेन धर्मेण अविनाभूतः सहभावेन क्रमभावेन वा नियतोऽन्यो धर्मो हेतुः 'साध्या विनाभावित्वेन निश्चितो हेतुरिति वचनात् । तत्र तस्माद्वा उत्था उत्थानं यस्याः सा तया । तद्यथापर्वते धर्मिणि सिसाधयिषितो धर्मो वह्निः, तदविनाभावित्वेन निश्चितो धर्मो धूमः, तज्जनिता प्रतिपत्तिनतिर्व्यवहर्तॄणामप्रतिपन्नर्वाह्न पर्वतस्थं प्रवृत्तिविषयं निवृत्तिविषयं वा कुर्यात् । धर्मं सदसदादीनामन्यतमम् । कस्यचित् ॥२३॥
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आचार्य विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थरलोकवार्तिकमें ( १।३३।२) हेतुवाद और नय में भेद बतलाया है। उनका कहना है कि हेतु स्याद्वाद के द्वारा प्रविभक्त समस्त अर्थके विशेषों को व्यक्त करने में असमर्थ है। हेतुसे होनेवाला ज्ञान ही व्यंजक है और वही नय है । क्योंकि पदार्थ के एकदेशका निर्णयात्मक ज्ञान नय है। पं. आशाधरजीका भी यही अभिप्राय है । अतः स्याद्वादके द्वारा प्रविभक्त अर्थ अनेकान्तात्मक है । अनेकान्तात्मक अर्थको कहनेका नाम ही स्याद्वाद है । उस अनेकान्तात्मक अर्थके विशेष हैं नित्यता, अनित्यता, सत्ता, असत्ता आदि । उसका कथन करनेवाला नय है । इस तरह अनेकान्तका ज्ञान प्रमाण है, उसके एक धर्मका ज्ञान नय है, और एक ही धर्मको स्वीकार करके अन्य धर्मोंका निराकरण
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