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द्वितीय अध्याय
अपि च
धर्माधर्मनभःकाला अर्थंपर्यायगोचराः ।
व्यञ्जनार्थस्य संबद्धो द्वावन्यो जीवपुद्गलो ॥ [ ज्ञाना. ६४० ]
र्मूर्तो व्यञ्जनपर्यायो वाग्गम्यो नश्वरः स्थिरः ।
सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थं संज्ञकः ॥ [ ज्ञाना. ६।४५ ]
षडेव पृथिव्यप्तेजोवायूनां पुद्गलपरिणामविशेषत्वेन द्रव्यान्तरत्वायोगात् । दिश आकाशप्रदेशपंक्तिरूपतया ततोऽनर्थान्तरत्वात् । द्रव्यमनसः पुद्गले भावमनसश्च आत्मनि पर्यायतयाऽन्तर्भावात् परपरिकल्पितस्य च मनोद्रव्यस्यासिद्धेः ।
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रसना रसका स्वाद लेती है, घ्राण इन्द्रिय सुगन्ध- दुर्गन्धका अनुभव करती है और स्पर्शन इन्द्रिय कोमल-कठोर, गर्म-सर्द आदिको जानती है। इस तरह इद्रियोंसे पुद्गल द्रव्यकी प्रतीति होती है । किन्तु पुद्गल द्रव्य तो अणुरूप है जो इन्द्रियों का विषय नहीं है । अणुओंके मेल से जो स्थूल स्कन्ध बनते हैं उन्हें ही इन्द्रियाँ जानती हैं। उन्हीं के आधार पर हम लोग अनुमानसे परमाणुको जानते हैं । कुछ अन्य दर्शनों में परमाणु विभिन्न प्रकारके माने गये हैं । उनके मतसे पृथ्वीके परमाणुओंमें रूप-रस- गन्ध-स्पर्श चारों गुण हैं । जलके परमाणुओंमें गन्धगुण नहीं है, अग्नि परमाणुओं में गन्ध और रस नहीं है । वायुके परमाणुओंमें केवल स्पर्श गुण है । इस तरह उनके यहाँ पृथ्वी, जल, आग और वायु चार अलग-अलग द्रव्य हैं । किन्तु जैन दर्शन में परमाणु की एक ही जाति मानी गयी है और उसमें चारों गुण रहते हैं । परिणमनके अनुसार किसी में कोई गुण अव्यक्त रहता है और कोई गुण व्यक्त । यही बात आचार्य कुन्दकुन्द कही है—
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जो आदेश मात्र मूर्त है वह परमाणु है । वह पृथ्वी, जल, आग, वायु चारोंका कारण है | परिणमनकी वजहसे उसके गुण व्यक्त-अव्यक्त होते हैं । वह शब्दरूप नहीं है । शेष कोई भी द्रव्य इन्द्रियोंका विषय नहीं है । क्योंकि अमूर्तिक होनेसे उनमें रूपादि गुण नहीं होते । उनमें से जीवद्रव्य स्वयं तो 'मैं' इस प्रत्ययसे जाना जाता है । अन्य किसी भी द्रव्यमें इस प्रकारका प्रत्यय नहीं होता। दूसरे चलते-फिरते, बातचीत करते प्राणियोंको देखकर अनुमानसे उनमें जीव माना जाता है । उसीके आधारपर लोग जीवित और मृतकी पहचान करते हैं । शेष चार द्रव्योंको उनके कार्योंके आधारपर जाना जाता है। स्वयं चलते हुए समस्त जीव और पुद्गलोंको जो चलने में उदासीन निमित्त है वह धर्मद्रव्य है । जो चलते-चलते स्वयं ठहरनेवाले जीव और पुद्गलोंके ठहरनेमें उदासीन निमित्त है वह अधर्मद्रव्य है । ये दोनों द्रव्य न तो स्वयं चलते हैं और न दूसरोंको चलाते हैं किन्तु स्वयं चलते हुए और चलते-चलते स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गलोंके चलने और ठहरनेमें निमित्त मात्र होते हैं । यह सिद्धान्त है कि जिस द्रव्यमें जो शक्ति स्वयं नहीं है दूसरे द्रव्यके योगसे उसमें वह शक्ति पैदा नहीं हो सकती । अतः धर्मद्रव्यके और अधर्मद्रव्यके योगसे जीव पुद्गलोंमें चलने और ठहरने
१. ' व्यञ्जनेन तु संबद्धी' - आलापप । व्यञ्जनार्थेन स - अनगार. भ. कु. टी. ।
२. स्थूलो व्य--आलाप; अनगार घ. भ. टी. 1
३. आदेशमेत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु ।
सो ओ परमाणु परिणामगुणो सयमसहो ॥ - पञ्चा. गा. ७८
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