SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ ९ १२ १५ धर्मामृत (अनगार ) ब्रह्मेत्यादि - ब्रह्म आनन्दैकरूपं तत्त्वं वेत्ति अथ च तत्परो भवरसभजनप्रधानो वेदान्ती कथमाप्तः परीक्षकैर्लक्ष्यते । तथा च केनचित्तं प्रत्फलच्चं ( ? ) १०८ 'संध्यावन्दनवेलायां मुक्तोऽहमिति मन्यसे । खण्डलडुकवेलायां दण्डमादाय धावसि ॥' [ ] यश्चेत्यादि - 'श्वेतमजमालभेत स्वर्गकामः' इत्याद्यपौरुषेयवाक्य ग्रहावेशात् विषयतृष्णातरलितमनसः पशुहिंसानन्दसान्द्रस्य याज्ञिकस्य कः सुधीराप्ततां श्रद्धीत । तथा च मुरारिसूक्तं विश्वामित्राश्रमवर्णनप्रस्तावे - 'तत्तादृक् तृणपूलकोपनयनक्लेशाच्चिरद्वेषिभिमेंध्या वत्सतरी विहस्य वटुभि: सोल्लुण्ठमालभ्यते । अप्येष प्रतनूभवत्यतिथिभिः सोच्छ्वासनासापुटैरापीतो मधुपर्कपाकसुरभिः प्राग्वंशजन्मानिलः ॥' [ अनर्घराघव, अंक २, श्लो. १४ ] स्यति - हिनस्ति । कानीनाद्याः - कन्याया अपत्यं कानीनो व्यासमुनिः । स किल भ्रातुर्जायाव्यवायपरवान् प्रसिद्धः । तथा च पठन्ति - 'कानीनस्य मुनेः स्वबान्धववधूवैधव्यविध्वंसिनो नप्तारः किल गोलकस्य तनयाः कुण्डाः स्वयं पाण्डवाः । ते पञ्चापि समानजानय इति ख्यातास्तदुत्कीर्तनात् पुण्यं स्वस्त्ययनं भवेद्दिनदिने धर्मंस्य सूक्ष्मा गतिः ॥ [ 1 'जो सांख्यके पचीस तत्त्वोंको जानता है वह किसी भी आश्रम में आसक्त हो, चोटी रखता हो, या सिर मुँड़ाता हो, या जटाजूट रखता हो, अवश्य ही मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है ।' वेदान्ती प्रति किसीने कहा है 'हे वेदान्ती ! सन्ध्यावन्दनके समय तो तू अपनेको वन्दन नहीं करता)। किन्तु खाँडके लड्डूके समय दण्ड जाते हों तो सबसे पहले पहुँचता है) ।' श्रुति में कहा है - 'श्वेतमजमालभेत स्वर्गकामः । स्वर्गके इच्छुकको सफेद बकरे की बलि करनी चाहिए । यह अपौरुषेय वेदवाक्य है । इस प्रकारके आग्रहके वश होकर याज्ञिक पशुहिंसा में आनन्द मानता है। उसे कौन बुद्धिमान् आप्त मान सकता है । मुरारि मिश्रने विश्वामित्र के आश्रमका वर्णन करते हुए कहा है 'मुनि बालकों को गायोंके लिए घासके गट्ठर लानेमें जो कष्ट होता उसके कारण वे गायोंसे चिरकालसे द्वेष रखते । अतः अतिथि के स्वागतके लिए दो वर्ष की पवित्र गायको हँसकर बड़े उल्लास के साथ वे मारते। उससे मधुपर्क बनता। हवनके स्थानसे पूरबकी ओर बने घरसे निकली हुई वायु को, जो मधुपर्कके पाकसे सुगन्धित होती, अतिथिगण दीर्घ उच्छवास के साथ अपनी नाकसे पीते थे - सूँघते थे ।' Jain Education International मुक्त मानता है ( अतः सन्ध्यालेकर दौड़ता है ( कहीं लड्डू बाँटे व्यास मुनिने अपने भाईकी पत्नी के साथ सम्भोग किया यह प्रसिद्ध है । कहा है'व्यासजीका जन्म कन्यासे हुआ था इसलिए उन्हें कानीन कहते हैं । उन्होंने अपने भाईकी बहू के वैधव्यका विध्वंस किया था अर्थात् उसके साथ सम्भोग करके सन्तान उत्पन्न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy