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प्रथम अध्याय.
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विशेषार्थ-आचार्य अमृतचन्द्रजीने निश्चयनयको आत्माश्रित तथा शुद्ध द्रव्यका निरूपक कहा है और व्यवहारनयको पराश्रित तथा अशुद्ध द्रव्यका निरूपक कहा है । परके संयोगसे द्रव्यमें अशुद्धता आती है उसको लेकर जो वस्तुका कथन करता है वह व्यवहारनय है । संसारी जीवका स्वरूप व्यवहारनयका विषय है । जैसे, संसारी जीव चार गतिवाला है, पाँच इन्द्रियोंवाला है, मन-वचन-कायवाला है आदि। ये सब उसकी अशुद्ध दशाका ही कथन है जो पराश्रित है । जीव शुद्ध-बुद्ध-परमात्मस्वरूप है यह शुद्ध द्रव्यका निरूपक निश्चयनय है । शुद्ध दशा आत्माश्रित होती है किन्तु परद्रव्यके सम्पर्कसे ही अशुद्धता नहीं आती, अखण्ड एक वस्तुमें कथन द्वारा भेद करनेसे भी अशुद्धता आती है। अतः आत्मामें दर्शनज्ञान-चारित्र हैं ऐसा कथन भी व्यवहारनयका विषय है क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक एकधर्मी रूप है। किन्तु व्यवहारी पुरुष धर्मोंको तो समझते हैं एकधर्मीको नहीं समझते । अतः उन्हें समझानेके लिए अभेद रूप वस्तुमें भेद उत्पन्न करके कहा जाता है कि आत्मामें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है । अभेदमें भेद करनेसे यह व्यवहार है परमार्थसे तो अनन्त धर्मों को पिये हुए एक अभेद रूप द्रव्य है। अतः जो अभेद रूपसे वस्तुका निश्चय करता है वह निश्चयनय है और जो भेद रूपसे वस्तुका व्यवहार करता है वह व्यवहारनय है। इसीको दृष्टिमें रखकर ऐसा भी कहा गया है कि निश्चयनय कर्ता, कर्म आदिको अभिन्न ग्रहण करता है अर्थात् निश्चय कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरणको भिन्न नहीं मानता
और व्यवहार इन्हें भिन्न मानता है। जो स्वतन्त्रतापूर्वक अपने परिणामको करता है वह कर्ता है । कर्ताका जो परिणाम है वह उसका कर्म है। उस परिणामका जो साधकतम है वह करणं है। कर्म जिसके लिए किया जाता है उसे सम्प्रदान कहते हैं। जिसमें से कर्म किया जाता है उस ध्रुव वस्तुको अपादान कहते हैं। कर्म के आधारको अधिकरण कहते हैं। ये छह कारक निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारके हैं। जहाँ परके निमित्तसे कार्यकी सिद्धि मानी जाती है वहाँ व्यवहार कारक हैं और जहाँ अपने ही उपादानसे कार्यकी सिद्धि कहीं जाती है वहाँ निश्चय कारक हैं। जैसे कुम्हार कर्ता है, घड़ा कर्म है, दण्ड आदि करण हैं, जल भरनेवालेके लिए घड़ा बनाया गया अतः जल भरनेवाला मनुष्य सम्प्रदान है । टोकरीमें-से मिट्टी लेकर घड़ा बनाया अतः टोकरी अपादान है और पृथ्वी अधिकरण है। यहाँ सब कारक एक दूसरे से जुदे-जुदे हैं। यह व्यवहारनयका विषय है किन्तु निश्चयनयसे एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य के साथ कारक सम्बन्ध नहीं होता। इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्रने प्रवचनसार गाथा १६ की टीकामें तथा पञ्चास्तिकाय गाथा ६२ की टीकामें किया है। प्रवचनसारमें आचार्य कुन्दकुन्द स्वामीने आत्माको स्वयम्भू कहा है। स्वयम्भूका अर्थ है 'स्वयमेव हुआ । इसका व्याख्यान करते हुए अमृतचन्द्रजीने लिखा है-शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञायक स्वभाव के कारण स्वतन्त्र होनेसे यह आत्मा स्वयं कर्ता है। शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञान रूपसे परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं ही प्राप्य होनेसे कर्म है। शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञान रूपसे परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं ही साधकतम होनेसे करण है । शुद्ध अनन्तशक्ति युक्त ज्ञान रूपसे परिणमित होनेके स्वभाव के कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे सम्प्रदान है। शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञान रूपसे परिणमित होनेके समय पूर्व में वर्तमान मतिज्ञान आदि विकल ज्ञान स्वभावका नाश होनेपर भी सहज ज्ञान स्वभावमें ध्रुव होनेसे अपादान है । तथा शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञान रूपसे परिणमित होनेके
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