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धर्मामृत ( अनगार) सर्वेऽपि शुद्धबुद्धकस्वभावाश्चेतना इति ।
शुद्धोऽशुद्धश्च रागाद्या एवात्मेत्यस्ति निश्चयः ॥१०३॥ स्वभावका स्वयं ही आधार होनेसे अधिकरण है। इस प्रकार आत्मा स्वयं ही षट्कारक रूप होनेसे स्वयम्भू है। ___पंचास्तिकाय गाथा ६२ में कहा है कि निश्चयनयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म और जीव स्वयं ही अपने-अपने स्वरूपके कर्ता हैं । इसका व्याख्यान करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने कहा है-कर्मरूपसे प्रवर्तमान पुद्गल स्कन्ध ही कर्म रूप होता है अतः वही कर्ता है। स्वयं द्रव्य कर्म रूप परिणमित होनेकी शक्तिवाला होनेसे पुद्गल ही करण है। द्रव्य कर्मसे अभिन्न होनेसे पुद्गल स्वयं ही कर्म है। अपनेमें-से पूर्व परिणामका व्यय करके द्रव्य रूप कर्म-परिणामका कर्ता होनेसे तथा पुद्गल द्रव्य रूप ध्रुव होनेसे पुद्गल स्वयं ही अपादान है। अपने को द्रव्य कर्म रूप परिणाम देनेसे पुद्गल स्वयं ही सम्प्रदान है। द्रव्य कर्म रूप परिणामका स्वयं ही आधार होनेसे पुद्गल स्वयं ही अधिकरण है। इसी तरह जीव स्वतन्त्र रूपसे जीव-भावका कर्ता होनेसे स्वयं ही कर्ता है। स्वयं जीवभाव रूपसे परिणमित होनेकी शक्तिवाला होनेसे जीव ही करण है। जीवभावसे स्वयं अभिन्न होनेसे स्वयं ही कर्म है। अपनेमें-से पूर्व जीवभावका व्यय करके नवीन जीवभावको करनेसे तथा जीव द्रव्य रूपसे ध्रुव रहनेसे स्वयं ही अपादान है। अपनेको ही जीवभावका दाता होनेसे जीव स्वयं ही सम्प्रदान है। स्वयं ही अपना आधार होनेसे जीव स्वयं ही अधिकरण है। इस तरह जीव और पुद्गल स्वयं ही छह कारक रूपसे प्रवृत्त होनेसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं करते। यह निश्चयनयकी दृष्टि है ॥१०२।।
शुद्ध और अशुद्धके भेदसे निश्चयके दो भेद हैं। इन दोनों का स्वरूप कहते हैं
सभी जीव, संसारी भी और मुक्त भी एक शुद्ध-बुद्ध स्वभाववाले हैं यह शुद्ध निश्चयनयका स्वरूप है। तथा राग-द्वष आदि परिणाम ही आत्मा है यह अशुद्ध निश्चयनय है ॥१०॥
विशेषार्थ-अध्यात्मके प्रतिष्ठाता आचार्य कुन्दकुन्दने निश्चयनय के लिए शुद्ध शब्दका प्रयोग तो किया है किन्तु निश्चयनयके शुद्ध-अशुद्ध भेद नहीं किये। उनकी दृष्टिमें शद्धनय निश्चयनय है और व्यवहारनय अशुद्ध नय है। कुन्दकुन्दके आद्य व्याख्याकार आचार्य अमृतचन्द्रने भी उन्हींका अनुसरण किया है। उन्होंने भी निश्चय और व्यवहारके किन्हीं अवान्तर भेदों का निर्देश नहीं किया । ये अवान्तर भेद आलाप पद्धतिमें, नयचक्रमें, ब्रह्मदेवजी तथा जयसेनाचार्यकी टीकाओंमें मिलते हैं।
समयसार गाथा ५६ में वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त भावोंको व्यवहारनयसे जीवका कहा है। तथा गाथा ५७ में उनके साथ जीवका दूध-पानीकी तरह सम्बन्ध कहा है। इसकी टीकामें आचार्य जयसेनने यह शंका उठायी है कि वर्ण आदि तो बहिरंग हैं उनके साथ व्यवहारनयसे जीवका दूध-पानीकी तरह सम्बन्ध हो सकता है। किन्तु रागादि तो अभ्यन्तर हैं उनके साथ जीवका सम्बन्ध अशुद्ध निश्चयनयसे कहना चाहिए ? उत्तर में कहा है कि ऐसा नहीं है, द्रव्य कर्मबन्धको असद्भूत व्यवहारनयसे जीव कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्य बतलानेके लिए रागादिको अशुद्ध निश्चयनयसे जीव कहा जाता है। वास्तवमें तो शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहारनय ही है। इस तरह जयसेन
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