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धर्मामृत (अनगार ) व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति । बीजादिना विना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति ॥१००॥ भूतार्थं रज्जुवत्स्वैरं विहतु वंशवन्मुहुः । धीरैरभूतार्थोपस्तदुद्विहृतीश्वरैः ॥ १०१ ॥
कर्त्राद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददृक् ॥१०२॥
जो व्यवहारसे विमुख होकर निश्चयको करना चाहता है वह मूढ बीज, खेत, पानी आदिके बिना ही वृक्ष आदि फलोंको उत्पन्न करना चाहता है ||१००||
विशेषार्थं — यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तथापि वह सर्वथा निषिद्ध नहीं है । अमृतचन्द्राचार्यने कहा है
'केषांचित् कदाचित् सोऽपि प्रयोजनवान्'
किन्हीं को किसी कालमें व्यवहारनय भी प्रयोजनीय है, अर्थात् जबतक यथार्थ ज्ञान श्रद्धानकी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हुई तबतक जिनवचनोंका सुनना, धारण - करना, जिनदेवकी भक्ति, जिनबिम्बका दर्शन आदि व्यवहार मार्ग में लगना प्रयोजनीय है । इसी तरह अणुव्रत महात्रतका पालन, समिति, गुप्ति, पंचपरमेष्ठीका ध्यान, तथा उसका पालन करनेवालोंकी संगति, शास्त्राभ्यास आदि व्यवहार मार्ग में स्वयं प्रवृत्ति करना, दूसरोंको प्रवृत्त करना प्रयोजनीय है । व्यवहार नयको सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ देने से तो शुभोपयोग भी छूट जायेगा और तब शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति न होनेसे अशुभोपयोग में प्रवृत्ति करके संसारमें ही भ्रमण करना पड़ेगा। इसलिए जबतक शुद्धनयके विषयभूत शुद्धात्माकी प्राप्ति न हो तबतक व्यवहारनय भी प्रयोजनीय है । कहा भी है
“यद्यपि प्रथम पदवीमें पैर रखनेवालोंके लिए व्यवहारनय हस्तावलम्ब रूप है । फिर भी जो पुरुष परद्रव्यके भावोंसे रहित चैतन्य चमत्कार मात्र परम अर्थको अन्तरंग में देखते हैं उनके लिए व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनीय नहीं है ।। " "
आगे व्यवहारके अवलम्बन और त्यागकी अवधि कहते हैं
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जैसे नट रस्सीपर स्वच्छन्दतापूर्वक विहार करने के लिए बारम्बार बाँसका सहारा लेते हैं और उसमें दक्ष हो जानेपर बाँसका सहारा लेना छोड़ देते हैं वैसे ही धीर मुमुक्षुको निश्चयनय में निरालम्बनपूर्वक विहार करने के लिए बार-बार व्यवहारनयका आलम्बन लेना चाहिए तथा उसमें समर्थ हो जानेपर व्यवहारका आलम्बन छोड़ देना चाहिए ||१०१ || आगे व्यवहार और निश्चयका लक्षण कहते हैं-
जो की प्राप्ति के लिए कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंको जीव आदि वस्तुसे भिन्न बतलाता है वह व्यवहारनय है । और कर्ता आदिको वस्तुसे अभिन्न देखनेवाला निश्चयनय है ॥१०२॥
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१. व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः ।
तदपि परममर्थं चिचचमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् । -सम. कल., श्लो. ५
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