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________________ प्रथम अध्याय योग:-मनोवाक्कायव्यापारैः । तैः प्रत्येकं कृतादित्रयेण अवद्योज्झनम् इति योज्यम् । तस्येत्यादि । 'रत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तप इति ह्यागमः । ॥९३॥ अथ श्रद्धानादित्रयसमुदायेनैव भावितं हेयमुपादेयं च तत्त्वं रसायनौषधमिव समीहितसिद्धये स्यान्नान्यथेति प्रथयति श्रद्धानबोधानुष्ठानस्तत्त्वमिष्टार्थसिद्धिकृत् । समस्तैरेव न व्यस्तै रसायनमिवौषधम् ॥१४॥ nand और चारित्र देवदत्त रूप ही है। उससे भिन्न वस्तु नहीं है। उसी प्रकार आत्माका ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र आत्मरूप ही है भिन्न वस्तु नहीं है। अतः व्यवहारसे ऐसा कहा जाता है कि साधुको नित्य दर्शन ज्ञान और चारित्रकी आराधना करना चाहिए। किन्तु परमार्थसे तीनों आत्मरूप ही हैं। इसी तरह निश्चयसे आत्माके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं और व्यवहारसे जीव आदि नौ पदार्थों के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । ये नौ पदार्थ व्यवहारकी प्रवृत्तिके लिए व्यवहार नयसे कहे गये हैं क्योंकि जीव और अजीवके मेलसे ये नौ तत्त्व बनते हैं। एकके ही नहीं बन सकते। बाह्य दृष्टिसे देखने पर जीव और पुद्गुलकी अनादि बन्ध पर्यायको लेकर उनमें एकपने का अनुभव करने पर तो ये नौ तत्त्व सत्यार्थ हैं। किन्तु एक जीव द्रव्यके ही स्वभावको लेकर देखने पर असत्यार्थ हैं क्योंकि जीवके एकाकार स्वरूपमें ये नहीं हैं। अन्तर्दृष्टिसे देखने पर ज्ञायक भाव जीव है, जीवके विकारका कारण अजीव है, पुण्य-पाप, आस्रव बन्ध, संवर, निर्जरा. मोक्ष ये अकेले जीवके विकार नहीं हैं किन्तु अजीवके विकारसे जीवके विकारके कारण हैं। जीवके स्वभावको अलग करके स्वपरनिमित्तक एक द्रव्यपर्याय रूपसे अनुभव करके इन तत्त्वोंका श्रद्धान करना व्यवहारनयसे या व्यवहार सम्यग्दर्शन है । इसी तरह इनका जानना सम्यक्ज्ञान है। मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनसे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँच पापोंका त्याग करना व्यवहार सम्यक्चारित्र है । अर्थात् मनसे करने-कराने और अनुमोदना करनेका त्याग, इसी तरह वचनसे और कायसे भी हिंसादि पापोंके करने-कराने और अनुमोदनाका त्याग होना चाहिए । यद्यपि ये बाह्यत्याग प्रतीत होता है इसलिए इसे व्यवहार नाम दिया है तथापि इसका लक्ष्य है आत्माको राग-द्वेषसे निवृत्त करना। राग द्वेषवश ही पापकर्मों में प्रवृत्ति होती है। उस प्रवृत्तिको रोकनेसे रागद्वेषकी निवृत्तिमें सहायता मिलती है। यद्यपि तप चारित्रमें ही अन्तर्भूत है तथापि आराधनामें तपको अलग गिनाया है। इसलिए तपका लक्षण भी कहा है। तप रत्नत्रयको प्रकट करनेके लिए किया जाता है। आगममें कहा है कि रत्नत्रयको प्रकट करनेके लिए विषयोंकी इच्छाको रोकना तप है ॥१३॥ आगे कहते हैं कि जैसे श्रद्धा ज्ञान और आचरणपूर्वक ही रसायन औषध इष्टफलदायक होती है इसी तरह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके समुदायपूर्वक किया गया हेय और उपादेय तत्त्वका चिन्तन ही इष्टसिद्धिकारक होता है अन्यथा नहीं जैसे रसायन औषधके श्रद्धानमात्र या ज्ञानमात्र या आचरणमात्रसे इष्टार्थ-दीर्घ आयु आदिकी सिद्धि नहीं होती किन्तु रसायनके ज्ञान और श्रद्धा पूर्वक आचरण करनेसे ही होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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