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________________ धर्मामृत ( अनगार) इष्टार्थ:-अभ्युदयमोक्षौ दीर्घायुरादिश्च । तथा चोक्तम् दीर्घमायुः स्मृतिर्मेधा आरोग्यं तरुणं वयः । प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलोदयम् ॥ वासिद्धि वृषतां कान्तिमवाप्नोति रसायनात् । लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम् ।। [ न व्यस्तैः । उक्तं च ज्ञानादवगमोऽर्थानां न तत्कायंसमागमः । तर्षापकर्षपोषि स्याद् दृष्टमेवान्यथा पयः ।। [ सोम. उपा. २० ] 'ज्ञानहीने श्रद्धानगन्धसिन्धुरमदुष्टमुधदवगममहामात्रम् । घोरो व्रतबलपरिवृतमारूढोऽरीन् जयेत् प्रणिधिहेत्या ॥१५॥ है। वैसे ही श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान इन तीनोंके समुदायके साथ ही तत्त्व अभ्युदय और मोक्षदायक होता है मात्र दर्शन या ज्ञान या चारित्र अथवा इनमेंसे किन्हीं दो के भी होने पर इष्ट अर्थकी सिद्धि नहीं हो सकती ॥१४॥ आगे कहते हैं कि व्यवहारमार्ग पर चलनेवालेको समाधि रूप निश्चय मार्गके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंको परास्त करना चाहिए जैसे धीर-वीर योद्धा, कुशल पीलवानके द्वारा नियन्त्रित गन्धहस्तीपर चढ़कर, सेनाके साथ, शस्त्रसे शत्रुओंको जीतता है वैसे ही धीर मुमुक्षु भी उच्च ज्ञानरूपी पीलवानके साथ निर्दोष सम्यग्दर्शनरूपी गन्धहस्ती पर आरूढ़ होकर व्रतरूपी सेनासे घिरा हुआ समाधिरूपी शस्त्रके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंको जीतता है ॥९५॥ विशेषार्थ-यहाँ निर्दोष सम्यग्दर्शनको गन्धहस्तीकी उपमा दी है । गन्धहस्ती अपने पक्षको बल देता है और परपक्षको नष्ट करता है। निर्दोष सम्यग्दर्शन भी आत्माकी शक्तिको बढ़ाता है और कोकी शक्तिको क्षीण करता है। ज्ञानको पीलवानकी उपमा दी है। कुशल पीलवानके विना गन्धहस्तीका नियन्त्रण सम्भव नहीं है। इसी तरह श्रद्धानके साथ आत्मज्ञानका होना आवश्यक है । तथा व्रतोंको सेनाकी उपमा दी है। सेनाके विना अकेला वीर शत्रुको परास्त नहीं कर सकता। इसी तरह विना चारित्रके अकेले सम्यग्दर्शनसे भी कर्मोको नहीं जीता जा सकता। किन्तु इन सबके सिवा भी अत्यन्त आवश्यक शस्त्र है समाधिआत्मध्यान, आत्माकी निर्विकल्प रूप अवस्था हुए विना व्रतादिसे भी कोंसे मुक्ति नहीं मिलती। यह ध्यान रखना चाहिए कि चारित्रमें जितना भी प्रवृत्तिमूलक अंश है वह सब बन्धका कारण है केवल निवृत्ति रूप अंश ही बन्धका रोधक और घातक है । अतः आत्माभिमुख होना ही श्रेयस्कर है। अपनी ओर प्रवृत्ति और बाह्य ओर निवृत्ति ही चारित्र है किन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बिना यह सम्भव नहीं ॥९५।। १. द्वादशं पत्रं नास्ति मूलप्रती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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