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धर्मामृत ( अनगार) अथ निश्चयरत्नत्रयं केन साध्यत इत्याह
उद्द्योतोयवनिर्वाहसिद्धिनिस्तरणभंजन् ।
भव्यो मुक्तिपथं भाक्तं साधयत्येव वास्तवम् ॥१२॥ उद्यवः-उत्कृष्टं मिश्रणम् । भाक्त-व्यावहारिकम् ॥१२॥ अथ व्यवहाररत्नत्रयं लक्षयति
श्रद्धानं पुरुषादितत्त्वविषयं सद्दर्शनं बोधनं __ सज्ज्ञानं कृतकारितानुमतिभिर्योगैरवद्योज्झनम् । तत्पूर्व व्यवहारतः सुचरितं तान्येव रत्नत्रयं
तस्याविर्भवनार्थमेव च भवेदिच्छानिरोधस्तपः ॥१३॥ निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति किससे होती है यह कहते हैं
उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरणके द्वारा भेदरूप व्यवहार मोक्षमार्गका आराधना करनेवाला भव्य पुरुष पारमार्थिक मोक्षमार्गको नियमसे प्राप्त करता है ।।१२।।
आगे व्यवहार रत्नत्रयको कहते हैं
व्यवहार नयसे जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नौ पदार्थोंका जैसा इनका परमार्थस्वरूप है. वैसा ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, जानना सम्यग्ज्ञान है तथा मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे हिंसा आदि पाँच पापोंका सम्यग्ज्ञानपूर्वक छोड़ना सम्यक्चारित्र है। इन्हीं तीनोंको रत्नत्रय कहते हैं। उसी रत्नत्रयको प्रकट करनेके लिए इन्द्रिय और मनके द्वारा होने वाली विषयोंकी चाहको रोकना तप है ।।९३॥
विशेषार्थ-जिसके द्वारा विधिपूर्वक विभाग किया जाये उसे व्यवहार नय या अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहते हैं । यह नय अभेद रूप वस्तुको भेदरूप ग्रहण करता है। इसका उपयोग अज्ञानी जनोंको समझानेके लिए किया जाता है। क्योंकि वस्तुका यथार्थ स्वरूप वचनके द्वारा नहीं कहा जा सकता। व्यवहारनयका आश्रय लेकर ही उसे वचनके द्वारा कहा जा सकता है। और वैसा करने पर गुणों और पर्यायोंके विस्तारसे उसकी सैकड़ों शाखाएँ फैलती जाती हैं। इस तरह व्यवहारनयके आश्रयसे ही प्राथमिक पुरुष मुख्य और उपचार कथनको जानकर शुद्ध स्वरूपको अपनाते हैं इस दृष्टि से व्यवहार भी पूज्य है'।
'जैसे लोग आत्मा कहनेसे नहीं समझते। किन्तु जब व्यवहार नयका आश्रय लेकर कहा जाता है कि दर्शन ज्ञान और चारित्रवाला आत्मा होता है तो समझ जाते हैं। किन्तु ये तीनों परमार्थसे एक आत्मा ही हैं, कोई अन्य वस्तु नहीं हैं । जैसे देवदत्तका ज्ञान श्रद्धान
१. तत्त्वं वागतिवति व्यवहृतिमासाद्य जायते वाच्यम् ।
गुणपर्यायादिविवृत्तेः प्रसरति तच्चापि शतशाखम् ॥ मुख्योपचारविवृति व्यवहारोपायतो यतः सन्तः । ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तत्त्वमिति व्यवहतिः पूज्या ॥-पद्म. पञ्च.११११०-११ ।
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