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विधिमार्ग प्रकाशक जिनेश्वरसूरि और उनकी विशिष्ट परम्परा
[ पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी ]
श्री जिनेश्वरसूरि आचार्य श्रीवर्द्धमानसूरि के शिष् थे । जिनेश्वरसूरि के प्रगुरु एवं श्रीवर्द्धमानसूरि के गरु श्रीउद्योतनसूरि थे, जो चन्द्रकुल के कोटिक गण की वज्री शाखा परिवार के थे ।
( इन जिनेश्वरसूरि के विषय में, जिनदत्तसूरि कृत गणधर सार्द्धशतक की सुमतिगणि कृत वृहद्वृत्ति में, जिनपालोपाध्याय लिखित खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली में, प्रभाचन्द्राचार्य रचित और किसी अज्ञात प्राचीन पूर्वाचार्य प्रबन्ध एवं अन्यान्य पट्टावलियाँ आदि अनेक ग्रन्थों-प्रबन्धों में कितना ही ऐतिहासिक वृत्तान्त ग्रथित किया हुआ उपलब्ध होता है ।)
जिनेश्वरसूरि के समय में
जैन यतिजनों की अवस्था
इनके समय में श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उन यतिजनों के समूह का प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् • जिन मन्दिरों में निवास करते थे ये यतिजन जैन मन्दिर, जो उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हीं में अहर्निश रहते, भोजनाद करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पठनादि में प्रवृत्त होते और सोते-बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिए वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे । इनके साथ उनके आचार-विचार भी बहुत्त से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के थे जो जैन शास्त्रों में वर्णित निर्ग्रन्थ जैनमुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे । वे एक तरह के मठपति थे । शास्त्रोक्त आचारों का
यथावत् पालन करने वाले प्रति मुनि उस समय बहुत कम संख्या में नजर आते थे ।
जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के विरुद्ध आन्दोलन
शास्त्रोक्त यतिधर्म के आचार और चैत्यवासी यतिजनों के उक्त व्यवहार में, परस्पर बड़ा असामंजस्य देखकर और श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रमण धर्म की इस प्रकार प्रचलित विप्लव दशा से उद्विग्न होकर जिनेश्वर सूरि ने प्रतिकार के निमित्त अपना एक सुविहित मार्ग प्रचारक नया गण स्थापित किया और चैत्यवासी यतियों के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया ।
यों तो प्रथम, इनके गुरु श्री वर्द्धमानसूरि स्वयं ही चैत्यवासी यतिजनों के एक प्रमुख सूरि थे। पर जैन शास्त्रों का विशेष अध्ययन करने पर मन में कुछ विरक्त भाव उदित हो जाने से और तत्कालीन जैन यति सम्प्रदाय की उक्त प्रकार की आचार विषयक परिस्थिति की शिथिलता का अनुभव कुछ अधिक उद्घोगजनक लगने से, उन्होंने उस अवस्था का त्याग कर विशिष्ट त्यागमय जीवन का अनुसरण करना स्वीकृत किया था । जिनेश्वरसूरि ने अपने गुरु के इस स्वीकृत मार्ग पर चलना विशेष रूप से निश्चित किया । इतना ही नहीं, उन्होंने उसे सारे सम्प्रदायव्यापी और देशव्यापी बनाने का भी संकल्प किया और उसके लिए आजीवन प्रबल पुरुषार्थ
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किया। इस प्रयत्न के उपयुक्त और आवश्यक ऐसे ज्ञानबल विधिपक्ष अथवा खरतरगच्छ का और चारित्रबल दोनों ही उनमें पर्याप्त प्रमाण में विद्यमान प्रादुर्भाव और गौरव थे, इसलिये उनको अपने ध्येय में बहुत कुछ सफलता इन्हीं जिनेश्वरसूरि के एक प्रशिष्य आचार्य श्रीजिनप्राप्त हुई और उसी अहिलपुर में, जहां पर चैत्यवासियों वल्लभसूरि और उनके पट्टधर श्रीजिनदत्तसूरि (वि० सं० का सबसे अधिक प्रभाव और विशिष्ट समूह था, जाकर ११६६-१२११) हुए जिन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य, प्रकृष्ट उन्होंने चैत्यवास के विरुद्ध अपना पक्ष और प्रतिष्ठान चारित्र और प्रचण्ड व्यक्तित्व के प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, स्थापित किया। चौलुक्य नृपति दुर्लभराज की सभा में, बागड़, सिन्ध, दिल्ली मण्डल और गुजरात के प्रदेश में चैत्यवासी पक्ष के समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महा- हजारों अपने नये भक्त श्रावक बनाये-हजारों ही अजैनों को विद्वान् और प्रबल सत्ताशील आचार्य के साथ शास्त्रार्थ उपदेश देकर नूतन जैन बनाये। स्थान-स्थान पर अपने पक्ष कर, उसमें विजय प्राप्त की। इस प्रसंग से जिनेश्वरसूरि के अनेकों नये जिनमन्दिर और जैन उपाश्रय तैयार करवाये। की वेवल अणहिलपुर में ही नहीं, अपितु सारे गुजरात में, अपने पक्ष का नाम इन्होंने विधिपक्ष' ऐसा उद्घोषित किया और उसके आस - पास के मारवाड़, मेवाड़, मालवा, और जितने भी नये जिनमन्दिर इनके उपदेश से, इनके भक्त वागड़, सिंध और दिल्ली तक के प्रदेशों में खूब ख्याति और श्रावकों ने बनवाये उनका नाम विधिचत्य, ऐसा रखा गया। प्रतिष्ठा बढ़ी। जगह-जगह सैकड़ों ही श्रावक उनके भक्त परन्तु पीछे से चाहे जिस कारण से हो- इनके अनुगामी और अनुयायो बन गए। इसके अतिरिक्त सैकड़ों ही अजैन समुदाय को खरतर पक्ष या खरतरगच्छ ऐसा नूतन नाम प्राप्त गृहस्य भी उनके भक्त बन कर नये श्रावक बने । अनेक हुआ और तदनन्तर यह समुदाय इसी नाम से अत्यधिक प्रभावशाली और प्रतिभाशील व्यक्तियों ने उनके पास यति प्रसिद्ध हुआ जो आज तक अविछिन्न रूप से विद्यमान है। दीक्षा लेकर उनके सुविहित शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त इस खरतरगच्छ में उसके बाद अनेक बड़े बड़े प्रभावकिया। उनकी शिष्य-संतति बहुत बढ़ी और वह अनेक शाली आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े शाखा-प्रशाखाओं में फैली । उसमें बड़े-बड़े विद्वान, प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिकक्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य उपाध्यायादि समर्थ ज्योतिर्विद्, वैद्यक विशारद आदि वर्मठ यतिजन हुए साधु पुरुष हुए । नवांग-वृतिकार अभय देवसूरि, संवेगरंग- जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा शालादि ग्रन्थों के प्रणेता जिनचन्द्रसूरि, सुरसुन्दरी चरित के बढ़ाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक और कर्ता धनेश्वर अपर नाम जिनभद्रसूरि, आदिनाथ चरितादि साम्प्रदायिक उत्कर्ष की प्रवृत्ति के सिवा, खरतरगच्छाके रचयिता वर्धमानसूरि, पानाथ चरित एवं महावीर चरित नुयायी विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशीयके कर्ता गुणचन्द्रगणी अपर नाम देवभद्रसूरि, संघपट्टकादि भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम अनेक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभसूरि इत्यादि अनेकानेक बड़े किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, बड़े धुरन्धर विद्वान और शास्त्रकार, जो उस समय उत्पन्न इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों हुए और जिनकी साहित्यिक उपासना से जैन वाङ्मय- का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी सैकड़ों हजारों भण्डार बहुत कुछ समृद्ध और सुप्रतिष्ठित बना-इन्हीं ग्रन्थकृतियाँ जैन-भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं । खरतर जिनेश्वरसूरि के शिष्य-प्रशिष्यों में से थे।
गच्छीय विद्वानों की की हुई यह साहित्योपासना न केवल
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धर्म की ही दृष्टि से महत्त्व वाली हैं, अपितु समुच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है ।
साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति मुनि वड़े उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या सम्प्रदाय को बाड़ से बद्ध नहीं है । वे जैन और जनेतर वाङ्मय को समान भाव से अध्ययन अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों का उन्होंने बड़े आदर से आकलन किया है और इन विषयों के अनेक अर्जुन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकायें आदि रच कर तत्तद् ग्रन्थों और विषयों के अध्ययन कार्य में बड़ा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है । खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहां पर बहुत ही संक्षेप में, केवल सूत्ररूप से, उल्लिखित कर रहे हैं । विशेषहम "युगप्रधा चाचार्य गुर्वावलि" नाम से विस्तृत पुरातन पट्टालो प्रकट कर चुके हैं उनमें इन जिनेश्वरसूरि से आरंभ कर, श्रीजिनवल्लभसूरि की परम्परा के खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजितपूरि के पट्टाभिषिक्त होने के समय तक का विक्रम संवत् १४०० के लगभग का बहुत विस्तृत और प्राय: विश्वस्त ऐतिहासिक वर्णन दिया हुआ है । उसके अध्ययन से पाठकों को खरतरगच्छ के तत्कालीन गौरव गाथा का अच्छा परिचय मिल सकेगा ।
इस तरह पीछे से बहुत प्रसिद्धिप्राप्त उक्त खरतरगच्छ के अतिरिक्त, जिनेश्वरसूरि की शिष्य परम्परा में से अन्य भी कई एक छोटे-बड़े गण-गच्छ प्रचलित हुए और उनमें भी कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध विद्वान, ग्रन्थकार, व्याख्यातिक, वादा, तपस्वी, चमत्कारी साधु-यति हुए जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से जैन समाज को समुन्नत करने में उत्तम योग दिया ।
जिनेश्वरसूरि के जीवन का अन्य यतिजनों पर प्रभाव
जिनेश्वरसूरि के प्रबल पाण्डित्य और उत्कृष्ट चरित्र का प्रभाव इस तरह न केवल उनके निजके शिष्य समूह में ही प्रसारित हुजा, अपितु तत्कालीन अन्यान्य गच्छ एवं यति समुदाय के भी बड़े-बड़े व्यक्तित्वशाली यतिजनों पर उसने गहरा असर डाला और उसके कारण उनमें से भी कई समर्थ व्यक्तियों ने, इनके अनुकरण में क्रियोद्वार, ज्ञानोपासना, आदि की विशिष्ट प्रवृत्ति का बड़े उत्साह के साथ उत्तम अनुसरण किया ।
( जिनेश्वरसूरि के जीवन सम्बन्धी साहित्य और उनकी रचनाओं का विशेष अध्ययन मुनि जिनविजय ने कथाकोष की विस्तृत प्रस्तावना में बहुत विस्तार से दिया है, यहां उसके आवश्यक अंश ही प्रस्तुत किये गये हैं ) जिनेश्वरसूरि से जैन समाज में
नूतन युग का आरंभ
इनके प्रादुर्भाव और कार्यकलाप के प्रभाव से जैन समाज में एक सर्वथा नवीन युग का आरम्भ होना शुरू हुआ । पुरातन प्रचलित भावनाओं में परिवर्तन होने लगा । त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकार के समूहों में नए संगठन होने शुरू हुए। त्यागी अर्थात् यति वर्ग जो पुरातन परम्परागत गण और कुल के रूप में विभक्त था, वह अब नये प्रकार के गच्छों के रूप में संगठित होने लगा । देवपूजा और गुरुउपासना की जो कितनी पुरानो पद्धतियां प्रचलित थीं, उनमें संशोधन और परिवर्तन के वातावरण का सर्वत्र उद्भव होने लगा | इनके पहले यतिवर्ग का जो एक बहुत बड़ा समूह चित्य निवासी होकर चेत्यों की संपत्ति और संरक्षा का अधिकारी बना हुआ था और प्रायः शिथिलक्रिय और स्वपूजानिरत हो रहा था, उसमें इनके आचारप्रवण और भ्रमणशील जीवन के प्रभाव से बड़े वेग से और बड़े परिमाण में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ । इनके आदर्शों
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को लक्ष्य में रखकर अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चैत्या- नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे। ऐसे चर्चाधिकार का और शिथिलाचार का त्याग कर संयम की स्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बड़े ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे विशद्धि के निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे और एक-दूसरे सम्प्रदाय की ओर से उनका खण्डन-मण्डन संयमी बनने लगे। संयम और तपश्चरण के साथ-साथ, भी किया जाने लगा। इस प्रकार इन यतिजनों में पुरातन भिन्न-भिन्न विषयों और शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानसंपादन प्रचलित प्रवाह की दृष्टि से, एक प्रकार का नवीन जीवनकार्य भी इन यतिजनों में खूब उत्साह के साथ व्यवस्थित प्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघ का नूतन संगठन रूप से होने लगा। सभी उपादेय विषयों के नये-नये ग्रन्थ बनना प्रारम्भ हुआ। निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रन्थों पर टीका-टिप्पण इस तरह तत्कालीन जैन इतिहास का सिंहावलोकन आदि रचे जाने लगे। अध्ययन-अध्यापन और ग्रन्थ-निर्माण करने से ज्ञात होता है कि विक्रम की ११ वीं शताब्दी के के कार्य में आवश्यक ऐसे पुरातन जैन-ग्रन्थों के अतिरिक्त प्रारंभ में जैन यतिवर्ग में एक प्रकार से नूतन युग की ब्राह्मण और बौद्ध सम्प्रदाय के भी व्याकरण, न्याय, उषा का आभास होने लगा, जिसका प्रकट प्रादुर्भाव अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयों। जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि के क्षितिज पर उदित के सभी महत्वपूर्ण ग्रन्थों की पोथियों के संग्रहवाले बड़े-बड़े होने पर दृष्टिगोचर हुआ। जिनेश्वरसूरि के जीवनकार्य ज्ञानभण्डार भी स्थापित किये जाने लगे।
ने इस युग-परिवर्तन को सुनिश्चित मूर्त स्वरूप दिया। तब अब ये यतिजन केवल अपने-अपने स्थानों में ही बद्ध से लेकर पिछले प्रायः ६०० वर्षों में, इस पश्चिम भारत में होकर बैठ रहने के बदले भिन्त-भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे जैन धर्म के जो सांप्रदायिक और सामाजिक स्वरूप का
और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्मप्रचार का कार्य प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूल में जिनेश्वरसूरि का जीवन करने लगे। जगह-जगह अजैन क्षत्रिय और वैश्य कुलों को सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टि से अपने आचार और ज्ञान से प्रभावित कर, नये-नये जैन- जिनेश्वरसूरि को, जो उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने, युगप्रधान श्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी-कुल नवीन पदसे संबोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा हो जातियों के रूप में संगठित किये जाने लगे। पुराने जैन देव- सत्य वस्तुस्थिति का निदर्शक है । मन्दिरों का उद्धार और नवीन मन्दिरों का निर्माण कार्य भी जिनेश्वरसूरि एक बहुत भाग्यशाली साधु पुरुष सर्वत्र विशेष रूप से होने लगा। जिन यतिजनोंने चैत्यनिवास थे। इनकी यशोरेखा एवं भाग्य रेखा बड़ी उत्कट थी। छोड़ दिया था उनके रहने के लिये ऐसे नये-नये वसति-गृह इससे इनको ऐसे-ऐसे शिष्य और प्रशिष्यरूप महान् बनने लगे जिनमें उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी सन्ततिरत्न प्राप्त हुए जिनके पाण्डित्य और चारित्र्य ने अपनी नित्य-नैमित्तिक धर्म क्रयायें करने की व्यवस्था रखते इनके गौरव को दिगन्तव्यापी और कल्पान्त स्थायी बना थे । ये ही वसति-गृह पिछले काल में उपाश्रय के नाम से दिया। यों तो प्राचीनकाल में, जैन संप्रदाय में सैकड़ों ही प्रसिद्ध हुए । मन्दिरों में पूजा और उत्सवों की प्रणालिकाओं ऐसे समर्थ आचार्य हो गए हैं जिनका संयमी जीवन में भी नये-नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों जिनेश्वरसूरि के समान ही महत्वशाली और प्रभावपूर्ण था; में परस्पर, कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर परन्तु जिनेश्वरसूरि के जैसा विशाल-प्रज्ञ और विशुद्ध भी वाद-विवाद होने लगा, और इसके परिणाम में कई नये संयमवान्, विपुल शिष्य-समुदाय शायद बहुत ही थोड़े
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आचार्यों को प्राप्त हुआ होगा। जिनेश्वरसूरि के शिष्य- कारी बनाना परन्तु वैसा उचित अवसर आने के पहले ही प्रशिष्यों में एक-से-एक बढ़ कर अनेक विद्वान् और संघमी प्रसन्नचन्द्रसूरिका स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अभयदेवसूरिजी पुरुष हुए और उन्होंने अपने महान् गुरु को गुणगाथा का की उक्त इच्छा को अपने उत्तराधिकारी पट्टधर देव भद्राबहुत ही उच्चस्वर से खूब ही गान किया है। सद्भाग्य चार्य के सामने प्रकट किया और सूचित किया कि इस कार्य “से इनके ऐसे शिष्य प्रशिष्यों की बनाई हुई बहुत सो नथ- को तुम संपादित करना। 'कृतियां आज भी उपलब्ध हैं और उनमें से हमें इनके अभयदेवसूरि के स्वर्गवास के बाद अणहिलपुर और विषय की यथेष्ट गुरु-प्रशस्तियां पढ़ने को मिलती हैं। स्तम्भतीर्थ जैसे गुजरात के प्रसिद्ध स्थानों में जहां अभय
चैत्यवास के विरुद्ध जिनेश्वरसूरि ने जिन विचारों का देव के दीक्षित शिष्यों का प्रभाव था, वहां से अपरिचित प्रतिपादन किया था, उनका सबसे अधिक विस्तार और स्थान में जाकर अपने विद्याबल के सामर्थ्य द्वारा जिनवल्लभ प्रचार वास्तव में जिनवल्लभसूरि ने किया था। उनके उपदिष्ट ने अपने प्रभाव का कार्यक्षेत्र बनाना चाहा। इसके लिए मार्ग का इन्होंने बड़ी प्रखरता के साथ समर्थन किया मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को इन्होंने पसन्द किया, और उसमें उन्होंने अपने कई नये विचार और नए विधान वहां इनकी यथेष्ट मनोरथ सिद्धि हुई। फिर मारवाड़ के भी सम्मिलित किये।
नागौर आदि स्थानों में भी इनके बहुत से भक्त-उपासक जिनवल्लभसूरि
बने । धीरे-धीरे इनका प्रभाव मालवा में भी बढ़ा । जिनवल्लभसूरि मूल में मारवाड़ के एक बड़े मठाधीश मेवाड़, मारवाड़ में तब बहुत से चैत्यवासी यति समुदाय चैत्यवासी गुरु के शिष्य थे परन्तु वे उनसे विरक्त होकर थे उनके साथ इनकी प्रतिस्पर्धा भी खूब हुई। इन्होंने उनके गुजरात में अभयदेवसूरि के पास शास्त्राध्ययन करने के अधिष्ठित देवमन्दिरों को अनायतन ठहराया और उनमें निमित्त उनके अन्तेवासी होकर रहे थे । ये बड़े प्रतिभाशाली किये जाने वाले पूजन उत्सवादि को अशास्त्रीय उद्घोषित विद्वान, कवि, साहित्यज्ञ, ग्रन्थकार और ज्योतिष शास्त्र- किया। अपने भक्त उपासकों द्वारा अपने पक्ष के लिए विशारद थे । इनके प्रखर पाण्डित्य और विशिष्ट वैशारद्य को जगह-जगह नए मन्दिर बनवाये और उनमें किये जाने वाले देखकर अभयदेवसूरि इन पर बड़े प्रसन्न रहते थे और अपने पूजादि विधानों के लिए कितनेक नियम निश्चित किये। मुख्य दीक्षित शिष्यों की अपेक्षा भो इन पर अधिक अनुराग इस विषय के छोटे बड़े कई प्रकरण और ग्रन्थादि की भी रखते थे । अभयदेवसूरि चाहते थे कि अपने उत्तराधिकारी पद इन्होंने रचना की। पर इनकी स्थापना हो, परन्तु ये मूल चैत्यवासो गुरु के देवभद्राचार्य ने इनके बढ़े हुए इस प्रकार के प्रौढ़ प्रभाव दीक्षित शिष्य होने से शायद इनको गच्छनायक के रूप में को देखकर और इनके पक्ष में सैकड़ों उपासकों का अच्छा अन्यान्य शिष्य स्वीकार नहीं करेंगे ऐसा सोचकर अपने समर्थ समूह जानकर इनको आचार्य पद देकर अमयदेवसूरि जीवनकाल में वे इस विवार को कार्य में नहीं ला सके। के पट्टधर रूप में इन्हें प्रसिद्ध करने का निश्चय किया। उनके पट्टधर के रूप में वर्षमानाचार्य (आदिनाथ चरितादि जिनेश्वरसूरि के शिष्यसमूह में उस समय शायद देवभद्राचार्य के कर्ता) की स्थापना हुई, तथापि अंतावस्था में अभयदेव- ही सबसे अधिक प्रतिष्ठा-सम्पल और सबसे अधिक सूरि ने प्रसन्नचन्द्रसूरि को सूचित किया था कि योग्य वयोवृद्ध पुरुष थे। वे इस कार्य के लिए गुजरात से रवाना समय पर जिनवल्लभ को आचार्य पद देकर मेरा पट्टाधि- होकर चित्तौड़ पहूँचे । यह चित्तोड़ हो जिनवल्लभसूरि
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के प्रभाव का उद्गम एवं केन्द्र स्थान था। यहीं पर सबसे जिनदत्तसूरि ने अपने पक्ष की विशिष्ट संघटना करनी पहले जिनवल्लभसूरि के नये उपासक भक्त बने और शुरू की। जिनेश्वरसरि प्रतिपादित कुछ मौलिक मन्तव्यों यहीं पर इनके पक्ष का सबसे पहिला वीर विधि चैत्य नामक का आश्रय लेकर और कुछ जिनवल्लभसरि के उपदिष्ट विशाल जेन मन्दिर बना। वि० सं० ११६७ के आषाढ़ विचारों को पल्लवित कर इन्होंने जिनवल्लभ द्वारा स्थापित मास में इनको इसी मन्दिर में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित उक्त विधिपक्ष नामक संघ का बलवान और नियमबद्ध कर देवभद्राचार्य ने अपने गच्छपति गुरु प्रपन्नचन्द्रसूरि के संगठन किया जिसकी परम्परा का प्रवाह आठ सौ बर्ष उस अन्तिम आदेश को सफल किया। पर दुर्भाग्य से ये पूरे हो जाने पर भी अखण्डित रूप से चलता है। इस पद का दीर्घकाल तक उपभोग नहीं कर सके । चार जिनदत्तसूरि ने प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में ही महीने के अन्दर इनका उसी चित्तौड़ में स्वर्गवास छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थों की रचना को। इनमें एक गणधरहो गया। इस घटना को जानकर देवभद्राचार्य को सार्द्धशतक नामक नथ है जिसमें इन्होंने भगवान महावीर बड़ा दुःख हुआ।
के शिष्य गणधर गौतम से लेकर अपने गच्छपति गरु जिनवजिनदक्तसूरि
ल्लभसुरि तक के महावार के शासन में होने वाले और अपनी जिनवल्लभसूरि ने अपने प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, संप्रदाय परंपरा में माने जाने वाले प्रधान-प्रधान गणधारी मालवा, बागड़ आदि देशों में जो सैकड़ों ही नये भक्त आचार्यों की स्तुति की है। उन्होंने १५० गाथा के प्रकरण में उपासक बनाये थे और अपने पक्ष के अनेक विधि-चैत्य आदि की ६२ गाथाओं तक में तो पूर्वकाल में हो जाने वाले स्थापित किये थे। उनका नियामक ऐसा कोई समर्थ गच्छ- कितने पूर्वावार्यों की प्रशंसा की है। ६३ से लेकर ८४ तक नायक यदि न रहा तो वह पक्ष छिन्न-भिन्न हो जायगा की गाथाओं में वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्यसमूह में होने और इस तरह जिनवल्लभसूरि का किया हुआ कार्य विफल वाले जिनेश्वर, बुद्धिसागर, जिनचन्द्र, अभयदेव, देवभद्रादि हो जायगा, यह सोच कर देवभद्राचार्य, जिनवल्लभसूरि अपने निकट पूर्वज गुरुओं की स्तुति की है। ८५वीं गाथा के पट्ट पर प्रतिष्ठित करने के लिए अपने सारे समुदाय से लेकर १४७ तक की गाथाओं में अपने गण के स्थापक में से किसी योग्य व्यक्तित्व वाले यतिजन की खोज करने गुरु जिनवल्लभ को बहुत ही प्रौढ़ शब्दों में तरह-तरह से लगे। उनकी दृष्टि धर्मदेव उपाध्याय के शिष्य पंडित स्तवना की है। जिनेश्वरसूरि के गुणवर्णन में इन्होंने इस सोमचन्द्र पर पड़ी जो इस पद के सर्वथा योग्य एवं जिन- ग्रन्थ में लिखा है कि वर्द्धमानसूरि के चरणकमलों में श्रमर वल्लभ के जैसे ही पुरुषार्थी, प्रतिभाशाली, क्रियाशील के समान सेवारसिक जिनेश्वररारि हुए वे सब प्रकार के प्रमों
और निर्भय प्राणवान व्यक्ति थे। देवभद्राचार्य फिर चित्तौड़ से रहित थे अर्थात् अपने विचारों में निम थे, स्वरमय गए और वहां पर जिनवल्लभसूरि के प्रधान-प्रधान उपासकों और पर समय के पदार्थ सार्थ का विस्तार करने में समर्थ थे। के साथ परामर्श कर उनकी सम्मति से सं० ११६६ के इन्होंने अणहिलवाड़ में दुर्लभराज की सभा में प्रवेश करके वैशाख मास में सोमचन्द्र गणि को आचार्य पद देकर नामधारी आचार्यों के साथ निर्विकार भाव से शास्त्रीय जिनदत्तसूरि के नाम से जिनवल्लभसूरि के उत्तराधिकारी विचार किया और साधुओं के लिये वसति-निवास को आचार्य पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया। जिनबल्लभसूरि स्थापना कर अपने पक्ष का स्थापन किया। जहां पर गुरुके विशाल उपासक वृन्द का नायकत्व प्राप्त करते ही क्रमागत सद्वार्ता का नाम भी नहीं सुना जाता था, उस
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गजरात देश में विचरण कर इन्होंने वसतिमार्ग को प्रकट श्री अभयदेवसूरि किया।
जिनेश्वरसूरि के अनुक्रम में शायद तीसरे परन्तु ख्याति जिनदत्तसूरि की इसी तरह की एक और छोटी सी और महत्ता की दृष्टि से सर्वप्रथम ऐसे महान् शिष्य श्री (२१ गाथा की) प्राकृत पद्य रचना है जिसका नाम है-सुगरु अभयदेवसूरि हुए, जिन्होंने जैनागम ग्रन्थों में जो एकादशपारतन्त्र्य स्तव । इसमें जिनेश्वरसूरि की स्तवना में वे अङ्ग सूत्र ग्रन्थ हैं, इनमें से नौ अंग ( ३ से ११ ) सूत्रों पर कहते हैं कि जिनेश्वर अपने समय के युगप्रवर होकर सर्व सुविशद संस्कृत टोकाए बनाई । अभयदेवाचार्य अपनी इन सिद्धान्तों के ज्ञाता थे। जेन मत में जो शिथिलाचार रूप व्याख्याओं के कारण जैन साहित्याकाश में कल्पान्त स्थायी चोर समूह का प्रचार हो रहा था उसका उन्होंने निश्चल नक्षत्र के समान सदा प्रकाशित और सदा प्रतिष्ठित रूप में रूप से निर्दलन किया। अणहिलवाड़ में दुर्लभराज की उल्लिखित किये जायेंगे। श्वेताम्बर संप्रदाय के पिछले सभी सभा में द्रव्य लिंगी ( वेशधारी ) रूप हाथियों का सिह की गच्छ और सभी पक्ष वाले विद्वानों ने अभयदेवसूरि को बड़ी तरह विदारण कर डाला। स्वेच्छाचारी सूरियों के मतरूपी श्रद्धा और सत्यनिष्ठा के साथ एक प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी अन्धकार का नाश करने में सूर्य के समान थे जिनेश्वरसुरि आचार्य के रूप में स्वीकृत किया है और इनके कथनों को प्रकट हुए।
पूर्णतया आप्तवाक्य को कोट में समझा है। अपने समका
लीन विद्वत् समाज में भी इनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी। जिनेश्वर सूरि वे साक्षात शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा किये गये
शायद ये अपने गुरु से भी बहुत अधिक आदर के पात्र और उनके गौरव परिचयात्मक उल्लेखों से हमें यह अच्छी तरह
श्रद्धा के भाजन बने थे। ज्ञात हुआ कि उनका आंतरिक व्यक्तित्व कैसा महान् था । जिनदत्तसूरि के किये गये उपयुक्त उल्लेखों में एक ऐतिहा- श्री जिनदत्तसूरि सिक घटना का हमें सूचन मिला कि उन्होंने गुजरात के अणहिलवाड़ के राजा दुर्लभराज की सभा में नामधारी
जिनदत्तसूरि, जिनेश्वरसूरि के साक्षात् प्रशिष्यों में से
ही एक थे। इनके दीक्षा-गुरु धर्मदेव उपाध्याय थे जो आचार्यो के साथ वाद-विवाद कर उनको पराजित किया और वहां पर वसतिवास की स्थापना की।
जिनेश्वर सूरि के स्वहस्त दीक्षित अन्यान्य शिष्यों में से थे ।
इनका मूल दीक्षा नाम सोमचन्द्र था, हरिसिंहाचार्य ने श्रो जिनचन्द्रसूरि
इनको सिद्धान्त ग्रन्थ पढ़ाये थे। इनके उत्कट विद्यानुराग जिनेश्वरसूरि के पट्टधर शिष्य जिनचन्द्रसूर हए। अपने पर प्रसन्न होकर देवभद्राचार्य ने अपना वह प्रिय कटाखरण गरु के स्वर्गवास के बाद यही उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित (लेखनी), जिससे उन्होंने अपने बड़े-बड़े चार ग्रन्थों का लेखन हुए और गण प्रधान बने। इन्होंने अपने बहुश्रुत एवं किया था, इनको भेंट के स्वरूप में प्रदान किया था। ये विख्यात-कोति ऐसा लघु गुरु-बन्धु अभयदेवाचार्य की बड़े ज्ञानी ध्यानी और उद्यतविहारी थे। जिनवल्लभसूरि के अभ्यर्थना के वश होकर संवेगरंगशाला नामक एक स्वर्गवास के पश्चात् इनको उनके उत्तराधिकारी पद पर संवेग भाव के प्रतिपादक शांतरस प्रपूर्ण एवं वृहद प्रमाण देवभद्राचार्य ने आचार्य के रूप में स्थापित किया था। प्राकृत कथा ग्रन्थ की रचना सं० ११२५ में की।
[कथाकोष प्रकरण की प्रस्तावना से]
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________________ दादावाड़ी-दिग्दर्शन की प्रस्तावना में मुनि जिनविजयजी लिखते हैं : खरतर गच्छ के मुख्य युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरि तथा उनके उत्तराधिकारी आचार्यवर्य मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि, श्रीजिनकुशलसूरि एवं अकबर-प्रतिबोधक श्रीजिनचन्द्रसूरि के स्मारक रूप में दादावाड़ी नाम से जितने गुरुपूजा स्थान बने हैं उतने अन्य किसी गच्छ के पूर्वाचार्यों के स्मारक रूप में ऐसे खास स्मारक स्थान बने ज्ञात नहीं होते। इन पूर्वाचार्यों में मुख्य स्थान श्रीजिनदत्तसूरि का है / श्रीजिनदत्तसूरि का स्वर्गगमन राजस्थान के प्राचीन एवं प्रधान नगर अजमेर में वि० सं० 1211 में हुआ। जहाँ पर उनके शरीर का अग्निसंस्कार हुआ, वहाँ पर भक्तजनों ने सर्वप्रथम उस स्थान पर स्मारक स्वरूप देबकूल बनाया और उसमें स्वर्गीय आचार्य वर्य के चरणचिन्ह स्थापित किये। श्रीजिनदत्तसूरि एक महान् प्रभावशाली आचार्य थे। ज्ञान और क्रिया के साथ ही उनमें अद्भुत संगठन शक्ति और निर्माण शक्ति थी। उन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य एवं ओजःपूर्ण संयम के प्रभाव से हजारों की संख्या में नये जैन धर्मानुयायी श्रावक वुलों का विशाल संघ निर्माण विया। राजस्थान में आज जो लाखों ओसवाल जातीय जैन जन हैं उनके पूर्वजों का अधिकांश भाग, इन्ही जिनदत्तसूरिजी द्वारा प्रतिबोधित और सुसंगटित हुआ था। बाद में उत्तरोत्तर इन आचार्य के जो शिष्य-प्रशिष्य होते गए वे भी महान् गुरु का आदर्श सन्मुख रखते हुए इस संघ-निर्माण का कार्य सुन्दर रूप से चलाते और बढ़ाते रहे / श्री जिनदत्तसूरि के ये सब शिष्य-प्रशिष्य धर्म प्रचार और संघनिर्माण के उद्देश्य से भारतवर्ष के जिन-जिन स्थानों में पहुंचे, वहां पर देवस्थान के साथ-साथ ही वे युगप्रवर्तक प्रवर गुरु के स्मारक रूप में छोटे-मोटे गुरुपूजा स्थान भी बनाते रहे और उनमें सूरिजी के चरणचिन्ह अथवा मूर्ति स्थापित करते रहे। ये स्थान आज सब दादावाड़ी के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं। .. श्रीजिनदत्तसूरि महान् विद्वान और चारित्रशील होने के उपरान्त एक विशिष्ट चमत्कारी महात्मा भी माने जाते हैं अतः उनके नाम-स्मरण तथा चरण पूजन द्वारा भक्तों की मनोकामनाएँ भी सफल होती रही है। ऐसी श्रद्धा पूर्वकाल से इनके अनुयायी भक्तजनों में प्रचलित रही है अतः इस कारण से भी इनकी पूजा निमित्त इन देवकुलों, छत्रियों, स्तूपों आदि का निर्माण होता रहा है। ___ श्रीजिनदत्तसूरि के बाद उनकी पट्ट-परम्परा में होने वाले मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी, श्रीजिनकुशलसूरिजी तथा अकबर-प्रतिबोधक श्रीजिन चन्द्रसरिजी के विषय में भी चमत्कारी होने की बड़ी श्रद्धा भक्तजनों में प्रचलित है। इसलिये प्राय. इन चारों आचार्यों की भी सम्मिलित चरण पादुकाए, मूति आदि प्रतिष्ठित और पूजित होती रही है।