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को लक्ष्य में रखकर अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चैत्या- नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे। ऐसे चर्चाधिकार का और शिथिलाचार का त्याग कर संयम की स्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बड़े ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे विशद्धि के निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे और एक-दूसरे सम्प्रदाय की ओर से उनका खण्डन-मण्डन संयमी बनने लगे। संयम और तपश्चरण के साथ-साथ, भी किया जाने लगा। इस प्रकार इन यतिजनों में पुरातन भिन्न-भिन्न विषयों और शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानसंपादन प्रचलित प्रवाह की दृष्टि से, एक प्रकार का नवीन जीवनकार्य भी इन यतिजनों में खूब उत्साह के साथ व्यवस्थित प्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघ का नूतन संगठन रूप से होने लगा। सभी उपादेय विषयों के नये-नये ग्रन्थ बनना प्रारम्भ हुआ। निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रन्थों पर टीका-टिप्पण इस तरह तत्कालीन जैन इतिहास का सिंहावलोकन आदि रचे जाने लगे। अध्ययन-अध्यापन और ग्रन्थ-निर्माण करने से ज्ञात होता है कि विक्रम की ११ वीं शताब्दी के के कार्य में आवश्यक ऐसे पुरातन जैन-ग्रन्थों के अतिरिक्त प्रारंभ में जैन यतिवर्ग में एक प्रकार से नूतन युग की ब्राह्मण और बौद्ध सम्प्रदाय के भी व्याकरण, न्याय, उषा का आभास होने लगा, जिसका प्रकट प्रादुर्भाव अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयों। जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि के क्षितिज पर उदित के सभी महत्वपूर्ण ग्रन्थों की पोथियों के संग्रहवाले बड़े-बड़े होने पर दृष्टिगोचर हुआ। जिनेश्वरसूरि के जीवनकार्य ज्ञानभण्डार भी स्थापित किये जाने लगे।
ने इस युग-परिवर्तन को सुनिश्चित मूर्त स्वरूप दिया। तब अब ये यतिजन केवल अपने-अपने स्थानों में ही बद्ध से लेकर पिछले प्रायः ६०० वर्षों में, इस पश्चिम भारत में होकर बैठ रहने के बदले भिन्त-भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे जैन धर्म के जो सांप्रदायिक और सामाजिक स्वरूप का
और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्मप्रचार का कार्य प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूल में जिनेश्वरसूरि का जीवन करने लगे। जगह-जगह अजैन क्षत्रिय और वैश्य कुलों को सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टि से अपने आचार और ज्ञान से प्रभावित कर, नये-नये जैन- जिनेश्वरसूरि को, जो उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने, युगप्रधान श्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी-कुल नवीन पदसे संबोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा हो जातियों के रूप में संगठित किये जाने लगे। पुराने जैन देव- सत्य वस्तुस्थिति का निदर्शक है । मन्दिरों का उद्धार और नवीन मन्दिरों का निर्माण कार्य भी जिनेश्वरसूरि एक बहुत भाग्यशाली साधु पुरुष सर्वत्र विशेष रूप से होने लगा। जिन यतिजनोंने चैत्यनिवास थे। इनकी यशोरेखा एवं भाग्य रेखा बड़ी उत्कट थी। छोड़ दिया था उनके रहने के लिये ऐसे नये-नये वसति-गृह इससे इनको ऐसे-ऐसे शिष्य और प्रशिष्यरूप महान् बनने लगे जिनमें उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी सन्ततिरत्न प्राप्त हुए जिनके पाण्डित्य और चारित्र्य ने अपनी नित्य-नैमित्तिक धर्म क्रयायें करने की व्यवस्था रखते इनके गौरव को दिगन्तव्यापी और कल्पान्त स्थायी बना थे । ये ही वसति-गृह पिछले काल में उपाश्रय के नाम से दिया। यों तो प्राचीनकाल में, जैन संप्रदाय में सैकड़ों ही प्रसिद्ध हुए । मन्दिरों में पूजा और उत्सवों की प्रणालिकाओं ऐसे समर्थ आचार्य हो गए हैं जिनका संयमी जीवन में भी नये-नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों जिनेश्वरसूरि के समान ही महत्वशाली और प्रभावपूर्ण था; में परस्पर, कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर परन्तु जिनेश्वरसूरि के जैसा विशाल-प्रज्ञ और विशुद्ध भी वाद-विवाद होने लगा, और इसके परिणाम में कई नये संयमवान्, विपुल शिष्य-समुदाय शायद बहुत ही थोड़े
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