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भारतीय जन जीवन में सांस्कृतिक परम्परा का विशेष . स्थान है। वैसे तो भारतवर्ष में अनेक संस्कृतियाँ प्रचलित हैं किन्तु
संस्कृति की विविधता होते हुए उनमें भारतीयत्व की गहरी छाप लगी है, अतः भारतीयता के नाते समस्त संस्कृतियाँ एक हैं और उनका एकरूपत्व निहित है भारतीय संस्कृति में । अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति शब्द का उच्चारण करने से भारत में स्थित समस्त संस्कृतियाँ उसमें अन्तर्भूत हो जाती हैं। फिर भी प्रत्येक संस्कृति का अपना-अपना पृथक-पृथक अस्तित्व एवं महत्व है। भारत की सांस्कृतिक परम्परा जो समय के उतार-चढाव में से गुजरती हई अपने १ लम्बे मार्ग में भीषण आघातों और कठिनाइयों को झेलती आई है किसी एक जाति, एक सम्प्रदाय, एक विचारधारा की उपज नहीं है, अपितु यह तो अनेक जातियों, अनेक सम्प्रदायों और अनेक विचारधाराओं की उपज है जिनका सम्मेलन भारत की पवित्र धरा पर हुआ है, जिनका इतिहास यहाँ की विविध अनुभूतियों, लोकोक्तियों और पौराणिक कथाओं में छिपा पड़ा है और जिनके अवशेष यहाँ के प्राचीन
जनपदों, प्राचीन पुर और प्राचीन नगरों के खण्डहरों में दबे पड़े हैं। । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त अवशेष इसके साक्षी हैं।
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भारतीय सांस्कृतिक परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी
श्रम ण संस्कृति
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यह एक आश्चर्यजनक किन्तु निविवाद तथ्य है कि विचारधाराओं की विविधता होते हुए भी भारतीय संस्कृति में अद्भुत एकरूपता है।
यही कारण है कि विदेशियों के विभिन्न आक्रमणों, आघातों, विनाशहै। लीलाओं और अत्याचारों के बावजूद आज भी उसमें वही स्थिरता
और नूतनता विद्यमान है जो पूर्वकाल में थी। यों तो संसार के प्रायः सभी बड़े देशों ने बड़ी-बड़ी सभ्यताओं और संस्कृतियों को जन्म दिया है। बेबीलोन और फिलस्तीन, मिश्र और चीन, रोम और यूनानी सभी । सभ्यताओं ने अपनी कृतियों से मानवीय गौरव को बढ़ाया है, किन्तु इनमें से किसी को भी वह स्थिरता प्राप्त नहीं हुई जो भारतीय संस्कृति को प्राप्त हुई है। ये सभी संस्कृतियाँ संसार में उषा की भाँति आयीं और संध्या की भाँति चली गयीं किन्तु इस धूप और छाया के माहोल में तथा आंधी और तूफान के झंझावातों में भी अडिग भारतीय संस्कृति सुस्थिर बनी हुई है। यही कारण है कि आज भी विश्व में भारतीय संस्कृति को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसके अनेक कारण हैं जिनमें प्रमुख है भारतीय मनीषियों, महर्षियों और योगियों की चिंतनधारा, प्रबुद्ध विचारकों, आचार्यों, उपाध्यायों और विद्वज्जनों के गम्भीर अनुभवों की आधारशिला तथा समाज के सभी
--आचार्य राजकुमार जैन
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वर्गों की विविधात्मक परम्पराएँ। इन सभी कारणों के मूल में वह उच्च आध्यात्मिक आदर्श, जो मानव को वस्तुतः मानव बनने की प्रेरणा देता है और अपने वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक • जीवन को समुन्नत करने के लिए सतत् रूप से प्रेरित करता है ।
विचारों की विविधता, दृष्टिकोण की भिन्नता तथा मान्यता व परम्पराओं की अनेकरूपता के कारण भारत ने समय-समय पर अनेक संस्कृतियों को जन्म दिया है जो एक ही वृक्ष के नीचे अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुई हैं । यही कारण है कि संस्कृतियों की विविधता होते हुए भी उनमें आश्चर्यजनक एकरूपता है । यद्यपि सभी संस्कृतियों में लक्ष्य रूप में मानवता का हित सन्निहित है और यह सर्वोपरि है, तथापि सामान्यतः भारतवर्ष में प्रच लित समस्त संस्कृतियों का स्वरूप-विभाजन संक्षेप में दो रूप से किया जा सकता है- सामाजिक और आध्यात्मिक |
भारतीय संस्कृति का सामाजिक स्वरूप वह है जो विविध कलाओं, विज्ञान, अनुसन्धान एवं आविष्कारों से निरन्तर परिपोषित एवं संवृद्ध होता रहता है । संस्कृति का इससे भिन्न अर्थात् आध्यात्मिक स्वरूप वह है जो प्राणिमात्र के कल्याण की महान भावना से परिपूर्ण तथा जीवन की सार्थ - Dear for faध धार्मिक अनुष्ठानों से युक्त है। संस्कृति के इस आध्यात्मिक पक्ष का साकार रूप है श्रमण संस्कृति, जिममें इहलौकिक, भौतिक व क्षणिक सुखों के लिये न कोई स्थान है और न कोई मान्यता । श्रमण संस्कृति का समग्र स्वरूप पूर्णतः अहिंसात्मक, अपरिग्रहात्मक व अनेकान्तात्मक है जिससे जगत में हिंसा का तांडव बन्द होकर सम्पूर्ण पापाचार निर्मूल हो, सामाजिक विषमता व अराजकता दूर हो तथा विश्व में स्थायी सुख, शांति व समता का साम्राज्य स्थापित हो । आसक्ति, परिग्रह, हिंसा और दुराग्रह के लिये इस संस्कृति में कोई स्थान नहीं है ।
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आरम्भ से ही भारतीय संस्कृति के मूल में समानांतर दो विचारधाराएँ प्रवाहित होती रही हैं१. वैदिक विचारधारा और २. श्रमण विचारधारा । जहाँ श्रमण विचारधारा ने भारतवासियों को आंतिरक शुद्धि और सुख-शांति का मार्ग बतलाया वहाँ ब्राह्मणों ने बाह्य सुख-शांति और बाह्य शुद्धि को विशेष महत्व दिया। श्रमणों ने जहाँ लोगों को नि यस एवं मोक्ष का मार्ग बतलाया, ब्राह्मणों वहाँ लौकिक अभ्युदय के लिये विभिन्न उपाय अपनाकर लोगों का मार्गदर्शन किया । श्रमण विचारधारा ने व्यक्तिगत रूप से आत्मकल्याण की भावना से लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया । 'जिओ और और जीने दो' के व्यावहारिक रूप में विश्व को अहिंसा का सन्देश देकर प्राणिमात्र के प्रति समता भाव का अपूर्व आदर्श जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया ।
दूसरी ओर ब्राह्मण वर्ग ने वर्ण व्यवस्था के द्वारा न केवल समाज में फैली अव्यवस्था अपितु विभिन्न सामाजिक विरोधों को दूर कर धार्मिक मान्यताओं एवं क्रिया-कलापों को दृढ़मूल किया । श्रमण वर्ग सदा अपनी आत्मा का निरीक्षण करने के कारण अन्तर्दृष्टि बना रहा जबकि ब्राह्मण विचारधारा ने शरीर के संरक्षण को विशेष महत्व दिया । जहाँ श्रमण इसे आदर्श देते रहे वहाँ ब्राह्मण इसे विधान के द्वारा पूर्ण करते रहे । जहाँ श्रमण विचारप्रवाह वास्तविकता को सिंचित करता रहा वहाँ ब्राह्मण समुदाय व्यावहारिक कार्यकलापों से जीवन को पूर्ण बनाते रहे। इस आत्मा और शरीर, आदर्श ओर विधान, निश्चय और व्यवहार के अभूतपूर्व सम्मेलन से ही भारत की सर्वलोक कल्याणकारी संस्कृति का निर्माण हुआ है और इसी के परिणामस्वरूप इसे चिरंतन स्थिरता प्राप्त हुई है । संस्कृति और श्रमण शब्द का अर्थ
व्याकरण के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है संस्कार-सम्पन्नता । संस्कार से वस्तु उत्कृष्ट बन
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जाती है अथवा कहना चाहिए कि संस्कार किए संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है, दूसरे रूप में NI जाने पर वस्तु अपने में निहित उत्कर्ष को अभिव्य- इसे जैन संस्कृति भी कहा जा सकता है । क्त करने का अवसर प्राप्त करती है, संस्कार किए
श्रमण संस्कृति अथवा जैन संस्कृति में मानवता ॐ जाने पर ही खनिज सुवर्ण शुद्ध स्वर्ण बनता है। के वे उच्च आदर्श, आध्यात्मिकता के वे गूढ़तम मनुष्य भी संस्कृति के द्वारा अपनी आत्मा और
रहस्यमय तत्व तथा व्यावहारिकता के वे अकृत्रिम शरीर का संस्कार परिष्कार कर अपने उच्चतम
- सिद्धान्त निहित हैं जो मानव मात्र को चिरन्तन सत्य ध्येय और संकल्पों को पूर्ण करने के लिए दिशा ।
ते व साक्षात्कार कराते हैं। मानवता के प्राप्त करता है। एक कलाकार अनगढ़ पाषाण में हित साधन में अग्रणी होने के कारण यह मानव छैनी और हथौड़े की सहायता से वीतराग प्रभु का संस्कृति भी कहलाती हैं। मुद्रा अंकित कर देता है। एक चित्रकार विविध रंगों और तूलिका की सहायता से केनवास पर श्रमण और श्रामण्य सुन्दर चित्र बना देता है। इसी प्रकार संस्कृति भी "श्रमणस्य भावः श्रामण्यम-अर्थात श्रमण मनुष्य के अंतस्थ सौन्दर्य को प्रकट कर देती है। के भाव को ही श्रामण्य कहते हैं, संसार के प्रति का यही मनुष्य के आचार-विचार को बनाती और मोह या ममत्वभाव का पूर्णतः त्याग अथवा संसार : संवारती है। ये आचार-विचार और व्यवहार से पूर्णतः संन्यास ग्रहण करना ही श्रामण्य कहलाता संस्कृति के मूल स्रोत के साथ संबद्ध होकर उसका है और इस प्रकार के श्रामण्य से युक्त पुरुष श्रमण परिचय देते हैं।
कहलाता है, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका
है कि निर्गन्थ जैन मुनि ही श्रमण होता है। श्रमण अतः जब हम संस्कृति का सम्बन्ध श्रमण सन्त के साथ करते हैं तो हमारे सामने श्रमण धर्म और
पंच महाव्रतों का पालक एवं समस्त सांसारिक उसके आचार-विचार स्पष्ट हो उठते हैं। श्रमण शब्द
वृत्तियों का परित्यक्ता होता है । वह निष्कर्मभाव KY के अभिप्राय को स्पष्ट करने की दृष्टि से कहा गया
की साधना से पूर्ण एकाग्रचित्तपूर्वक आत्मचिन्तन है-"श्राम्यति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः ।"
में लीन रहता है, आडम्बरपूर्ण व्यावहारिकता एवं अर्थात्-जो स्वयं तपश्चरण करते हैं तथा क्लेश क्रिया-कलापों के लिए उसके जीवन में कोई स्थान को सहते हैं वे श्रमण कहलाते हैं, अतः श्रमण शब्द
नहीं रहता । सम्पूर्ण बाह्य जगत उसके लिए अन्धका सामान्य अर्थ है निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही) मुनि और
काराच्छन्न हो जाता है किन्तु उसका अन्तःकरण A श्रमण संस्कृति का अर्थ हआ वह संस्कृति जिसका
आत्मज्योतिपुंज से आलोकित हो जाता है जिससे
वह संसार के समस्त भावों को अविच्छिन्न रूप से || सम्बन्ध निर्ग्रन्थ जैन मुनि से है तथा जिसके प्रस्तोता व प्रवर्तक निग्रन्थ जैन मनि हैं. और भी देख सकता है । विशुद्ध, परिपूर्ण एवं अव्याहत केवल
" ज्ञान उसमें सम्पूर्ण आत्मप्रदेश को आलोकित करता अधिक स्पष्ट रूप से इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-जिन आचार-विचार, आदर्शों और व्य
हुआ संसार की समस्त सीमाओं व बाधाओं को
लांघकर श्रमण को त्रिकालदर्शी बनाकर परम वहारों का आचरण व उपदेश निर्ग्रन्थ जैन मुनियों
उत्कृष्ट अर्हत् पद पर आसीन कर देता है । यही के द्वारा किया गया है, वह श्रमण संस्कृति
उसके श्रामण्य की चरम सीमा है। - भगवान ऋषभदेव प्रथम निम्रन्थ मुनि हैं और वे ही प्रथम श्रमण हैं, अतः उनके द्वारा आचरित श्रमण के जीवन में संयम एवं तपश्चरण के और उपदिष्ट जिन आचार-विचार, व्यवहार और आचरण का विशेष महत्व है, उसका संयमपूर्ण आदर्शों का प्रचार-प्रसार व प्रचलन हुआ वही जीवन उसे सांसारिक वृत्तियों की ओर अभिमुख ।
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होने से रोकता है और तपश्चरण उसकी कर्मनिर्जरा वेशपरिवर्तन को श्रमण परम्परा कब महत्व देती में सहायक होता है। संयम के बिना वह तपश्चरण है ? साधना के लिए मात्र बाह्य वेष ही पर्याप्त की ओर अभिमुख नहीं हो सकता और तपश्चरण नहीं है अपितु तदनुकूल विशिष्टाचरण भी अपेक्षित के बिना उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति है। में उसका मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मसाधन का ध्येय अपने विशिष्टाचरण एवं त्याग भावना के अपूर्ण ही रह जाता है, अतः सुनिश्चित है कि संयम कारण ही श्रमण सदैव गृहस्थ की अपेक्षा उच्च धर्म तपश्चरण का अनुपूरक है। इस विषय में माना गया है, अतिचार रहित ब्रतों का पालन करना आचार्यों के अनुसार-"इच्छानिरोधो तपः"- ही उसका वैशिष्ट्य है, मनसा, वाचा और कर्मणा अर्थात्-इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता पांच महाव्रतों सहित सत्ताईस मूलगुणों तथा उत्तर
है, तप का यह लक्षण संयम और तप के पारस्परिक गुणों का पालन व अनुशीलन उसकी आत्मा की शुद्धि न सम्बन्ध को स्पष्ट करता है । क्योंकि इच्छाओं व निर्मलता के लिए नितान्त आवश्यक है, इससे ph (इन्द्रियजनित वासनाओं) का निरोध करना ही उसकी आत्मा निरन्तर सांसारिक कर्म बन्धन से
संयम है और उसके सानिध्य से विहित क्रियाविशेष मुक्त होकर मोक्षाभिमुख अग्रसर होता है । ही तपश्चरण है।
श्रमण और गृहस्थ का अन्तर स्पष्ट करते हुए संसार में समस्त इच्छाएँ और वासनाएँ इन्द्रि- कहा गया है-"वह पास भी नहीं है और दर भी यजनित होती है, इनकी अभिव्यक्ति सांसारिक व नहीं है, भोगी भी नहीं है और त्यागी भी नहीं है। भौतिक क्षणिक सुखों के लिए होती है। इन इच्छाओं जिसने भोग छोड़ा, किन्तु आसक्ति नहीं छोड़ी, अतः
एवं वासनाओं को रोककर संसार के प्रति विमुखता वह न भोगी है और न त्यागी है । भोगी इसलिए A इन्द्रियों को अपने अधीन करना तथा चित्तवृत्ति की नहीं है कि भोग नहीं भोगता और त्यागी इसलिए ला एकाग्रता ही संयमबोधक होती है। इस प्रकार के नहीं है कि वह आसक्ति (भोग) की भावना का
संयम का चरम विकास मनुष्य के मुनित्व जीवन में त्याग नहीं कर सका।" O ही संभावित है, अतः संयमपूर्ण मुनित्व जीवन ही "पराधीन होकर भोग का त्याग करने वाला श्रामण्य का द्योतक है।
त्यागी या श्रमण नहीं है, त्यागी या श्रमण वह ____श्रमण परम्परा के अनुसार आपेक्षिक दृष्टि से है जो स्वाधीन भावनापूर्वक भोग से दूर रहता - गृहस्थ को निम्न एवं श्रमण को उच्च स्थान प्राप्त है।"
- दशवकालिक २/२ है। किन्तु साधना के क्षेत्र में निम्नोच्च की कल्पना आत्म-साधना के पथ पर आरूढ़ होकर निरन्तर * को किंचित् मात्र भी प्रश्रय नहीं दिया गया है। पांच महाव्रतों का अखंड रूप से पालन करने वाला,
वहाँ संयम की ही प्रधानता है। इस विषय में उत्त- दस धर्मों का सतत् अनुचिन्तन, मनन और अनुशीलन ( राध्ययन में भगवान महावीर के निम्न वचन अनु- करने वाला, बाईस परीषहजय तथा रत्नत्रय को
करणीय एवं दृष्टव्य हैं-"अनेक गृहत्यागी भिक्षुओं धारण करने वाला, शुद्ध परिणामी, सरल स्वभावी,
की अपेक्षा कुछ गृहस्थों का संयम प्रधान है और अन्तर्मुखी दृष्टि से आत्मसाक्षात्कार हेतु प्रयत्नशील ॐ उनकी अपेक्षा साधनाशील संयमी मुनियों का संयम तथा श्रमण धर्म को धारण करने वाला साधु ही
प्रधान है ।" इस प्रकार श्रमण संस्कृति में संयमपूर्ण श्रमण कहलाता है और निज स्वरूपाचरण में प्रमाद साधना को ही विशेष महत्व दिया गया है। श्रमण न होना उसका श्रामण्य है। श्रमण सदैव राग-द्वेष परम्परा के अनुसार मोहरहित व्यक्ति गाँव में भी आदि विकार भावों से दूर रहता है । ये ही विकार साधना कर सकता है, और अरण्य में भी। कोरे सांसारिक मोह और ममता के मूल कारण हैं । इन २७८
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विकार भावों से श्रमण की आत्मसाधना में बाधा उत्पन्न होती है और वह अपने लक्ष्य से विचलित हो जाता है, इसी प्रकार क्रोध - मान-माया-लोभ ये चार कषाय मनुष्य को सांसारिक बन्धन में बांधने वाले 'मुख्य मनोविकार हैं। आत्मस्वरूपान्वेषी साधक श्रमण सदैव इन कषायों का परिहार करता है, ताकि वह अपनी साधना से विचलित न हो सके । चंचल मन और विषयाभिमुख इन्द्रियों के पूर्ण नियन्त्रण पर ही श्रमण साधना निर्भर है । आत्मसाधक श्रमण के श्रामण्य की रक्षा के लिए इस प्रकार राग-द्वेष आदि विकार भाव, क्रोध आदि चार कषायों का परिहार करते हुए इन्द्रियों का दमन तथा मन का नियमन नितान्त आवश्यक है । श्रमण संस्कृति की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता
श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और ऐतिहासिकता के लिए काल गणना के अनुसार यद्यपि कोई काल निश्चित करना सम्भव नहीं है तथापि इसकी सर्वाधिक प्राचीनता निर्विवाद है । कहा तो यहाँ तक जाता है कि यह संस्कृति अपने अक्षुण्ण स्वरूप के साथ अनादिकाल से सरित प्रवाह की भांति भारत की वसुन्धरा पर प्रवाहित होती हुई मानव मात्र का कल्याण करती आ रही है, फिर भी ऐतिहासिक रूप से दृष्टिपात करने पर इस संस्कृति के आद्य प्रवर्तक के रूप में भगवान ऋषभदेव को मान सकते हैं । भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के आदि तीर्थंकर हैं तथा वेदों व पुराणों द्वारा उनकी ऐतिहासिक | सुविदित है। भगवान ऋषभदेव प्रथम श्रमण हैं । अतः श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक की दृष्टि से उनकी प्राचीनता ही श्रमण संस्कृति की भी प्राचीनता उतनी ही मानी जा सकती है। इसका एक प्रबल प्रमाण यह है कि भारत के उत्तर पश्चिम से प्रविष्ट हुए आर्यों के साथ जो संस्कृति आई उसके पूर्व भी यदि यहाँ कोई संस्कृति थी तो वह श्रमण संस्कृति थी, बाहर से आए हुए आर्यों का अधिकार सप्तसिंधु तक ही था, पश्चात वे आगे बढ़े तो उत्तर भारत में अयोध्या, हस्तिनापुर, मगध, काशी की प्राचीन
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संस्कृति के साथ उन्हें संघर्ष करना पड़ा। उस प्राचीन संस्कृति का मूलतत्व आत्मा था। इस आत्मतत्व को अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिए उपनिषदों की रचना की गई व और आत्मा के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों का आविष्कार किया गया, अतः यह निश्चित है कि आत्मा के सम्बन्ध में अन्य संस्कृतियाँ श्रमण संस्कृति से प्रभावित हैं ।
श्रमण संस्कृति और श्रमणत्व की प्राचीनता की दृष्टि से कतिपय प्रमाणों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है, अतः कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं
" नाभेः प्रियचिकीर्षयातदवरोधायने मरुदेव्या धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमण नामृमूर्ध्वमंथना शुक्लया तनुमावततार ।"
- भागवत पुराण ५/३/२ अर्थात् महाराज नाभि का प्रिय करने की इच्छा से उनके अन्तःपुर में महारानी मरुदेवी के गर्भ से श्रमण ऊर्ध्वगामियों का धर्म प्रकट करने के लिए वृषभदेव शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए ।
भागवतकार ने आद्य मनु स्वायम्भुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ को निर्ग्रन्थ श्रमणों और ऊर्ध्वगामी मुनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता माना है, ऋषभदेव ने ही श्रमणधर्म को प्रकट किया था। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमणमुनि बने । भागवत में यही उल्लेख मिलता है
नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यकेसंसिनः । श्रमणा वातरशना आत्मविद्या विशारदाः ॥
अर्थात् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से नौ पुत्र जो बड़े भाग्यवान, आत्मज्ञान में निपुण और परमार्थ के अभिलाषी थे, वे श्रमण वातरशना मुनि हुए, वे अनशन आदि तप करते थे ।
यहाँ श्रमण शब्द से अभिप्राय है - " श्राम्यति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः ।" अर्थात् जो स्वयं तपश्चरण करते हैं वे श्रमण होते हैं ।
"वातरशना ह वा ऋषयः श्रमण ऊर्ध्वमंथिनो बभूवुः तैत्तिरीयारण्यक २/७
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सायण-“वातरशनाख्याः ऋषयः श्रमणास्तप- होता है, उससे मुक्त होने के कारण वह अश्रमण 2 लो स्विनः ऊर्ध्वमंथिनः ऊर्ध्वरेतसः ।"
हो जाता है। श्रमण ऋषि तप से सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके जैन शास्त्रों में गुणस्थान चर्चा के अन्तर्गत जो ऊर्ध्वगमन करने वाले हुए ।
मुनि क्षपक श्रेणी आरोहण करता है उसके सम्बन्ध ___ सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाने पर जीव स्वभावतः में भी लगभग ऐसा ही वर्णन आता है। श्रेणी ऊर्ध्वगमन करता है और लोक के अन्त तक चला आरोहण करने वाला श्रमण मुनि पाप और पुण्य जाता है । जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का ही दोनों से रहित हो जाता है और कषाय तथा घातिहै और वह सदा इसके लिए प्रयत्नशील रहता है। चतुष्क का नाश करके कैवल्य की प्राप्ति कर 2 किन्तु कर्मों का भार होने के कारण वह उतना ही लेता है। ऊर्ध्वगमन करता है जितना कर्मों का भार कम श्रमण प्रायः सतयुग में होते हैं ऐसी मान्यता रहता है, किन्तु जब कर्मों का भार बिलकुल हट भागवतकार की है, यथाजाता है और जीव कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पादान् जनैधृतः । है तो अपने स्वभाव के अनुसार वह लोक के अन्त
सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोपः ॥ तक ऊर्ध्वगमन करता है । यथा-"तदनन्तरमूज़
सन्तुष्टा: करुणा मंत्राः शान्ता वान्तास्तितिक्षवः । गच्छत्यालोकान्तात् ।" -तत्वार्थ सूत्र १०१५
आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ।। जैन शास्त्रों में जहाँ पर भी मोक्ष का वर्णन
-भागवत १२/२/१८-१६ आया है वहाँ पर इसका विस्तार से कथन मिलता
श्री शुकदेवजी कहते हैं-हे राजन् ! कृतयुग में है। सम्भवतः श्रमण वात रशना मुनियों के लिए धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, दया, तप और ऊर्ध्वमयी, ऊर्ध्वरेता कहने में वैदिक ऋषियों दान । इस धर्म को उस समय के लोग निष्ठापूर्वक को जैन शास्त्र सम्मत ऊर्ध्वगमन ही अभीष्ट रहा धारण करते थे । सतयुग में मनुष्य सन्तुष्ट, करुणाहो।
शील, मित्रभाव रखने वाले, शान्त, उदार, सहन__ प्रस्तुत प्रसंग में बृहदारण्यकोपनिषत् का निम्न
शील, आत्मा में रमण करने वाले और समान र उद्धरण भी प्रमाण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण
दृष्टि वाले प्रायः श्रमणजन ही होते थे।
जैनाचार्य श्री जिनसेन ने आदिपुराण में कृत"श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वा
युग में ही ऋषभदेव का जन्म माना है। उस युग
का नामकरण ही ऋषभदेव के कारण हुआ और गतं पापेन ती! हि तदा सर्वान्छोकान् हृदयस्य भवति ।"
वह कृतयुग कहलाया। -वृहदा. ४/३/२२
युगादि ब्रह्मणा तेन यदित्थं स कृतोयुगः । __ श्रमण अश्रमण और तापस अतापस हो जाते ततः कृतयुगं नाम्ना तं पुराणविदो विदुः ॥ जा हैं। उस समय यह पुरुष पुण्य से असम्बद्ध तथा
आषाढ़मासबहुलप्रतिपादि दिवसे कृती । पाप से भी असम्बद्ध होता है और हृदय के सम्पूर्ण कृत्वा कृतयुगारम्भं प्राजापत्यमुपेयिवान् ।। शोकों को पार कर लेता है।
-आदिपुराण १६/१८६-१६० ___ "श्रमणः परिव्राट् यत्कर्म निमित्तो भवति, स चूकि युग के आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने | तेन विनिर्मुक्तत्वादश्रमणः"-शांकरभाष्य । इस प्रकार कर्मयुग का आरम्भ किया था, इसलिए ___ श्रमण अर्थात् जिस कर्म के कारण पुरुष परिव्राट् पुराण के जानने वाले उन्हें कृतयुग नाम से जानते २८०
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हैं। कृतकृत्य भगवान ऋषभदेव आषाढ मास के हे आदरणीय अश्रमण आप श्रमणरहित, दूसरों कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारम्भ के द्वारा शिथिल न किये जा सकने वाले, मृत्युकरके प्रजापति कहलाये।
वजित, रोगरहित, जरारहित और उत्क्षेपण गतिजैन मान्यता के अनुसार भगवान ऋषभदेव ने युक्त हो, किंच आप भेदक (भेदविज्ञानी) किन्तु कर्म की भाँति धर्म का भी उपदेश दिया और जगत दूसरों से भेदन न किये जा सकने वाले बलवान, में उसका प्रचलन किया। उस समय कृतयुग था तृष्णारहित और निर्मोह हो । जब लोगों की प्रवृत्ति धर्म की ओर अधिक थी। उपर्युक्त सूक्त का अभिप्राय यह है कि जिस भार जैन श्रमणमुनियों का सर्वत्र विहार था। यही बात चारित्र से मनुष्य श्रमण कहलाता है उससे मुक्त भागवतकार भी कहते हैं। भागवत के उपर्युक्त अर्थात् आत्मस्थ होने पर वह श्रमण कहलाता है, श्लोकों में प्रायशः शब्द विशेष उल्लेखनीय है । उसका शिथिलाचार रहित तथा मृत्यू, भय, बुढ़ापा, तृष्णा आशय यही है कि अधिकांश श्रमणों में ये गुण पाये और लोभ से रहित कोई भी श्रमण, तपस्वी अन्तजाते थे। प्रायः सभी श्रमणों का जीवन निष्पाप मुहर्त से अधिक काल तक आत्मध्यान के बिना था और उनके जीवन में अनाचार नहीं था। इस नहीं रह सकता. किंच श्रमविष्णवः (उत्क्षेपणावक्षेपप्रकार ऋषभदेव काल की जनता के आचार-विचारों णगत्युपेता) बार-बार ऊपर नीचे गुणस्थान में के सम्बन्ध में दोनों परम्परा एकमत हैं। चढ़ता उतरता रहता है । इसके अतिरिक्त निर्मोही,
ब्रह्मोपनिषद में भी परब्रह्मा का अनभव करने निस्पृह, दुखों और संशयों से रहित, इन सब में वाले की दशा का जो वर्णन आया है उससे भी बलवान होने से वह आदर योग्य और सबसे भिन्न पूर्वोक्त आशय की पुष्टि होती है, यथा
होता है। "श्रमणो न श्रमणस्तापसो न तापसः एकमेव वैदिक काल में श्रमण शब्द का अधिक महत्व । तत्परं ब्रह्म विभाति निर्वाणम् ।"
रहा है, वैयाकरण अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में ही -ब्रह्मोपनिषद, पृ० १५१ किमी शब्द विशेष के लिए नियम बनाते थे, अन्यथा श्रमण शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल
नहीं। श्रमण शब्द के सम्बन्ध में व्याकरण ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इस कथा में भी वृहदारण्य- में विशेष नियम उपलब्ध होता है, इससे श्रमण कोपनिषद् की भाँति ध्यान की उत्कृष्ट स्थिति का
शब्द का महत्व स्वतः सिद्ध होता है । सर्वप्रथम वर्णन किया गया है।
शाकटायन में ऐसा नियम बनाया गया है__तृदिला अतृदिलासो अद्रयो श्रमण अश्रुथिता
"कुमारः श्रमणादिना" -शाकटायन २/१/७८ अमृत्यवः । अनातुराः अजराः स्थामविष्णावः सपविमो अतृपिता अतृष्णजः ॥
श्रमण शब्द के साथ कुमार और कुमारी शब्द 10 -ऋग्वेद १०/८/६४/११ की सिद्धि विषयक यह सूत्र है, उस काल में कुमार | सायण-"अश्रमणाः श्रमणवर्जिताः अश्रुथिताः श्रमण ऐसे पद लोक प्रचलित थे। यह शब्द संज्ञा अन्यैरंशिथिलीकृताः अमृत्यवः अमारिताः अनातुराः उस तापसी के प्रचलित थी जो कुमारी अवस्था में अरोगाः अजराः जरारहिताः स्थमवय । किंच अप- श्रमणा (आर्यिका) बन जाती थी । श्रमणादि गणविष्णवः उत्क्षेपणवक्षेपणगत्युपेताः हे आवाणः पाठ के अन्तर्गत कुमार प्रवजिता, कुमार तापसी तृदिलाः अन्येषां भेदकाः अतृदिलासः स्वयमन्येना- जैसे विभिन्न शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस भिन्नाः सुपविसः सुबलाः अतृषिताः तृषारहिताः समय कुमारियाँ प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं, यह लोक अतृष्णजः निःस्पृहा भवय ।"
विश्रुत था। भगवान ऋषभदेव की ब्राह्मी और चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने कुमारी अवस्था में ही श्रमणा पद ग्रहण किया था । विवाह के लिए समुad राजीमती भी नेमिनाथ द्वारा दीक्षा लेने पर श्रमणा (आर्यिका ) बन गई थीं । तीर्थंकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ने भी कुमार अवस्था में ही श्रमण दीक्षा ग्रहण की थी। स्वयं शाकटायन भी श्रमण संघ के आचार्य थे। जैसा कि निम्न उद्धरण से स्पष्ट है
"महाश्रमण संघाधिपतिर्यः शाक्टायनः" - शाकटायन व्याकरण चि० टीका १ प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी का निम्न सूत्र भी दृष्टव्य है
" कुमारः श्रमणादिभिः " - अष्टाध्यायी २/१/७० "येषां च विरोधः शाश्वतिकः इत्यस्यावकाशः श्रमण ब्राह्मणम्" - पातजल महाभाष्य ३/४/६ पाणिनी के इस सूत्र का यह उदाहरण है, जिनका शाश्वत विरोध है यह सूत्र का अर्थ है । यहाँ जो विरोध शाश्वतिक बतलाया है वह किसी हेतु विशेष से उत्पन्न नहीं हुआ । शाश्वतिक विरोध सैद्धान्तिक ही हो सकता है । क्योंकि किसी निमित्त से होने वाला विरोध उस निमित्त के समाप्त होने पर दूर हो जाता है । किन्तु महर्षि के शाश्वतिक पद से यह सिद्ध होता है कि श्रमणों और ब्राह्मणों का कोई विरोध है जो शाश्वतिक है । इस आशय से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए एकेश्वरवाद तथा ज्ञान से मुक्ति मानते जबकि श्रमण परम्परा अनेकेश्वर तथा अनेकान्त सिद्धांत के आधार पर अनासक्ति, त्याग और कटोर तपश्चरण के द्वारा कर्मों की निर्जरापूर्वक मुक्ति को मानते हैं, उनके अनुसार सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष की उपलब्धि सम्भव । इसके अतिरिक्त श्रमण विचारधारा के अन्तर्गत ईश्वर का सृष्टिकर्तृत्व स्वीकार नहीं किया गया है । श्रमण और ब्राह्मणों का यही सैद्धान्तिक विरोध शाश्वतिक कहा जा सकता है ।
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वस्तुतः ज्ञान और क्रिया का संयुक्त रूप ही मोक्ष का हेतु है, जैसाकि कहा गया है- "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः इति सर्वज्ञोपदेशः " - सूत्रार्थ मुक्तावलि ४५
ब्राह्मणा भुजते नित्यं नाथबन्तश्च भुजते । तापसा सुजते चापि श्रमणाचैव भुजते ॥
- बाल्मीकि रामायण वा०
यहाँ नित्यप्रति बहुत से ब्राह्मण, नाथवन्त, तपस्वी और श्रमण भोजन करते हैं ।
इस प्रकार अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही - श्रमण संस्कृति की अविच्छिन्न, परम्परा वैदिक काल में पर्याप्त विकसित तथा पूर्णता प्राप्त थी, उस समय इसके अनुयायियों को संख्या भी अपेक्षा दृष्टि से बहुत अधिक थी, वर्तमान में मोहन जोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त सांस्कृतिक अवशेषों में अनेक ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जिससे जैनधर्म और श्रमण संस्कृति की प्राचीनता निर्विवाद रूप से सिद्ध होती है, अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों से यह तथ्य सिद्ध है कि वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिनिधित्व जैनधर्म ने किया । धर्म, दर्शन, संस्कृति, नीति, कला और शिल्प की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैनधर्म का विशेष योग रहा है ।
जैनधर्म और श्रमण संस्कृति के सम्बन्ध का जहाँ तक प्रश्न है वह सर्वथा निर्मूल एवं अव्यावहारिक है, क्योंकि दो वस्तुओं का पारस्परिक सम्बन्ध केवल वहाँ होता है जहाँ दो वस्तुओं में पृथकता या भिन्नता होती है, यहाँ श्रमण संस्कृति वस्तुतः जैनधर्म से भिन्न या पृथक् नहीं है, दोनों में शाब्दिक भिन्नता अवश्य है । दोनों अभिन्न और एक हैं । जैनधर्म के कारण श्रमण संस्कृति का आध्यात्मिक पक्ष इतना समुज्ज्वल और लोक कल्याकारी हुआ है, यही कारण है कि यह संस्कृति जैन संस्कृति के नाम से भी व्यवहृत होती व जानी
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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________________ जाती है, जैनधर्म में श्रमण शब्द का व्यापक व्यव- अपने समाज में अपने निम्नोच्च एवं कलुषित भावों हार तथा श्रमणों के आचार-विचार के कारण ही के आधार पर कुछ इस प्रकार की प्रवृत्ति को प्रश्रय जैनधर्म के सांस्कृतिक स्वरूप ज्ञापन करने की दे रखा है जिसके कारण उसके आचरण एवं व्यवदृष्टि से लोक व्यवहार में उसका व्यवहार श्रमण हार से दूसरों में निर्भयता उत्पन्न नहीं हो पाती। संस्कृति के नाम से किया जाने लगा / निर्ग्रन्थ जैन यही कारण है कि सभी प्राणी अपने सजातीय साधु का आचरण करने वालों के लिए प्राचीनकाल अथवा विजातीय प्राणियों से सदा भयभीत एवं में श्रमण शब्द इतना अधिक प्रचलित और प्रसिद्धि शंकाशील बने रहते हैं। समाज की यह स्थिति हिंसाप्राप्त हुआ कि उसके आधार पर तत्सम्बन्धी पूर्ण वृत्ति या आचरण की परिचायक है / प्राणियों सांस्कृतिक परम्परा एवं विचारधारा को श्रमण को इस प्रकार की वृत्ति से मुक्त करना तथा उनमें | नाम से जाना जाने लगा। समत्वभाव उत्पन्न करना ही श्रमण संस्कृति का श्रमण संस्कृति का स्वरूप एवं व्यापकता मूल है / इसका सैद्धान्तिक, वैचारिक एवं व्यवहा- 710) श्रमण संस्कृति का स्वरूप सदैव व्यापक रहा है, रिक रूप ही श्रमण संस्कृति का परिचायक तथा पारस्परिक भेदभाव एवं विरोध की भावना ने इस उसकी व्यापकता का द्योतक है। संस्कृति में कभी प्रश्रय नहीं पाया / यही कारण है। मानव-जीवन के प्रत्येक पक्ष को समुज्ज्वल बनाने कि प्राणि मात्र में समता भाव का आद वाली श्रमण संस्कृति वस्तुतः भारतीय संस्कृति करने का श्रेय मात्र श्रमण संस्कृति को ही लब्ध हो की वह प्रमुख धारा है जिसे अतीत और वर्तमान सका है। समता के आदर्श का मुख्य आधार है सत्य, में पीड़ित एवं कराहती हुई मानवता को आश्रय अहिसा, अपरिग्रह, अनेकान्त (व्यापक दृष्टिकोण) प्रदान कर हिताहित विवेक द्वारा आत्म-कल्याण तथा पारस्परिक स्नेह, प्रेम और सौहार्द का भाव। करने तथा भूले व भटके हुए प्राणियों को सन्मार्ग मनुष्य में इन भावों का प्रत्यूदगमन उसकी उस में लाकर जीवन का अन्तिम लक्ष्य बतलाने का मानसिक निर्मल वृत्ति का परिचायक है जो क्रमशः श्रेय प्राप्त है। श्रम-त्याग-तपस्या-शम-इन्द्रिय द्वेष, ईर्ष्या और व क्रोधरहित भाव के जन्म का विषय-कषायनिग्रह-समताभाव तथा मन-आत्मा की निर्मलता, पवित्रता तथा सांसारिक विषयों के 740 हेतु है, यही भाव मानव सुलभ वृत्ति के प्रतिपादक होते हैं, जो जीवन की वैषम्यपूर्ण स्थिति में समत्व प्रति अनासक्ति भाव का संयुक्त रूप ही श्रमण ) वृत्ति की प्रेरणा प्रदान करते हैं। यही समत्ववत्ति संस्कृति का वह व्यापक स्वरूप है जो 'सर्वजनहिताय' मानव-जीवन में आने वाली विपत्तियों और जीवन की पावन भावना से प यापन की दुरूहता का समूलोच्छेन करने में सहायक आध्यात्मिक अथवा आत्मवादी होने के कारण होती है। श्रमण संस्कृति ने भारतीय जन-जीवन को अमूल्य प्राणियों में पारस्परिक भय से समत्पन्न मनः- देन दी है। निवृत्तिपरक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए स्थिति ही अनेक विषमभावों की जन्मदात्री है. जब तथा इस परिभ्रमणशील संसार से आत्मा की मूक्ति तक जीवन में भयपूर्ण स्थिति का पूर्णतः उच्छेद के लिए जितना जोर श्रमण संस्कृति ने दिया है, नहीं हो जाता तब तक समत्ववृत्ति का भाव मानव उतना किसी अन्य संस्कृति ने नहीं दिया। श्रमण | मानस में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। जीवन में स्वभावतः मुमुक्षु होता है और उसके लिए अपनी , निर्भयता, ऋजुता और समता भाव की प्रेरणा आत्मा की मुक्ति प्रधान लक्ष्य है / इसीलिए श्रमण केवल अहिंसा से ही प्राप्त होती है। यह अहिंसा ही संस्कृति में आत्मतत्व व मोक्षतत्व मुख्य विचारणीय श्रमण संस्कृति का मूल है, वर्तमान में प्राणियों ने (शेषांश पृष्ठ 286 पर देखें) चतुथं खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 283 ( साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jalir Education International Por Private & Personal Use Only