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सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने कुमारी अवस्था में ही श्रमणा पद ग्रहण किया था । विवाह के लिए समुad राजीमती भी नेमिनाथ द्वारा दीक्षा लेने पर श्रमणा (आर्यिका ) बन गई थीं । तीर्थंकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ने भी कुमार अवस्था में ही श्रमण दीक्षा ग्रहण की थी। स्वयं शाकटायन भी श्रमण संघ के आचार्य थे। जैसा कि निम्न उद्धरण से स्पष्ट है
"महाश्रमण संघाधिपतिर्यः शाक्टायनः" - शाकटायन व्याकरण चि० टीका १ प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी का निम्न सूत्र भी दृष्टव्य है
" कुमारः श्रमणादिभिः " - अष्टाध्यायी २/१/७० "येषां च विरोधः शाश्वतिकः इत्यस्यावकाशः श्रमण ब्राह्मणम्" - पातजल महाभाष्य ३/४/६ पाणिनी के इस सूत्र का यह उदाहरण है, जिनका शाश्वत विरोध है यह सूत्र का अर्थ है । यहाँ जो विरोध शाश्वतिक बतलाया है वह किसी हेतु विशेष से उत्पन्न नहीं हुआ । शाश्वतिक विरोध सैद्धान्तिक ही हो सकता है । क्योंकि किसी निमित्त से होने वाला विरोध उस निमित्त के समाप्त होने पर दूर हो जाता है । किन्तु महर्षि के शाश्वतिक पद से यह सिद्ध होता है कि श्रमणों और ब्राह्मणों का कोई विरोध है जो शाश्वतिक है । इस आशय से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए एकेश्वरवाद तथा ज्ञान से मुक्ति मानते जबकि श्रमण परम्परा अनेकेश्वर तथा अनेकान्त सिद्धांत के आधार पर अनासक्ति, त्याग और कटोर तपश्चरण के द्वारा कर्मों की निर्जरापूर्वक मुक्ति को मानते हैं, उनके अनुसार सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष की उपलब्धि सम्भव । इसके अतिरिक्त श्रमण विचारधारा के अन्तर्गत ईश्वर का सृष्टिकर्तृत्व स्वीकार नहीं किया गया है । श्रमण और ब्राह्मणों का यही सैद्धान्तिक विरोध शाश्वतिक कहा जा सकता है ।
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वस्तुतः ज्ञान और क्रिया का संयुक्त रूप ही मोक्ष का हेतु है, जैसाकि कहा गया है- "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः इति सर्वज्ञोपदेशः " - सूत्रार्थ मुक्तावलि ४५
ब्राह्मणा भुजते नित्यं नाथबन्तश्च भुजते । तापसा सुजते चापि श्रमणाचैव भुजते ॥
- बाल्मीकि रामायण वा०
यहाँ नित्यप्रति बहुत से ब्राह्मण, नाथवन्त, तपस्वी और श्रमण भोजन करते हैं ।
इस प्रकार अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही - श्रमण संस्कृति की अविच्छिन्न, परम्परा वैदिक काल में पर्याप्त विकसित तथा पूर्णता प्राप्त थी, उस समय इसके अनुयायियों को संख्या भी अपेक्षा दृष्टि से बहुत अधिक थी, वर्तमान में मोहन जोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त सांस्कृतिक अवशेषों में अनेक ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जिससे जैनधर्म और श्रमण संस्कृति की प्राचीनता निर्विवाद रूप से सिद्ध होती है, अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों से यह तथ्य सिद्ध है कि वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिनिधित्व जैनधर्म ने किया । धर्म, दर्शन, संस्कृति, नीति, कला और शिल्प की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैनधर्म का विशेष योग रहा है ।
जैनधर्म और श्रमण संस्कृति के सम्बन्ध का जहाँ तक प्रश्न है वह सर्वथा निर्मूल एवं अव्यावहारिक है, क्योंकि दो वस्तुओं का पारस्परिक सम्बन्ध केवल वहाँ होता है जहाँ दो वस्तुओं में पृथकता या भिन्नता होती है, यहाँ श्रमण संस्कृति वस्तुतः जैनधर्म से भिन्न या पृथक् नहीं है, दोनों में शाब्दिक भिन्नता अवश्य है । दोनों अभिन्न और एक हैं । जैनधर्म के कारण श्रमण संस्कृति का आध्यात्मिक पक्ष इतना समुज्ज्वल और लोक कल्याकारी हुआ है, यही कारण है कि यह संस्कृति जैन संस्कृति के नाम से भी व्यवहृत होती व जानी
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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