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विकार भावों से श्रमण की आत्मसाधना में बाधा उत्पन्न होती है और वह अपने लक्ष्य से विचलित हो जाता है, इसी प्रकार क्रोध - मान-माया-लोभ ये चार कषाय मनुष्य को सांसारिक बन्धन में बांधने वाले 'मुख्य मनोविकार हैं। आत्मस्वरूपान्वेषी साधक श्रमण सदैव इन कषायों का परिहार करता है, ताकि वह अपनी साधना से विचलित न हो सके । चंचल मन और विषयाभिमुख इन्द्रियों के पूर्ण नियन्त्रण पर ही श्रमण साधना निर्भर है । आत्मसाधक श्रमण के श्रामण्य की रक्षा के लिए इस प्रकार राग-द्वेष आदि विकार भाव, क्रोध आदि चार कषायों का परिहार करते हुए इन्द्रियों का दमन तथा मन का नियमन नितान्त आवश्यक है । श्रमण संस्कृति की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता
श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और ऐतिहासिकता के लिए काल गणना के अनुसार यद्यपि कोई काल निश्चित करना सम्भव नहीं है तथापि इसकी सर्वाधिक प्राचीनता निर्विवाद है । कहा तो यहाँ तक जाता है कि यह संस्कृति अपने अक्षुण्ण स्वरूप के साथ अनादिकाल से सरित प्रवाह की भांति भारत की वसुन्धरा पर प्रवाहित होती हुई मानव मात्र का कल्याण करती आ रही है, फिर भी ऐतिहासिक रूप से दृष्टिपात करने पर इस संस्कृति के आद्य प्रवर्तक के रूप में भगवान ऋषभदेव को मान सकते हैं । भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के आदि तीर्थंकर हैं तथा वेदों व पुराणों द्वारा उनकी ऐतिहासिक | सुविदित है। भगवान ऋषभदेव प्रथम श्रमण हैं । अतः श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक की दृष्टि से उनकी प्राचीनता ही श्रमण संस्कृति की भी प्राचीनता उतनी ही मानी जा सकती है। इसका एक प्रबल प्रमाण यह है कि भारत के उत्तर पश्चिम से प्रविष्ट हुए आर्यों के साथ जो संस्कृति आई उसके पूर्व भी यदि यहाँ कोई संस्कृति थी तो वह श्रमण संस्कृति थी, बाहर से आए हुए आर्यों का अधिकार सप्तसिंधु तक ही था, पश्चात वे आगे बढ़े तो उत्तर भारत में अयोध्या, हस्तिनापुर, मगध, काशी की प्राचीन
चतुर्थखण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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संस्कृति के साथ उन्हें संघर्ष करना पड़ा। उस प्राचीन संस्कृति का मूलतत्व आत्मा था। इस आत्मतत्व को अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिए उपनिषदों की रचना की गई व और आत्मा के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों का आविष्कार किया गया, अतः यह निश्चित है कि आत्मा के सम्बन्ध में अन्य संस्कृतियाँ श्रमण संस्कृति से प्रभावित हैं ।
श्रमण संस्कृति और श्रमणत्व की प्राचीनता की दृष्टि से कतिपय प्रमाणों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है, अतः कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं
" नाभेः प्रियचिकीर्षयातदवरोधायने मरुदेव्या धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमण नामृमूर्ध्वमंथना शुक्लया तनुमावततार ।"
- भागवत पुराण ५/३/२ अर्थात् महाराज नाभि का प्रिय करने की इच्छा से उनके अन्तःपुर में महारानी मरुदेवी के गर्भ से श्रमण ऊर्ध्वगामियों का धर्म प्रकट करने के लिए वृषभदेव शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए ।
भागवतकार ने आद्य मनु स्वायम्भुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ को निर्ग्रन्थ श्रमणों और ऊर्ध्वगामी मुनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता माना है, ऋषभदेव ने ही श्रमणधर्म को प्रकट किया था। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमणमुनि बने । भागवत में यही उल्लेख मिलता है
नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यकेसंसिनः । श्रमणा वातरशना आत्मविद्या विशारदाः ॥
अर्थात् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से नौ पुत्र जो बड़े भाग्यवान, आत्मज्ञान में निपुण और परमार्थ के अभिलाषी थे, वे श्रमण वातरशना मुनि हुए, वे अनशन आदि तप करते थे ।
यहाँ श्रमण शब्द से अभिप्राय है - " श्राम्यति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः ।" अर्थात् जो स्वयं तपश्चरण करते हैं वे श्रमण होते हैं ।
"वातरशना ह वा ऋषयः श्रमण ऊर्ध्वमंथिनो बभूवुः तैत्तिरीयारण्यक २/७
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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