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वर्गों की विविधात्मक परम्पराएँ। इन सभी कारणों के मूल में वह उच्च आध्यात्मिक आदर्श, जो मानव को वस्तुतः मानव बनने की प्रेरणा देता है और अपने वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक • जीवन को समुन्नत करने के लिए सतत् रूप से प्रेरित करता है ।
विचारों की विविधता, दृष्टिकोण की भिन्नता तथा मान्यता व परम्पराओं की अनेकरूपता के कारण भारत ने समय-समय पर अनेक संस्कृतियों को जन्म दिया है जो एक ही वृक्ष के नीचे अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुई हैं । यही कारण है कि संस्कृतियों की विविधता होते हुए भी उनमें आश्चर्यजनक एकरूपता है । यद्यपि सभी संस्कृतियों में लक्ष्य रूप में मानवता का हित सन्निहित है और यह सर्वोपरि है, तथापि सामान्यतः भारतवर्ष में प्रच लित समस्त संस्कृतियों का स्वरूप-विभाजन संक्षेप में दो रूप से किया जा सकता है- सामाजिक और आध्यात्मिक |
भारतीय संस्कृति का सामाजिक स्वरूप वह है जो विविध कलाओं, विज्ञान, अनुसन्धान एवं आविष्कारों से निरन्तर परिपोषित एवं संवृद्ध होता रहता है । संस्कृति का इससे भिन्न अर्थात् आध्यात्मिक स्वरूप वह है जो प्राणिमात्र के कल्याण की महान भावना से परिपूर्ण तथा जीवन की सार्थ - Dear for faध धार्मिक अनुष्ठानों से युक्त है। संस्कृति के इस आध्यात्मिक पक्ष का साकार रूप है श्रमण संस्कृति, जिममें इहलौकिक, भौतिक व क्षणिक सुखों के लिये न कोई स्थान है और न कोई मान्यता । श्रमण संस्कृति का समग्र स्वरूप पूर्णतः अहिंसात्मक, अपरिग्रहात्मक व अनेकान्तात्मक है जिससे जगत में हिंसा का तांडव बन्द होकर सम्पूर्ण पापाचार निर्मूल हो, सामाजिक विषमता व अराजकता दूर हो तथा विश्व में स्थायी सुख, शांति व समता का साम्राज्य स्थापित हो । आसक्ति, परिग्रह, हिंसा और दुराग्रह के लिये इस संस्कृति में कोई स्थान नहीं है ।
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आरम्भ से ही भारतीय संस्कृति के मूल में समानांतर दो विचारधाराएँ प्रवाहित होती रही हैं१. वैदिक विचारधारा और २. श्रमण विचारधारा । जहाँ श्रमण विचारधारा ने भारतवासियों को आंतिरक शुद्धि और सुख-शांति का मार्ग बतलाया वहाँ ब्राह्मणों ने बाह्य सुख-शांति और बाह्य शुद्धि को विशेष महत्व दिया। श्रमणों ने जहाँ लोगों को नि यस एवं मोक्ष का मार्ग बतलाया, ब्राह्मणों वहाँ लौकिक अभ्युदय के लिये विभिन्न उपाय अपनाकर लोगों का मार्गदर्शन किया । श्रमण विचारधारा ने व्यक्तिगत रूप से आत्मकल्याण की भावना से लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया । 'जिओ और और जीने दो' के व्यावहारिक रूप में विश्व को अहिंसा का सन्देश देकर प्राणिमात्र के प्रति समता भाव का अपूर्व आदर्श जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया ।
दूसरी ओर ब्राह्मण वर्ग ने वर्ण व्यवस्था के द्वारा न केवल समाज में फैली अव्यवस्था अपितु विभिन्न सामाजिक विरोधों को दूर कर धार्मिक मान्यताओं एवं क्रिया-कलापों को दृढ़मूल किया । श्रमण वर्ग सदा अपनी आत्मा का निरीक्षण करने के कारण अन्तर्दृष्टि बना रहा जबकि ब्राह्मण विचारधारा ने शरीर के संरक्षण को विशेष महत्व दिया । जहाँ श्रमण इसे आदर्श देते रहे वहाँ ब्राह्मण इसे विधान के द्वारा पूर्ण करते रहे । जहाँ श्रमण विचारप्रवाह वास्तविकता को सिंचित करता रहा वहाँ ब्राह्मण समुदाय व्यावहारिक कार्यकलापों से जीवन को पूर्ण बनाते रहे। इस आत्मा और शरीर, आदर्श ओर विधान, निश्चय और व्यवहार के अभूतपूर्व सम्मेलन से ही भारत की सर्वलोक कल्याणकारी संस्कृति का निर्माण हुआ है और इसी के परिणामस्वरूप इसे चिरंतन स्थिरता प्राप्त हुई है । संस्कृति और श्रमण शब्द का अर्थ
व्याकरण के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है संस्कार-सम्पन्नता । संस्कार से वस्तु उत्कृष्ट बन
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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