Book Title: Sarthak hai Siddharshi ka Rachna Upkram
Author(s): Garimashreeji
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति और उसका अवदान -परम विदुषी साध्वी श्री कुसुमवती जी म. की सुशिष्या साध्वी गरिमा, एम. ए. - Q9 विश्व में अनेकानेक संस्कृतियाँ हैं। जब से लिये प्रेरणा देती है, वह इस दिशा में मार्ग निर्मित मनुष्य ने सामुदायिक जीवन आरम्भ किया और करती है और उसके अनुसरण के लिये भी मनुष्य परस्पर व्यवहार को आधार-भूमि बनने लगी, तभी को शक्ति प्रदान करती है। प्रत्येक व्यक्ति के पारसे आचरण संबंधी कतिपय आदर्शों ने आकार स्परिक व्यवहार को आदर्श रूप देने, उसे नियमित ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था और देश-काला- और नियन्त्रित करने की भूमिका का निर्वाह भी नुसार उसमें परिवर्तन-परिवर्धन भी होते रहे। संस्कृति द्वारा होता है। उच्च मानवीय आदर्शों इस प्रकार संस्कृति का अस्तित्व बना । परिस्थिति- को रूपायित कर संस्कृति मनुष्य ही नहीं प्राणिभिन्नता के कारण विश्व के विभिन्न भू-भागों में मात्र के कल्याण में लगी रहती हैं। जीवन को भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृतियों का प्रचलन हो आदर्श रूप में ढालने का साँचा संस्कृति है । मनुगया। इन अनेक संस्कृतियों में जैन संस्कृति को ष्यत्व तो देवत्व एवं असुरत्व का समन्वय होता अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसका आधारभूत है। कभी उसका एक लक्षण जागृत रहता है और कारण यह है कि किसी भी संस्कृति के लिए जो अन्य सुप्त रहता है, कभी यह क्रम विलोम हो अनिवार्य अपेक्षाएं हैं, उनकी पूर्ति जैन संस्कृति द्वारा जाता है। इस आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन बखूबी हो जाती है । अर्थात् संस्कृति के वांछित स्वरूप होता है कि वह भला है अथवा बुरा । देवत्व की से जैन संस्कृति सर्वथा संपन्न है । व्यापक दृष्टिकोण कल्पना श्रेष्ठ मानवीय व्यवहारों, गुणों और " को अपनाते हुए यदि संस्कृति के समग्र स्वरूप को लक्षणों के समुच्चय के रूप में की जा सकती है। । सूत्रात्मक रूप में प्रस्तुत करना हो, तो यह कहना इसके विपरीत मनुष्य की दुर्जनता, उसकी कुप्रवृहोगा कि-संस्कृति आदर्श जीवन जीने की एक त्तियाँ ही असूरत्व का स्वरूप हैं। सज्जनों में कला है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और देवत्व का प्राचुर्य और असुरत्व नाम मात्र को ही तदनुसार उसके जीवन का एक रूप व्यक्तिगत है होता है । संस्कृति व्यक्ति के इसी प्रकार के व्यक्तिऔर दूसरा रूप सामाजिक अथवा सामुदायिक है। त्व को संवारती है। देवत्व के भाग को अधिकाव्यक्ति के जीवन के ये दो पक्ष हैं। इस प्रकार यदि धिक विकसित करने और असुरत्व को घटाकर मनुष्य अपने ही जीवन को शान्तिमय और सुखपूर्ण न्यूनतम बना देने की अति महत्वपूर्ण भूमिका बनाने की दिशा में प्रयत्नशील रहता है, तो उसका संस्कृति द्वारा ही निभायी जाती है। संस्कृति इस जीवन-साफल्य आंशिक होगा। पूर्ण सफलता तभी प्रकार मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाती हैस्वीकार की जा सकेगी जब मनुष्य जाति, समाज, उसे मनुष्यता से सम्पन्न करती है। यह मनुष्य का देश, विश्व की शान्ति व सुख के लिये सचेष्ट हो। संस्कार करना है, जो संस्कृति द्वारा पूर्ण होता है । , संस्कृति इस प्रकार के सम्पूर्णतः सफल जीवन के मानवाकृति की देह मात्र मनुष्य नहीं है। इसके कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५६१ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ooo Yor Private & Personal Use Only JATT Education Internationar www.jainehibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये मानवोचित आदर्श, सद्गुण, व्यवहार और में रही हैं, यथा-वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृलक्षणों की अनिवार्य अपेक्षा रहती है, जो उसे तियाँ । ये पृथक-पृथक सांस्कृतिक धाराएँ रही हैं । अन्य प्राणियों से भिन्न और उच्चतर स्थान प्रदान इस प्रकार से यह भी कथनीय है कि वेद दान के, करते हैं, उसे 'अशरफुल मखलुकात' बनाते हैं। बौद्ध दया के और जिन दमन के प्रतीक हो गये हैं। ___मनुष्य की मेधा क्रमिक रूप से विकसित होती मनोविकारों का दमन कर उन पर विजय स्थापित रही और परिस्थितियाँ भी युगानुयुग परिवर्तित करने वाला जिन है और जिन की संस्कृति ही जैन होती रहीं। तदनुरूप ही संस्कृति के स्वरूप में भी संस्कृति है। इस सूत्र के सहारे जैन संस्कृति के ॥ विकास होता रहा । संस्कृति के इस सतत विकाश- तत्त्वा को समझना सुगम है। शील रूप के कारण उसे किसी काल विशेष की भारतीय संस्कृति में प्रमुखतः दो धाराएँ रही उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं होगा, तथापि जैन हैं जिन्हें ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति के हैं संस्कृति के विषय में यह कथन असंगत न होगा कि नाम से जाना जाता है। ब्राह्मण संस्कृति के आधार यह अतिप्राचीन और अति लोकप्रिय है। मानव वेद और श्रमण संस्कृति के आधार जिनोपदेश रहे मात्र में मानवता जगाने की अद्वितीय क्षमता के हैं। श्रमण संस्कृति निवृत्तिमूलक है, जबकि ब्राह्मण कारण उसकी महत्ता सर्वोपरि है और इसे संस्कृ- संस्कृति प्रवृत्तिमूलक है । यही कारण है कि इन तियों के समूह में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । जैन दोनों संस्कृतियों में यह एक मौलिक अन्तर लक्षित संस्कृति ने अपने स्वरूप को इतनी व्यापकता दी है, होता है कि जहाँ ब्राह्मण संस्कृति में भोग का स्वर ? इतनी उदारता दी है कि अन्यान्य संस्कृतियों को है वहाँ श्रमण संस्कृति में योग और संयम का ही। इससे प्रेरणा लेने का समुचित अवसर मिला। प्राचुर्य है । ब्राह्मण संस्कृति में विस्तार की प्रवृत्ति वस्ततः विश्व संस्कृति के पक्ष में जैन संस्कृति की है और इसके विपरीत श्रमण संस्कृति में संयम मूल्यवान देन रही है। और अन्तर्दृष्टि की प्रबलता है। ब्राह्मण संस्कृति ____ भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृतियों में अब व्यक्ति को स्वर्गीय सुखों के प्रति लोलुप बनाती है, | भी आदरणीय स्थान है। यह प्राचीनतम है और भोगोन्मुख बनाती है, जबकि श्रमण संस्कृति मोक्षो-हूँ अजस्र रूप से प्रवाहित धारा है। इसका प्रवाह न्मुख और विरक्त बनाती है। यहाँ यह विशेष रूप कभी खण्डित नहीं हुआ। कुछ विद्वानों ने 'भारत' से ध्यातव्य है कि मानव-जीवन का परम लक्ष्य शब्द का विश्लेषण इस प्रकार भी किया है कि भा' मोक्ष की प्राप्ति ही है और लक्ष्य की प्राप्ति में * का अर्थ प्रकाश है और भारत का अर्थ प्रकाश में श्रमण संस्कृति ही सहायक होती है। बाले जनों के ससदाय से लिया गया है। मानवोचित श्रेष्ठ संस्कारों को स्थापित करने । प्रकाश में रत रहने के संस्कारों का उदय भारतीय वाली जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहा जाना संस्कृति की प्रवृत्ति रही है । इस संस्कार-सम्पन्नता सर्वथा उपयुक्त और सार्थक है । श्रमण शब्द के मूल । के लिए उपनिषदानुसार ३ सूत्र हैं-दया, दान में 'श्रम' 'शम' और 'सम' के तात्पर्यों को स्वीकार और दमन (मन व इन्द्रियों का निग्रह)। किया जा सकता है। यह संस्कृति 'श्रम' प्रतीक संक्षेप में यही भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप द्वारा मनुष्य को उद्यमी बनाती है। इसका सन्देश | कहा जा सकता है। यही भारतीय संस्कृति की है कि मनुष्य स्वयं ही आत्म-निर्माता है। उसका एकरूपात्मकता है, अन्यथा इस देश में इस मौलिक हिताहित किसी अन्य की अनुकम्पा पर नहीं, स्वयं स्वरूप का वहन करती हुई कतिपय अन्य, परस्पर उसी के प्रयत्नों पर आधारित है, वह आत्म निर्माता भिन्न (अन्य प्रसंगों में) संस्कृतियाँ एकाधिक रूप है। आत्म-कल्याण को महत्ता देने वाली श्रमण ५६२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ । AGYOREVE Jain Elation International N Poate & Personal Use Only www.jainelib Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति मनुष्यों को ही यह गौरव प्रदान करती है कि वह अपने कल्याण की क्षमता स्वयं ही रखता है । मनुष्य को यह संस्कृति आत्म- गौरव से दीप्त और स्वावलम्बी बनाती है । उसे पुरुषार्थी बनाती है, ईश्वराधीन शिथिल और श्लथ नहीं बनाती । यह मनुष्य को किसी के चरणों का दास और दीन हीन बनने की प्रेरणा नहीं देती। विशेषता यह भी है कि इस पुरुषार्थं का प्रयोग आत्म - विकास के लिए सुझाया गया है । आत्मा के उत्कर्ष के लिए राग-द्वेषादि सर्व कषायों का शमन अमोघ उपाय ' के रूप में श्रमण संस्कृति ने ही सुझाया है। श्रम को सार्थक बनाने के लिए इस प्रकार 'शर्मा' अभिप्रेत रहता है । सम का सन्देश भी समत्व के रूप में श्रमण संस्कृति द्वारा ही प्रदान किया गया है । यह तात्पर्य भी इस संस्कृति को अत्युच्चासन पर अवस्थित करता है । व्यक्ति अन्य सभी प्राणियों को आत्मवत् ही स्वीकार करे यह समत्व है । मनुष्य यह अनुभव करे कि जैसा में हैं वैसे ही अन्य सभी हैं । जिन कारणों से मुझे सुख अथवा दुःख का अनुभव होता है, वैसा ही अन्य प्राणियों के साथ ही घटित होता है। इस आधार के सहारे मनुष्य के मन में यह संस्कृति दूसरों के प्रति ऐसे व्यवहार की प्रेरणा जगाती है, जैसा व्यवहार वह दूसरों द्वारा अपने प्रति चाहता है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी को अपने समान समझने के कारण मनुष्य स्वयं को अन्यों से उच्च समझने के दर्प से भी बच जाता है और अन्यों से निम्न समझने के होनत्व से भी बच जाता है । उसके लिए सभी समान हैं-न कोई उच्च है न नीच । वर्गविहीन समाजनिर्माण की दिशा में ऐसी संस्कृति की महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इसी प्रकार समभाव व्यक्ति में अहिंसा का व्यापक भाव भी सक्रिय कर देता है । यह संस्कृति मनुष्य को सिखाती है कि उसे किसी के प्राणापहरण का कोई अधिकार नहीं है । किसी के मन को कष्ट पहुँचाना भी उसके लिए उपयुक्त नहीं । व्यक्ति इसी प्रकार तो सभी की सुख-शान्ति के लिए सचेष्ट रहता हुआ जी सकता है | श्रमण संस्कृति मनुष्य के जीवन को ऐसा सार्थक रूप देने का महान कार्य भी सम्पादित करती है । अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है । मन, वचन और काया से किसी जीव का घात न करना अहिंसा के माध्यम से हमें जैन संस्कृति ने ही सिखाया है । यह तो यहाँ तक निर्देश करती है कि स्वयं किसी का प्राणघात करना मात्र ही नहीं, अपितु दूसरों को ऐसा करने की प्रेरणा देना, उसे सहायता देना भी हिंसा है । यह भी अनुपयुक्त है । यही क्यों, किसी हिंसा का समर्थन करना भी हिंसा ही है । यह संस्कृति हिंसा के रंचमात्र प्रभाव को भी निंद्य मानती है । मन में किसी का अहित सोचना, वचन से किसी के मन को ठेस पहुँचाने जैसे कर्म भी हिंसा की परिधि में ले आने वाली यह जैन संस्कृति वस्तुतः मनुष्य को देवत्व - सम्पन्न बनाने में सर्वथा सक्षम है । क्या यह संस्कृति मनुष्य को प्राणघात न करने आदि जैसे निषेधात्मक निर्देश ही देती है ? नहीं, ऐसा नहीं है । यह तो मनुष्य को संकटापन्न प्राणियों की रक्षा करने की संस्कृति के लिए एक गौरवपूर्ण तत्व है । प्रेरणा भी देती है । विधि-निषेधयुक्त अहिंसा जैन अनेकान्त दृष्टि भी जैन संस्कृति की अत्यन्त उपयोगी देन है । समाज में अनेक विचारधाराओं का अस्तित्व अति स्वाभाविक है और विभिन्न विचारधाराओं के अनुयायी अपने ही पक्ष में श्रेष्ठता का अनुभव करें - यह भी बहुत स्वाभा विक है । ऐसी स्थिति में एक मत वाले अन्य मतों को हीन दृष्टि से देखने लगते हैं, उनकी वे निन्दा करते हैं और उनके दोषों को उजागर करने से उन्हें संतोष का अनुभव होता है । इसी प्रकार वे अपने मत के प्रति श्रेष्ठ जनधारणा का निर्माण करना चाहते हैं । यह सारी की सारी प्रवृत्ति दूषित और घातक हो जाती है। इस प्रवृत्ति से ऐक्य खण्डित हो जाता है और समाज अनेक वर्गों में विभक्त हो जाता है। इन विभिन्न वर्गों के बीच भीषण संघर्ष की स्थिति रहती है । परिणामतः कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न ग्रन्थ ५६३ मन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEST TERS % 3ER समाज घोर अशान्ति का घर बनकर रह जाता है। को अपने पुरुषार्थ का प्रयोग करना चाहिए । अपने आग्रह का मंडन और अन्यों के आग्रह का इस सन्देश से प्रेरित होकर मनुष्य अपनी खण्डन करने को प्रवृत्ति ही इस सामाजिक संकट लालसा पर अंकुश लगाता है, भी सुखों के का कारण होती है। ऐसी विकट समस्या का प्रति विकर्षित होकर मनुष्य आत्म-संतोषी हो जाता समाधान अनेकान्त दर्शन के माध्यम से जैन संकृति है। भौतिक समृद्धि की दौड़ में उसकी रुचि नहीं प्रस्तुत करती है । अनेकान्त हमें सिखाता है कि रह जाती और संतोष-सागर को शान्ति लहरियों ॥ अपने आग्रह को सत्य मानने के साथ-साथ अन्य- में वह सुखपूर्वक विहार करने लगता है। जनों ने आग्रह में 'भी' सत्य की उपस्थिति स्वीकार इसी प्रकार जैन संस्कृति मनुष्य को संयम और करनी चाहिये। तभी हम पूर्ण सत्य के निकट आत्मानशासन के पनीत मार्ग पर भी आरूढ़ करता रहेंगे। किसी एक दृष्टिकोण से हमारी धारणा है । अचौर्य और सत्य के सिद्धान्तों की प्रेरणा देने यदि सत्य है तो किन्हीं अन्य दृष्टिकोणों से, अन्य अपेक्षाओं से अन्य जनों की धारणा भी सत्य ही होगी वाली यह संस्कृति अपरिग्रह का मार्ग खोलती है । ICE मनुष्य को अपनी न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति के और इन सभी के समन्वय से ही पूर्ण सत्य का कोई योग्य ही साधन-सुविधाएं प्राप्त करनी चाहिए। स्वरूप प्रकट हो सकता है। अन्यथा एकान्त रूप से इससे अधिक संग्रह करना इस संस्कृति के अधीन पृथक-पृथक दृष्टिकोण तो सत्य के एक-एक अंश ही र अनोति है । जो इस अनीति का अनुसरण करता है होंगे। यह समन्वयशीलता की प्रवत्ति जैन संस्कृति वह अन्य अनेक जनों को सुख-सुविधा प्राप्त करने की ऐसी देन है जिसमें पारस्परिक विरोध संघर्ष के अधिकार से वंचित कर देने का भारी पाप की स्थिति को समाप्त कर देने की अचूक शक्ति करता है। मनुष्य की यह दृष्प्रवृत्ति समाज के लिए है। अनेकान्त दृष्टि समाज को शान्ति, एकता और बडी घातक सिद्ध होती है। सूख-सुविधा के साधन सहिष्णता की स्थापना करने में सर्वथा सफल रह की लोगों के पास प्रचरता के साथ संकलित | सकती है। आज वैचारिक वैमनस्य के यग में इस हो जाते हैं और शेष सभी दीन-हीन और दुःखी (५ सिद्धान्त की भूमिका अत्यन्त उपयोगी एवं सार्थक रहते हैं। यह आर्थिक वैषम्य घोर सामाजिक सिद्ध हो सकती है । वर्ग-वर्ग, प्रदेश-प्रदेश और देश अन्याय है जो समाज में शान्ति और सौमनस्य का देश के दृष्टिकोणों का समन्वय सारे देश में और विनाश कर असन्तोष, घृणा, कलह, रोष, चिन्ता विश्व भर में शान्ति की स्थापना कर सकता है। और प्रतिशोध जैसे विकारों को अभिवधित करता IN समस्याओं के समाधान में यह औषधि अचूक सिद्ध है। मनष्य की इससे बढकर दानवता और क्या ।। होगी। होगी कि दूसरों को न्यूनतम सुखों से भी वंचित जैन संस्कृति अनासक्ति का मूल्यवान सन्देश रखकर वह अनन्त सुख-सागर में विहार करता भी देती है । यह मनुष्य को सिखाती है कि जाग- रहे । यह प्रवृत्ति स्वयं ऐसे अनीतिकारी व्यक्ति के तिक वैभव नश्वर, अवास्तविक और सुख की मात्र लिए भी कम धातक नहीं रहती। उसके मन में । प्रतीति कराने वाला हो होता है। ये तथाकथित अधिक से अधिक प्राप्त करते रहने की असमाना सुख अन्ततः दुःख के द्वार खोलकर स्वयं अदृश्य हो तृष्णा का साम्राज्य हो जाता है। जो कुछ उसे जाते हैं । अतः मनुष्य को सुख के इन छलावों से प्राप्त हो जाता है - चाहे वह बहुत-कुछ ही क्यों न । बचकर अनासक्त हो जाना चाहिये और वास्तविक हो-उसे उससे सन्तोष नहीं होता। लोभ उसके सख, अनन्त-सुख-मोक्ष को लक्ष्य मानना चाहिए। मन को शान्त नहीं रहने देता । घोर अशान्ति की इसी अनन्त-सुख को प्राप्त करने के लिए ही मनुष्य ज्वाला में उसका मानस दग्ध होता रहता है । AP ५६४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ( साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E wron International Nerovate & Personal Use Only www.jaineitborg Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिलाषाओं के ज्वार में उसका चित्त डूबकर दम वातावरण का अनुभव करने लगता है । असन्तुष्ट होकर ऐसा व्यक्ति दौड़-धूप में ऐसा व्यस्त हो जाता है कि सारे सुख उससे छिन जाते हैं । वह सम्पन्न दुखी होकर रह जाता है । फिर लोभ, अधिक से अधिक प्राप्त करने की आकांक्षा उससे कुछ भी करवा सकती है । अहिंसा के मार्ग से वह च्युत हो जाता है, वह घोर अनादर्शों और अनीतियों के विकट वन में आँधियों की भाँति हहराता ही रह जाता है । और इस प्रकार वह अपना और अन्यों का जीना दूभर कर बैठता है । ऐसी स्थिति में जैन संस्कृति अपरिग्रह के सन्देश द्वारा कितना उपकार करती है । जैन संस्कृति कर्म सिद्धान्त की प्रतिष्ठा कर यह व्याख्या भी करती है कि मनुष्य को अपने कर्मों के फल अवश्य मिलते हैं । और यह प्रतिपादन भी इस संस्कृति द्वारा भलीभाँति हो जाता है कि फल सदा कर्मानुसार ही होता है। शुभकर्मों के फल सदा शुभ होंगे और अशुभकर्मों के फल कदापि शुभ नहीं होंगे । स्वभावतः मनुष्य शुभफलाकांक्षी हो होता है और यह संस्कृति उसे ऐसी दशा में शुभकर्मों के प्रति रुचिशील बना देती है । विश्व मानवता पर इस संस्कृति का यह उपकार कम नहीं कहा जा सकता है । यह संस्कृति मनुष्य को भाग्यवादी नहीं देती है । यह तो यही सिखाती है कि मनुष्य स्वयं ही अपने भविष्य का निर्माता है । वह जैसा आज करेगा उसी के अनुरूप उसका कल होगा ! इस प्रकार यह संस्कृति मनुष्य को 'अजगर करे न चाकरी, पंछी करें न काम' जैसा बन जाने से बचा लेती है । मनुष्य को यह उद्यमी बनने की प्रेरणा देती है और इस आत्म-विश्वास से भी उसे सम्पन्न कर देती है कि वह कल क्या बनेगा - यह स्वयं उसी के हाथ को बात है । अपने भविष्य की रूपरेखा भी वह बना सकता है और उसे क्रियान्वित भी वह स्वयं ही कर सकता है। मनुष्य को इस सम्पदा से सम्पन्न करने का श्रेय जैन संस्कृति को ही मिलता है । करुणा- क्षमाशीलता का औदार्य जैन संस्कृति की अमूल्य देन है । मनुष्य की मनुष्यता का सार करुणाशीलता में जितना सन्निहित रहता है, उतना कदाचित् किसी अन्य मानवीय गुण में नहीं । प्राणी के कष्ट को देखकर जो द्रवित न हो जाय उस मनुष्य की मनुष्यता की सर्वांगता संदिग्ध ही कही जाएगी। दुखी जनों की सहायता हमारा परम कर्तव्य है और इस कर्तव्य के निर्वाह के लिए बाह्य आदेश या दबाव सफल नहीं हो सकता । इसके लिए तो अन्तःप्रेरणा ही सहायक रह सकती है । हम दूसरों के कष्ट निवारण में तभी सहायक हो सकते हैं जब उनके प्रति हमारे मन में सहानुभूति हो, करुणा हो । मानव मन में इस महती करुणा को अंकुरित और पल्लवित करने की अद्भुत क्षमता जैन संस्कृति में है । यह ऐसा गुण है, जो अहिंसा जैसे अन्य औदार्थों के लिए भी हमें सहजतः प्रेरित करता है । मनुष्य सब प्राणियों के प्रति बन्धुत्व और स्नेह का नाता रखे, उनके प्रति हितैषिता का भाव हो - मानवता के लिए यह एक अनिवार्य तत्त्व है । क्षमा एक ऐसा गुण है जिसे अपना लेने पर वह मनुष्य अपने लिए किसी व्यक्ति को शत्रुरूप में स्वीकार कर ही नहीं पाता । हमारे प्रति किये गये अपकारों से तटस्थ होकर हम अपने अपराधियों को क्षमा कर दें, उनके साथ वैमनस्य के भाव को विस्मृत कर दें - इसी में हमारी समग्र मानवता के दर्शन होंगे। हमारे हितैषियों के प्रति हम भी हितैषी रहें-- इसमें कोई विशेषता नहीं हैं । जैन संस्कृति तो हमें जिस अद्भुत गौरव से मन्डित करना चाहती है, वह हमारे इस गुण में निवास करता है कि हम समत्व से सम्पन्न होकर शत्र - मित्र का भेद करना भूल जायें। सभी को हम मित्र मानें और सभी के लिए हमारे मन में हितैषिता का भाव हो । हमारा मन इस प्रकार रोष, प्रति कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न ग्रन्थ ५६५ www.janorary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gil शोध, हिसादि विकारों से सुरक्षित हो जाता है। निश्चित ही जन संस्कृति एक महान संस्कृति दूसरे पक्ष को भी जब कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती, है और उसकी उपलब्धियाँ मानव समाज को श्रेष्ठ तो उसकी दुष्प्रवृत्तियाँ दुर्बल हो जाती हैं, उसके स्वरूप प्रदान करने में कम नहीं हैं। मानवाकृति मन में प्रायश्चित्त का भाव उदित होता है, उसका का देह धारण करने वाले प्राणी को सच्ची मनुसंशोधन आरम्भ हो जाता है। क्षमाशीलता का ष्यता के सद्गुणों से मनुष्य बना देने की भूमिका ऐसा अद्भुत प्रभाव है और इस प्रभाव का उपयोग में श्रमण संस्कृति को अनुपम सफलता मिली है / करते हुए श्रमण संस्कृति मानव मात्र को मैत्री, श्रमण संस्कृति भी अन्य संस्कृतियों की ही भाँति / बन्धुत्व, साहचर्य और सहानुभूति की उदात्तता से विकासमान रही है। युगीन परिस्थितियों के अनुविभूषित करती है। रूप इसमें परिवर्तन होते ही रहे हैं और आगे भी ___'जीओ और जीने दो'--मनुष्य के लिए एक होते रहेंगे। इन परिवर्तनों के प्रभाव दो रूपों में सुन्दर आदर्श है, किन्तु जैन सांस्कृतिक दृष्टि इसमें प्रकट हो सकते हैं। एक तो यह कि संस्कृति के . किसी असाधारणता को नहीं देखती। 'जीने दो'- विद्यमान स्वरूप में कुछ नवीन शुभ पार्श्व जुड़ते का भाव यही है कि उसके जीने में किसी प्रकार रहें और उसकी गरिमा बढ़ती रहे / इस प्रकार तो। का व्यवधान प्रस्तुत न करो। यह निषेधमलक किसी भी संस्कृति की क्षमता और मूल्य में अभिनिर्देश भी प्रशसनीय अवश्य है, किन्तु यह अपूर्ण वृद्धि ही होती है। किन्तु परिवर्तन का जो दूसरा भी है। केवल बाधा न डालने मात्र से ही दूसरों के रूप संभावित है, उसके प्रति भी हमें सावधान 4 जीने में हम सहायक नहीं हो सकते। हमारा कर्तव्य रहना चाहिये। समय स्वयं सभी वस्तुओं और तो यह भी है कि दूसरों के जीवन को हम सगम विचारो को परिवर्तित करता रहता है। उच्च-भव्य बना दें, दूसरों को जीने के लिए हम सहायता भी प्रासाद समय द्वारा ही खण्डहर कर दिये जाते हैं। करें / मनुष्य के समुदाय में रहने की इतनी उपादे- समय जहाँ कच्चे फलों को पकाकर सरस और यता तो होनी ही चाहिये / जनसेवा और मानव- सुस्वातु बना देता है, वहाँ यही समय उन फलों को मैत्री के इन पुनीत आदर्शों के कारण जैन संस्कृति दूषित और विकृत भी कर देता है। फल सड़-गल४ के गौरव में अभिवद्धि हुई है। भगवान महावीर का जाते हैं। समय व्यतीत होते रहने के साथ ही यह सन्देश भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि कलियाँ खिलकर शुरम्य पुष्प हो जाती हैं और यह H मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन-दुखियों की सेवा समय पुष्पों को रूपहीन और अनाकर्षक भी बना # || करना अधिक श्रेयस्कर है। मेरी भक्ति करने देता है। समय ने हो श्रमण संस्कृति को इतना वालों पर, माला फेरने वालों पर मैं प्रसन्न नहीं उदात्त और इतना महान स्वरूप प्रदान किया है। हूँ। मैं तो प्रसन्न उन लोगों पर हैं, जो मेरे आदेश अब हमारे सामने एक गुरुतर दायित्व है / हमें का पालन करते हैं / और मेरा आदेश यह है कि प्रयत्नपूर्वक इस संस्कृति की श्रीवृद्धि करनी होगी ! प्राणिमात्र को साता समाधि पहँचाओ। () (C) 20 566 कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ PORNatoopersonalitice-Only