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संस्कृति मनुष्यों को ही यह गौरव प्रदान करती है कि वह अपने कल्याण की क्षमता स्वयं ही रखता है । मनुष्य को यह संस्कृति आत्म- गौरव से दीप्त और स्वावलम्बी बनाती है । उसे पुरुषार्थी बनाती है, ईश्वराधीन शिथिल और श्लथ नहीं बनाती । यह मनुष्य को किसी के चरणों का दास और दीन हीन बनने की प्रेरणा नहीं देती। विशेषता यह भी है कि इस पुरुषार्थं का प्रयोग आत्म - विकास के लिए सुझाया गया है । आत्मा के उत्कर्ष के लिए राग-द्वेषादि सर्व कषायों का शमन अमोघ उपाय ' के रूप में श्रमण संस्कृति ने ही सुझाया है। श्रम को सार्थक बनाने के लिए इस प्रकार 'शर्मा' अभिप्रेत रहता है । सम का सन्देश भी समत्व के रूप में श्रमण संस्कृति द्वारा ही प्रदान किया गया है । यह तात्पर्य भी इस संस्कृति को अत्युच्चासन पर अवस्थित करता है । व्यक्ति अन्य सभी प्राणियों को आत्मवत् ही स्वीकार करे यह समत्व है । मनुष्य यह अनुभव करे कि जैसा में हैं वैसे ही अन्य सभी हैं । जिन कारणों से मुझे सुख अथवा दुःख का अनुभव होता है, वैसा ही अन्य प्राणियों के साथ ही घटित होता है। इस आधार के सहारे मनुष्य के मन में यह संस्कृति दूसरों के प्रति ऐसे व्यवहार की प्रेरणा जगाती है, जैसा व्यवहार वह दूसरों द्वारा अपने प्रति चाहता है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी को अपने समान समझने के कारण मनुष्य स्वयं को अन्यों से उच्च समझने के दर्प से भी बच जाता है और अन्यों से निम्न समझने के होनत्व से भी बच जाता है । उसके लिए सभी समान हैं-न कोई उच्च है न नीच । वर्गविहीन समाजनिर्माण की दिशा में ऐसी संस्कृति की महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इसी प्रकार समभाव व्यक्ति में अहिंसा का व्यापक भाव भी सक्रिय कर देता है । यह संस्कृति मनुष्य को सिखाती है कि उसे किसी के प्राणापहरण का कोई अधिकार नहीं है । किसी के मन को कष्ट पहुँचाना भी उसके लिए उपयुक्त नहीं । व्यक्ति इसी प्रकार तो सभी की सुख-शान्ति के लिए सचेष्ट रहता हुआ जी सकता है | श्रमण
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संस्कृति मनुष्य के जीवन को ऐसा सार्थक रूप देने का महान कार्य भी सम्पादित करती है ।
अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है । मन, वचन और काया से किसी जीव का घात न करना अहिंसा के माध्यम से हमें जैन संस्कृति ने ही सिखाया है । यह तो यहाँ तक निर्देश करती है कि स्वयं किसी का प्राणघात करना मात्र ही नहीं, अपितु दूसरों को ऐसा करने की प्रेरणा देना, उसे सहायता देना भी हिंसा है । यह भी अनुपयुक्त है । यही क्यों, किसी हिंसा का समर्थन करना भी हिंसा ही है । यह संस्कृति हिंसा के रंचमात्र प्रभाव को भी निंद्य मानती है । मन में किसी का अहित सोचना, वचन से किसी के मन को ठेस पहुँचाने जैसे कर्म भी हिंसा की परिधि में ले आने वाली यह जैन संस्कृति वस्तुतः मनुष्य को देवत्व - सम्पन्न बनाने में सर्वथा सक्षम है । क्या यह संस्कृति मनुष्य को प्राणघात न करने आदि जैसे निषेधात्मक निर्देश ही देती है ? नहीं, ऐसा नहीं है । यह तो मनुष्य को संकटापन्न प्राणियों की रक्षा करने की संस्कृति के लिए एक गौरवपूर्ण तत्व है । प्रेरणा भी देती है । विधि-निषेधयुक्त अहिंसा जैन
अनेकान्त दृष्टि भी जैन संस्कृति की अत्यन्त उपयोगी देन है । समाज में अनेक विचारधाराओं का अस्तित्व अति स्वाभाविक है और विभिन्न विचारधाराओं के अनुयायी अपने ही पक्ष में श्रेष्ठता का अनुभव करें - यह भी बहुत स्वाभा विक है । ऐसी स्थिति में एक मत वाले अन्य मतों को हीन दृष्टि से देखने लगते हैं, उनकी वे निन्दा करते हैं और उनके दोषों को उजागर करने से उन्हें संतोष का अनुभव होता है । इसी प्रकार वे अपने मत के प्रति श्रेष्ठ जनधारणा का निर्माण करना चाहते हैं । यह सारी की सारी प्रवृत्ति दूषित और घातक हो जाती है। इस प्रवृत्ति से ऐक्य खण्डित हो जाता है और समाज अनेक वर्गों में विभक्त हो जाता है। इन विभिन्न वर्गों के बीच भीषण संघर्ष की स्थिति रहती है । परिणामतः
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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मन
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