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अभिलाषाओं के ज्वार में उसका चित्त डूबकर दम
वातावरण का अनुभव करने लगता है । असन्तुष्ट होकर ऐसा व्यक्ति दौड़-धूप में ऐसा व्यस्त हो जाता है कि सारे सुख उससे छिन जाते हैं । वह सम्पन्न दुखी होकर रह जाता है । फिर लोभ, अधिक से अधिक प्राप्त करने की आकांक्षा उससे कुछ भी करवा सकती है । अहिंसा के मार्ग से वह च्युत हो जाता है, वह घोर अनादर्शों और अनीतियों के विकट वन में आँधियों की भाँति हहराता ही रह जाता है । और इस प्रकार वह अपना और अन्यों का जीना दूभर कर बैठता है । ऐसी स्थिति में जैन संस्कृति अपरिग्रह के सन्देश द्वारा कितना उपकार करती है ।
जैन संस्कृति कर्म सिद्धान्त की प्रतिष्ठा कर यह व्याख्या भी करती है कि मनुष्य को अपने कर्मों के फल अवश्य मिलते हैं । और यह प्रतिपादन भी इस संस्कृति द्वारा भलीभाँति हो जाता है कि फल सदा कर्मानुसार ही होता है। शुभकर्मों के फल सदा शुभ
होंगे और अशुभकर्मों के फल कदापि शुभ नहीं होंगे । स्वभावतः मनुष्य शुभफलाकांक्षी हो होता है और यह संस्कृति उसे ऐसी दशा में शुभकर्मों के प्रति रुचिशील बना देती है । विश्व मानवता पर इस संस्कृति का यह उपकार कम नहीं कहा जा सकता है । यह संस्कृति मनुष्य को भाग्यवादी नहीं
देती है । यह तो यही सिखाती है कि मनुष्य स्वयं ही अपने भविष्य का निर्माता है । वह जैसा आज करेगा उसी के अनुरूप उसका कल होगा ! इस प्रकार यह संस्कृति मनुष्य को 'अजगर करे न चाकरी, पंछी करें न काम' जैसा बन जाने से बचा लेती है ।
मनुष्य को यह उद्यमी बनने की प्रेरणा देती है और इस आत्म-विश्वास से भी उसे सम्पन्न कर देती है कि वह कल क्या बनेगा - यह स्वयं उसी के हाथ को बात है । अपने भविष्य की रूपरेखा भी वह बना सकता है और उसे क्रियान्वित भी वह स्वयं ही कर सकता है। मनुष्य को इस
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सम्पदा से सम्पन्न करने का श्रेय जैन संस्कृति को ही मिलता है ।
करुणा- क्षमाशीलता का औदार्य जैन संस्कृति की अमूल्य देन है । मनुष्य की मनुष्यता का सार करुणाशीलता में जितना सन्निहित रहता है, उतना कदाचित् किसी अन्य मानवीय गुण में नहीं । प्राणी के कष्ट को देखकर जो द्रवित न हो जाय उस मनुष्य की मनुष्यता की सर्वांगता संदिग्ध ही कही जाएगी। दुखी जनों की सहायता हमारा परम कर्तव्य है और इस कर्तव्य के निर्वाह के लिए बाह्य आदेश या दबाव सफल नहीं हो सकता । इसके लिए तो अन्तःप्रेरणा ही सहायक रह सकती है । हम दूसरों के कष्ट निवारण में तभी सहायक हो सकते हैं जब उनके प्रति हमारे मन में सहानुभूति हो, करुणा हो । मानव मन में इस महती करुणा को अंकुरित और पल्लवित करने की अद्भुत क्षमता जैन संस्कृति में है । यह ऐसा गुण है, जो अहिंसा जैसे अन्य औदार्थों के लिए भी हमें सहजतः प्रेरित करता है । मनुष्य सब प्राणियों के प्रति बन्धुत्व और स्नेह का नाता रखे, उनके प्रति हितैषिता का भाव हो - मानवता के लिए यह एक अनिवार्य तत्त्व है ।
क्षमा एक ऐसा गुण है जिसे अपना लेने पर वह मनुष्य अपने लिए किसी व्यक्ति को शत्रुरूप में स्वीकार कर ही नहीं पाता । हमारे प्रति किये गये अपकारों से तटस्थ होकर हम अपने अपराधियों को क्षमा कर दें, उनके साथ वैमनस्य के भाव को विस्मृत कर दें - इसी में हमारी समग्र मानवता के दर्शन होंगे। हमारे हितैषियों के प्रति हम भी हितैषी रहें-- इसमें कोई विशेषता नहीं हैं । जैन संस्कृति तो हमें जिस अद्भुत गौरव से मन्डित करना चाहती है, वह हमारे इस गुण में निवास करता है कि हम समत्व से सम्पन्न होकर शत्र - मित्र का भेद करना भूल जायें। सभी को हम मित्र मानें और सभी के लिए हमारे मन में हितैषिता का भाव हो । हमारा मन इस प्रकार रोष, प्रति
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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