Book Title: Sarak Jati Aur Jain Dharm
Author(s): Tejmal Bothra
Publisher: Jain Dharm Pracharak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FEEDSEISESAEEDEEd सराक जाति और जैन धर्म लेखक 156. तेजमल बोथरा -०-श्री जैन पोरवाल पंच। जैन ज्ञान भंडार प्रकाशक मु० वाडीव (राज.) श्री जैन धर्म प्रचारक सभा ४८, गड़ियाहाट रोड, P.O. बालीगंज कलकत्ता दीपावली सं० १९६६ वि० ESSESSESH Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सराक जाति और जैनधर्म । यह जानकर हमें अपार हर्ष होना चाहिये कि इसी बङ्गाल, बिहार और उड़ीसामें एक ऐसी जाति निवास कर रही है जो प्रायः अपने निजी स्वरूप को भूल सी गई है। न हमलोगों को ही उसके सम्बन्धमें कुछ जानकारी थी किन्तु गवर्नमेण्ट द्वारा प्रकाशित सन्सस रिपोर्ट और डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्सने यह सुस्पष्ट कर दिया है कि इन प्रान्तोंम रहनेवाले “सराक” वस्तुतः जैन श्रावक हैं । इन लोगोंके गोत्र, रहन-सहन और आचार-विचार, देखकर केवल यह मालूम ही नहीं हो जाता वरन् दृढ़ निश्चय हो जाता है कि ये लोग जैन ही हैं। ये लोग मानभूम, वीरभूम; सिंहभूम, पुरूलिया, रांची, राजशाहो, वर्तमान, बांकुड़ा, मेदनीपुर आदि जिलों तथा उड़ीसाके कई एक जिलों में बसे हुए हैं। यद्यपि ये लोग प्रायः अपने वास्तविक स्वरूपको भूल से गये हैं, फिर भी अपने कुलाचारको लिये हुए कट्टर निरामिष भोजी हैं। धर्म कर्म के सम्बन्धमें वे अपने कुलाचार और भगवान पार्श्वनाथ के उपासक हैं। इससे अधिक ज्ञान नहीं रखते । न उनका किसो खास धर्म की ओर राग ही है। पर, हां, यह उनमें से प्रायः सभी अच्छी तरह जानते और मानते हैं कि उनके पूर्वज जैन थे। वे लोग शिखरगिरि की यात्रा करने जाया करते थे। यह देखने वाले वयोवृद्ध तो उनमें अब तक मौजूद हैं । उन लोगोंमें ऐसा बंधन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) था कि शिखरगिरिकी यात्रा कर चुकने के बाद फिर वे कृषि कार्य्य न करें। यही कारण हुआ कि उन्हें अपनी दरिद्रताके कारण उक्त नियम पालनेमें असमर्थ होने पर यात्रा त्याग करने को विवश होना पड़ा । इन लोगोंका धन्धा ( व्यवसाय ) वाणिज्य और कृषि कार्य्य था, पर अब केवल कृषि और कहीं कहीं कपड़े आदिका बुननेका काम ही इनकी जीविका निर्वाहका साधन रह गया है । ये लोग ई० सन्के पूर्व से ही मानभूम एवं सिंहभूम आदि जिलोंमें बसे हुए हैं और अपनी भलमनसियत के कारण प्रख्यात हैं। कर्नल डल्टन का कथन है— कि उनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं पाया गया जो जुल्मी साबित हुआ हो और आज भी वे इस बातका पूरा गर्व कर सकते हैं कि वे अपने और अपने सहवर्त्तियों के बीच बड़ी शांतिके साथ जीवन व्यतीत करते हैं । अब कहीं २ वे इस बात को भूलकर कि वे जैन ही हैं, कहीं अपना परिचय बौद्ध और कहीं हिन्दू कहकर देने लगे हैं । यहां तक कि कोई कोई तो अपने को शूद्र भी समझने लगे हैं । परन्तु निम्न उदाहरणों को देखने से इसमें तनिक भी संशय नहीं रह जाता है कि वे जैन ही हैं और सैकड़ों वर्षोंसे इस वातावरण ( जिसका जैन धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है ) में रहनेके कारण अपने का भूलने लगे हैं । सन् १९११ ई० के मानभूम जिलेके गजेटियर्स के पेज ५१ व ८३ में से सराक जाति सम्बन्धी विशेष उल्लेख में से पे० ५१ का कुछ अंश :--- Reference is made elsewhere to a peculiar people bearing the name of Sarak (variously Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) spelt) of whom the district still contains a considerable number. These people are obviously Jains by origin and their own traditions as well as those of their neighbours, the Bhumij, make them the descendent of a race which was in the district when the Bhumij arrived; their ancestors are also credited with building the temples at Para, Chharra, Bhoram and other places in these pre-Bhumij days. They are_now, and the credited with having always been, a peaceable race living on the best of the terms with the Bhumij. अर्थात् - इस जिलेमें एक ऐसी जाति निवास करती है जो सराक नामसे पुकारी जाती है और जिसकी संख्या यहां काफ़ी परिमाणमें है । यह निर्विवाद सिद्ध है कि ये ( सराक ) उत्पत्ति से जैन हैं । इनके कुलाचार से एवं इनके सहवर्ती भूमिजोंके परम्परागत प्रवादसे भी यह प्रमाणित होता हैं कि ये लोग उस जाति के वंशधर हैं जो भूमिजोंके आगमन से पूर्व ही यहां बसी हुई थी और जिन्होंने पारा, छरा, भोरम आदि स्थानोंमें भूमिज - काल से पूर्व ही जिन मन्दिर बनवाये थे । भूमिजों के साथ हेलमेल, उनका रहनसहन और सद्व्यवहार इस बातका द्योतक है कि ये लोग सदैव से ही और आज भी शान्ति प्रिय हैं । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ૪ ) इसी तरह सन् १९०८ ई० के पुरी गजेटियर्स के पेज ८५ में भी लिखा है : The Saraks are. an archaic Community of whom MR. Gait gives the following account in the Bengal Census report of 1901. The word Sarak is doubtless derived from Srawak, the Sanskrit words for "a hearer" amongst the Jains the term was used to indicate the laymen or persons who engaged in secular pursuits as distinguished from the jatis, the monks or ascetics; and it still survives as the name of a group which is rapidly becoming a regular caste of the usual type. The Buddhists used the same words to designate the second class of monks, who mainly occupied the monesteries; the highest class of Arhats usually lived solitary lives as hermits while the great majority of the Bhikshus or Lowest class of monks, led a vagrant life of mendicancy, only resorting to the monasteries in times of difficulty or distress. In course of time, the saraks appear to have taken to weaving as a means of livelihood and this is Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the occupation of the .Orissa Saraks, who are often known as Saraki tanti. There are four main settlements in Orissa, viz ; in the Tigiria and Barmba States, in the Banki thana' in Cuttack and in Pipli thana in Puri. The Puri saraks have lost all connection with the others and do not intermarry with them. Though they are not served by Brabmans, they call themselves Hindus. They have no traditions regarding their origin, but like other Saraks are strict vegetarians. The Suraks assemble once a year ( on the Magh Siiptami ) at the celebrated cave temples of Khandagiri to offer homage to the idols there and to confer on religious matters. ___ अर्थात्-सराक एक अति प्राचीन जातियोंमें से है जिसके सम्बन्धमें मि० गेट सन् १९०१ ई. की बङ्गाल सेन्सस रिपोर्टमें कहते हैं—“यह निश्चय है कि सराक शब्दकी उत्पत्ति श्रावक शब्दसे है जिसका अर्थ संस्कृत भाषामें "सुननेवाला" होता है जैनोंमें श्रावक उनको कहते हैं जो यति व मुनियों से भिन्न हैं, अर्थात् गृहस्थ हैं। यहां बहुत से सराक बसे हुए हैं। समय पाकर ये लोग अपनी जीविका निर्वाहके लिये कपड़े आदि बुनने लगे हैं और अब ये सराकी तांती कहलाते हैं। खासकर ये लोग यहां ( उड़ीसा ) ताइगिरिया राज्य, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटक का बंकी थाना और पुरीके पिपली थानेमें बसे हुए हैं। ये लोग भी अन्यान्य सराकोंकी तरह कट्टर शाकाहारी हैं। प्रति वर्ष माघी सप्तमीके दिन ये लोग खण्डगिरिको गुफाओंमें जाकर वहां की (जैन ) मूर्तियों की पूजा स्तवना करते हैं।" - और भी बङ्गाल सेन्सस रिपोर्ट (नं० ४५७ ) के पेज २०६ में लिखा है-"प्राचीन कालमें पार्श्वनाथ पहाड़के निकटस्थ प्रदेशोंमें जैनियोंकी काफी वस्ती थी; मानभूम और सिंहभम तो इन लोगोंके खास निवास स्थान थे। जैनियोंके कथनानुसार भी यह स्पष्ट है कि इन सब प्रान्तोंमें भगवान महावीरने विचरण किया था। वहां की जनश्रुति भी यही है कि प्राचीन कालमें इन स्थानोंमें सराकोंका राज्य था और उन लोगोंने कई जिन मन्दिर बनवाये थे। मानभूम में जैनियोंके कई प्राचीन स्मारक और सिंहभूममें कई तामेंकी खाने पाई गई हैं। ये लोग प्राचीन जैन श्रावक हैं और अब इनकी सन्तान सराक नामसे ख्यात हैं। .. उपर्युक्त रिपोर्टों के अतिरिक्त भी कई निम्न लिखित ऐसे प्रमाण हैं जिनसे यह निःशंसय कहा जा सकता है कि ये लोग जैन संतान ही हैं। . (१) इनके गोत्रोंका आदिदेव, अनन्तदेव, धर्मदेव और काश्यप ( भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी का भी यही गोत्र था) आदि नामोंका होना । जैनेतर किसी भी जातिमें इन गोत्रों का होना असम्भव सा है। - (२) इनके ग्रामों तथा घरों में कहीं २ अब भी जिन मूर्तियों का पाया जाना और इनका उन्हें भगवान पार्श्वनाथके रूपमें पूजना। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) (३) मानभूम जिलेके पाकवीर, पञ्चग्राम, वोरम, छरा, तेलकूपी और वेळोखा आदि ग्रामोंमें; बाकुड़ा जिलेके बहुलारा ग्राममें और वर्द्धमान जिलेके कटवा ताल्लुके के उज्जयिनी ग्राम के निकट जिन मूर्त्तियों का पाया जाना । ( ४ ) वेलोजा ( कातरासगढ़ ) जैन मन्दिरों के एक शिला लेखमें- “चिचितागार आउर श्रावकी रक्षा वंशीपरा" का लिखा होना जिसका अर्थ यह है कि ये सब चैत्यागार एवं जिनमन्दिर श्रावक वंशजोंके तत्वावधान में रहे । (५) इन लोगोंका कट्टर निरामिष भोजी होना-यहां तक कि अनन्त काय - जमीकन्दादि फलों से परहेज करना । जिसके सम्बन्धमें एक कहावत भी प्रचलित है । 'डोह डुमुर पोड़ा छाती, यह नहीं खाय सराक जाति' अर्थात् सराक लोग इन चीजोंको नहीं खाते ( जैनतर किसी भी जातिमें फल विशेष से परहेज नहीं पाया जाता ) (६) कहीं २ यहां तक पाया जाना कि उनके भोजन करते समय यदि कोई “काटो" शब्द का उच्चारण करले तो वे भोजन तक करना छोड़ देते हैं । ( ७ ) इनका रात्रि भोजनको बुरा मानना । कई एक करते तक नहीं । (८) पुरी जिलेके सराकों की माघ सप्तमी के दिन खण्डगिरि की गुफाओंमें जाकर वहां की मूर्तियों के सन्मुख निम्न भजन का बोलना । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) তুমি দেখ হে জিনেন্দ্ৰ, দেখিলে পাতক পলায়, প্রফুল্ল হল কায়। সিংহাসন ছত্র আছে, চামর আছে কোটা ৷ দিব্য দেহ কেমন আছে, কিবা শোভায় কোটা ৷ তুমি দেখ হে......... ক্ৰোধ, মান, মায়া, লোভ মধ্যে কিছু নাহি । রাগ, দ্বেষ, মোহ নাহি, এমন গোসাঞি ॥ তুমি........... কেমন শান্ত মূৰ্ত্তি বটে, বলে সকল ভায়া । ........... কেবলীর মুদ্রা এখম, সাখাৎ দেখায় ॥ তুমি..... আর ( অপর ) দেবের সেবা হতে, সংসার বাড়ায় । পাশ্বনাথ দর্শন হতে, মুক্তি পদ পায় । তুমি...... उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये लोग ( सराक ) जैन सन्तान ही हैं । पर यह सब होते हुए भी सैकड़ों वर्षोंसे इनका ऐसे देश और जाति के साथ निवास करना कि जिसका जैन धर्म से सम्बन्ध छूटे, शताब्दियांकी शताब्दियां बीत गई और जहां हिंसा का साम्राज्य सा छाया हुआ है. जहां न साधु समागम ही रहा है. जहां उदर पूर्त्तिकी समस्या के सिवाय धर्मादि विषयों पर कोई चर्चा ही नहीं, वहां यदि ये अपने वास्तविक परिचयको भूलन लगें तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? फिर भी यह जैन धर्मकी छाप का ही प्रभाव है कि आज भी ये लोग अपने कुलाचारको लिये हुए हैं। पर यदि हम लोग अब भी उस ओर से बिलकुल उदासीन ही रहें, उनकी ओर अपने कर्त्तव्यका कुछ भी खयाल न किया तो सम्भव है कि ये अपनी रही सही यादगारीको भी भूल जांय । लिखते बड़ा ही दुःख होता है कि जहां दुनिया की सारी जातियां अपने २ उत्थानके उद्योगमें तीव्र गतिसे काम कर रही हैं, वहां हमारा जैन समाज (जाति) कानमें तेल डाले प्रगाढ निद्रामें सोया हुआ है। अब भी समय है कि हम चेत जांय नहीं तो जैसे हम थोड़े Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) ही कालमें एक करोड़से घटकर केवल १२ लक्ष ही रह गये हैं, वे भी न रह सकेंगे । हमारे लिये यह सुवर्ण अवसर है कि हम अपने आदि जैन ( सराक ) बन्धुओंको पुनः उनके वास्तविक स्वरूपमें लाकर थोड़े ही उद्योगसे १२ लक्ष से १३ लक्ष हो जायँ और उन्हें पथच्युत होनेसे भी बचा लें। यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात है कि श्रीमान् बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी, गणेशलालजी नाहटा एवं अन्यान्य कई एक महानुभावोंका ध्यान इसमहत कार्यकी ओर आकर्षित हुआ है और उनकी प्रेरणासे हमारे परमपूज्य न्याय-विशारद, न्याय-तीर्थ, उपाध्याय श्रीमङ्गलविजयजी महाराज एवं उनके शिष्यरत्नश्रीप्रभाकर विजयजी महाराज जी जान से इन (सराकों) में धर्म प्रचार कर रहे हैं। केवल इतना ही नहीं, कलकत्ता व झरियामें "श्री जैन धर्म प्रचारक सभा” नामक संस्थाएं भी प्रचार कार्य के लिये स्थापित की गई हैं और प्रचार कार्य में काफी सफलता भी प्राप्त हुई है। हमें भी चाहिए कि हम अपने तन, मन और धन से इस महान् काय्य में जुट जायँ । जहाँ संसार के प्राणी मात्र पर हमारी यह भावना होनी चाहिए कि “सवि जीव करु शासन रसी” वहां यदि हम इन सुलभ बोधी भाइयों ( जो चाहते हैं कि हम उन्हें अपनाले) का भी उद्धार न कर सकें, इससे बढ़कर हमारे लिए शर्म और लेद की बार क्या हो सकती है ? हमारे सामने यह एक ही ऐसा महान कार्य है कि जिसमें हमारा प्रधान से प्रधान कर्त्तव्य और जिन शासन की महती सेवा समाई हुई है। अतः मैं अपने पूज्य धर्माचार्य मुनि महाराज और सहधर्मी बन्धुओं से यही विनम्र प्रार्थना करूंगा कि वे इन बिछुड़े हुए भाइयों को उनके वास्तविक स्वरूपमें लाकर महान् से महान् पुण्य के भागी बनें और संसारके इतिहास में अपने नाम को स्वर्णाक्षरोंमें लिखाकर अपनी कोर्ति को अमर कर जायें । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु समाठीन जाति सम्बन्धी विस्तृत साहित्य में से प्राप्त पुस्तकों और पत्रों का विवरण : - Reference to the 'Sarak' or 'Sarawak' can be had in the following books and Journals : 1. A Statistical Account of Bengal Vo. XVII (Tributary States & Manbhum) by W. W. Hunter. Published in London 1877. See Pages 291, 293 and 301-2. 2. Archæological Survey of India Reports Vol VIII Bengal Province by Cunningham 1878. See Tour through the Bengal Province in 1872-73 by J. D. Begler. 3. Journal of Asiatic Society of Bengal Vol XXXV 1866. Part I. Page 186. Notes on a tour in Manbhum iu 1864-65 by Lieutenant Colonel E. T. Dalton Chief Commissioner of Chota Nagpur. Do Para II. Page 164. 4. Proceedings of the Asiatic Society for June 1869 Page 170. On the Ancient Copper Miners of Singhbum. by V. Ball Geological Survey of India. 5. The people of India by Sir Herbert Risley K. C. I. E, C. I. E. 1908 Page 77. Bengal District Gazetteer 1911. Vo. XXVII-Manbhum Pages 48-52, 83-85 and 263-289. 7. Bengal District Gazetteer 1910 Vo. XX. Singhbhum Page 25. Puri (Orissa) Gazetteer 1908. 6. 8. 9. Tribes & Castes of Bengal by H. M. Risley Vol II Ethnographic Glossery 1891. Gait's Census Reports of 1911. No. 455 pages 209 No. 457 10. 11. Ethnology of Bengal by Dalton. 12. Archæological Survey 1911 by Nagendra Nath Basu. 13. Asiatic Researches Vol IX by Prof. Wilson. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-मदद भेजनेका पता ट्रेजरर शेठ केशवजो नेमचंद 48, इजरा ष्ट्रीट, कलकत्ता। २-पत्र व्यवहार बाबू बहादुर सिंहजी सिंघी प्रेसीडेन्ट श्री जैन धर्म प्रचारक सभा, 48, गड़ियाहाट रोड, P.O. बालागज, कलकत्ता। नवयुवक प्रेस, 3 नं० कमर्सियल विल्डिग्स, कलकत्ता /