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समाजको बदलो
'बदलना' प्रेरक क्रिया है, जिसका अर्थ है - बदल डालना | प्रेरक क्रियामें प्रेरक क्रियाका भाव भी समा जाता है; इसलिए उसमें स्वयं बदलना और दूसरेको बदलना ये दोनों अर्थ श्रा जाते हैं । यह केवल व्याकरण या शब्दशास्त्रकी युक्ति ही नहीं है, इसमें जीवनका एक जीवित सत्य भी निहित है । इसी से ऐसा अर्थविस्तार उपयुक्त मालूम होता है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्रमें अनुभव होता है कि जो काम औरोंसे कराना हो और ठीक तरहसे कराना हो, व्यक्ति उसे पहले स्वयं करे । दूसरोंको सिखानेका इच्छुक स्वयं इच्छित विषयका शिक्षण लेकर - उसमें पारंगत या कुशल होकर ही दूसरोंको सिखा सकता है | जिस विषयका ज्ञान ही नहीं, अच्छा और उत्तम शिक्षक भी वह विषय दूसरे को नहीं सिखा सकता । जो स्वयं मैला-कुचैला हो, अंग अंग में मैल भरे हो, वह दूसरोंको नहलाने जाएगा, तो उनको स्वच्छ करनेके बदले उनपर अपना मैल ही लगाएगा । यदि दूसरेको स्वच्छ करना है तो पहले स्वयं स्वच्छ होना चाहिए । यद्यपि कभी-कभी सही शिक्षण पाया हुआ व्यक्ति भी दूसरेको निश्चयके मुताबिक नहीं सिखा पाता, तो भी सिखाने की या शुद्ध करनेकी क्रिया बिलकुल बेकार नहीं जाती, क्योंकि इस क्रियाका जो आचरण करता है, वह स्वयं तो लाभमें रहता ही है, पर उस लाभ के बीज जल्द या देरसे, दिखाई दें या न दें, आस-पास के वातावरण में भी अंकुरित हो जाते हैं ।
स्वयं तैयार हुए, बिना दूसरेको तैयार नहीं किया जा सकता, यह सिद्धान्त सत्य तो है ही, इसमें और भी कई रहस्य छिपे हुए हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है | हमारे सामने समाजको बदल डालनेका प्रश्न है । जब कोई व्यक्ति समाजको बदलना चाहता है और समाज के सामने शुद्ध मनसे कहता है -- 'बदल जाश्रो, ' तब उसे समाजको यह तो बताना ही होगा कि तुम कैसे हो, और कैसा होना चाहिए । इस समय तुम्हारे भुक अमुक संस्कार हैं, अमुक-अमुक व्यवहार हैं, उन्हें छोड़कर अमुक-अमुक संस्कार और अमुक अमुक रीतियाँ धारण करो । यहाँ देखना यह है कि समझनेवाला व्यक्ति जो कुछ कहना चाहता है, उसमें उसकी कितनी लगन है, उसके बारे में कितना जानता है, उसे उस वस्तुका कितना रंग लगा है, प्रतिकूल संयोगों में भी वह उस संबन्ध में कहाँतक टिका रहा है और उसकी समझ कितनी गहरी है। इन बातोंकी छाप समाजपर
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पहले पड़ती है । सारे नहीं तो थोडेसे भी लोग जब समझते हैं कि कहनेवाला व्यक्ति सच्ची ही बात कहता है और उसका परिणाम उसपर दीखता भी है, तब उनकी वृत्ति बदलती है और उनके मन में सुधारकके प्रति अनादरकी जगह आदर प्रकट होता है । भले ही वे लोग सुधारक के कहे अनुसार चल न सकेँ, तो भी उसके कथन के प्रति आदर तो रखने ही लगते हैं ।
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श्रौरों से कहने के पहले स्वयं बदल जानेमें एक लाभ यह भी है कि दूसरों को सुधारने यानी समाजको बदल डालने के तरीकेकी अनेक चाबियाँ मिल जाती हैं । उसे अपने आपको बदलनेमें जो कठिनाइयाँ महसूस होती हैं, उनका निवारण करने में जो ऊहापोह होता है, और जो मार्ग ढूँढ़े जाते हैं, उनसे वह औरोंकी कठिनाइयाँ भी सहज ही समझ लेता है । उनके निवारण के नए-नए मार्ग भी उसे यथाप्रसंग सूझने लगते हैं । इसलिए समाजको बदलनेकी बात कहनेवाले सुधारकको पहले स्वयं दृष्टांत बनना चाहिए कि जीवन बदलना जो कुछ है, वह यह है | कहने की अपेक्षा देखनेका असर कुछ और होता है और गहरा भी होता है । इस वस्तुको हम सभीने गाँधीजी के जीवन में देखा है । न देखा होता तो शायद बुद्ध और महावीरके जीवन परिवर्तन के मार्गके विषय में भी संदेह बना रहता |
इस जगह मैं दो-तीन ऐसे व्यक्तियोंका परिचय दूँगा जो समाजको बदल डालने का बीड़ा लेकर ही चले हैं । समाजको कैसे बदला जाए इसकी प्रतीति वे अपने उदाहरण से ही करा रहे हैं। गुजरातके मूक कार्यकर्त्ता रविशंकर महाराजको - जो शुरूसे ही गाँधीजी के साथी ओर सेवक रहे हैं, ― चोरी और खून करनेमें ही भरोसा रखनेवाली और उसीमें पुरुषार्थ समझनेवाली 'बारैया' जातिको सुधारनेकी लगन लगी । उन्होंने अपना जीवन इस जातिके बीच ऐसा श्रोतप्रोत कर लिया और अपनी जीवन पद्धतिको इस प्रकार परिवर्तित किया कि धीरे-धीरे यह जाति आप ही आप बदलने लगी, खूनके गुनाह खुद-ब-खुद कबूल करने लगी और अपने अपराधके लिए सजा भोगनेमें भी गौरव मानने लगी । आखिरकर यह सारी जाति परिवर्तित हो गई ।
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रविशंकर महाराजने हाईस्कूल तक भी शिक्षा नहीं पाई, तो भी उनकी वाणी बड़े-बड़े प्रोफेसरों तकपर असर करती है । विद्यार्थी उनके पीछे पागल बन जाते हैं । जब वे बोलते हैं तब सुननेवाला समझता है कि महाराज जो कुछ कहते हैं, वह सत्य और अनुभवसिद्ध है। केन्द्र या प्रान्तके मन्त्रियों तक पर उनका जादू जैसा प्रभाव है । वे जिस क्षेत्र में कामका बीड़ा उठाते हैं, उसमें बसनेवाले उनके रहन-सहन से मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं—क्योंकि उन्होंने
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पहले अपने आपको तैयार किया है--बदला है, और बदलनेके रास्तोंका — भेदों का अनुभव किया है । इसीसे उनकी वाणीका असर पड़ता है । उनके विषय में कवि और साहित्यकार स्व० मेघाणीने 'माणसाईना दीवा' ( मानवता के दीप ) नामक परिचय पुस्तक लिखी है। एक और दूसरी पुस्तक श्री बलभाई मेहताकी लिखी हुई है ।
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दूसरे व्यक्ति हैं सन्त बाख, जो स्थानकवासी जैन साधु हैं । वे मुँहपर मुँहपत्ती, हाथमें रजोहरण श्रादिका साधु-वेष रखते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि बहुत ही आगे बढ़ी हुई है । वेष और पन्थके बाड़ों को छोड़कर वे किसी अनोखी दुनिया में विहार करते । इसीसे आज शिक्षित और अशिक्षित, सरकारी या गैरसरकारी, हिन्दू या मुसलमान स्त्री-पुरुष उनके वचन मान लेते हैं । विशेष रूपसे 'भालकी पट्टी' नामक प्रदेश में समाज सुधारका कार्य वे लगभग बारह वर्षोंसे कर रहे हैं । उस प्रदेश में दो सौसे अधिक छोटे-मोटे गाँव हैं । वहाँ उन्होंने समाजको बदलनेके लिए जिस धर्म और नीतिकी नींवपर सेवाकी इमारत शुरू की है, वह ऐसी वस्तु है कि उसे देखनेवाले और जाननेवालेको आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता । मन्त्री, कलेक्टर, कमिश्नर आदि सभी कोई अपना-अपना काम लेकर सन्त बालके पास जाते हैं और उनकी सलाह लेते हैं। देखने में सन्तबालने किसी पन्थ, वेष या बाह्य श्राचारका परिवर्तन नहीं किया परन्तु मौलिक रूपमें उन्होंने ऐसी प्रवृत्ति शुरू की है कि वह उनकी श्रात्मामें अधिवास करनेवाले धर्म और नीति- तत्त्वका साक्षात्कार कराती है और उनके समाजको सुधारने या बदलनेके दृष्टिबिन्दुको स्पष्ट करती हैं। उनकी प्रवृत्ति में जीवन क्षेत्रको छूनेवाले समस्त विषय या जाते हैं । समाजकी सारी काया ही कैसे बदली जाए और उसके जीवन में स्वास्थ्यका, स्वावलम्बनका वसन्त किस प्रकार प्रकट हो, इसका पदार्थ-प -पाठ वे जैन साधुकी रीतिसे गाँव-गाँव घूमकर, सारे प्रश्नों में सीधा भाग लेकर लोगोंको दे रहे हैं । इनकी विचारधारा जानने के लिए इनका 'विश्व वात्सल्य' नामक पत्र उपयोगी है और विशेष जानकारी चाहनेवालों को तो उनके सम्पर्क में ही खाना चाहिए ।
तीसरे भाई मुसलमान हैं। उनका नाम है अकबर भाई। उन्होंने भी, अनेक वर्ष हुए, ऐसी ही तपस्या शुरू की है । बनास तटके सम्पूर्ण प्रदेश में उनकी प्रवृत्ति विख्यात है । वहाँ चोरी और खून करनेवाली कोली तथा ठाकुरोकी जातियाँ सैकड़ों वर्षोंसे प्रसिद्ध हैं । उनका रोजगार ही मानों यही हो गया है । अकबर भाई इन जातियों में नव चेतना लाए हैं । उच्चवर्णके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भी जो कि अस्पृश्यता मानते चले आए हैं और दलित वर्गको
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दबाते आए हैं, अकबर भाईको श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते हैं। यह जानते हुए भी कि अकबर भाई मुसलमान हैं, कट्टर हिन्दू तक उनका श्रादर करते हैं । सय उन्हें 'नन्हें बापू' कहते हैं । अकबर भाईकी समाजको सुधारनेकी सूझ भी ऐसी अच्छी और तीव्र है कि वे जो कुछ कहते हैं या सूचना देते हैं, उसमें न्यायकी ही प्रतीति होती है । इस प्रदेशकी अशिक्षित और असंस्कारी जातियोंके हजारों लोग इशारा पाते ही उनके इर्द-गिर्द जमा हो जाते हैं और उनकी बात सुनते हैं। अकबर भाईने गाँधीजीके पास रह कर अपने आपको बदल डाला हैसमझपूर्वक और विचारपूर्वक । गाँवोंमें और गाँवोंके प्रश्नोंमें उन्होंने अपने श्रापको रमा दिया है।
ऊपर जिन तीन व्यक्तियोंका उल्लेख किया गया है, वह केवल यह सूचित करनेके लिए कि यदि समाजको बदलना हो और निश्चित रूपसे नए सिरेसे गढ़ना हो, तो ऐसा मनोरथ रखनेवाले सुधारकोंको सबसे पहले अपने आपको बदलना चाहिए। यह तो श्रात्म-सुधारकी बात हुई । अब यह भी देखना चाहिए कि युग कैसा श्राया है। हम जैसे हैं, वैसे के वैसे रहकर अथवा परिवर्तनके कुछ पैबन्द लगाकर नये युगमें नहीं जी सकते । इस युगमें जीनेके लिए इच्छा और समझपूर्वक नहीं तो आखिर धक्के खाकर भी हमें बदलना पड़ेगा।
समाज और सुधारक दोनोंकी दृष्टि के बीच केवल इतना ही अन्तर है कि रूदिगामी समाज नवयुगकी नवीन शक्तियोंके साथ घिसटता हुया भी उचित परिवर्तन नहीं कर सकता, ज्योंका त्यों उन्हीं रूढ़ियों से चिपटा रहता है और सम. झता है कि श्राजतक काम चला है तो अब क्यों नहीं चलेगा? फिर अज्ञानसे या समझते हुए भी रूढ़िके बन्धनवश सुधार करते हुए लोकनिन्दासे डरता है, जब कि सच्चा सुधारक नए युगकी नई ताकतको शीघ्र परख लेता है और तदनुसार परिवर्तन कर लेता है । वह न लोक-निन्दाका भय करता है, न निर्बलतासे झुकता है। वह समझता है कि जैसे ऋतुके बदलनेपर कपड़ों में फेरफार करना पड़ता है अथवा वय बढ़नेपर नए कपड़े सिलाने पड़ते हैं, वैसे ही नई परिस्थितिमें सुखसे जीनेके लिए उचित परिवर्तन करना ही पड़ता है
और वह परिवर्तन कुदरतका या और किसी वस्तुका धक्का खाकर करना पड़े, इससे अच्छा तो यही है कि सचेत होकर पहलेसे ही समझदारीके साथ कर लिया जाए।
यह सब जानते हैं कि नये युगने हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्रमें पाँव जमा
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लिए हैं। जो पहले कन्या-शिक्षा नहीं चाहते थे, वे भी अब कन्याको थोड़ा बहुत पढ़ाते है। यदि थोड़ा-बहुत पढ़ाना जरूरी है तो फिर कन्याकी शक्ति देखकर उसे ज्यादा पढ़ाने में क्या नुकसान है ? जैसे शिक्षण के क्षेत्रमें वैसे ही अन्य मामलोंमें भी नया युग आया है। गाँवों या पुराने ढंगके शहरों में तो पर्देसे निभ जाता है, पर अब बम्बई, कलकत्ता या दिल्ली जेसे नगरों में निवास करना हो और वहाँ बन्द घरोंमें स्त्रियोंको पर्दमें रखनेका आग्रह किया जाए, तो स्त्रियाँ खुद ही पुरुषों के लिए भाररूप बन जाती हैं और सन्तति दिनपर दिन कायर और निर्वल होती जाती है।
विशेषकर तरुण जन विधवाके प्रति सहानुभूति रखते हैं, परन्तु जब विवाहका प्रश्न श्राता है तो लोक- निन्दासे डर जाते हैं। डरकर अनेक बार योग्य विधवाकी उपेक्षा करके किसी अयोग्य कन्याको स्वीकार कर लेते हैं और अपने हाथसे ही अपना संसार बिगाड़ लेते हैं। स्वावलम्बी जीवनका आदर्श न होनेसे तेजस्वी युवक भी अभिभावकोंकी सम्पत्तिके उत्तराधिकारके लोभसे, उनको राजी रखनेके लिए, रूदियोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके चक्रको चालू रखनेमें अपना जीवन गँवा देते हैं । इस तरहकी दुर्बलता रखनेवाले युवक क्या कर सकते हैं ? योग्य शक्ति प्राप्त करनेसे पूर्व ही जो कुटुम्ब-जीवनकी जिम्मेदारी ले लेते हैं, वे अपने साथ अपनी पत्नी और बच्चोंको भी खड्डे में डाल देते हैं। महँगी और तङ्गीके इस जमानेमें इस प्रकारका जीवन अन्तमें समाजपर बढ़ता इमा अनिष्ट भार ही है। पालन-पोषणकी, शिक्षा देनेकी और स्वावलम्बी होकर चलनेकी शक्ति न होनेपर भी जब मूढ़ पुरुष या मूढ़ दम्पति सन्ततिसे घर भर लेते हैं, तब वे नई सन्ततिसे केवल पहले की सन्ततिका नाश नहीं करते बल्कि स्वयं भी ऐसे फंस जाते हैं कि या तो मरते हैं या जीते हुए भी मुर्दो के समान जीवन बिताते हैं।
खान-पान और पहनावेके विषयमें भी अब पुराना युग बीत गया है । अनेक बीमारियों और अपचके कारणोंमें भोजनकी अवैज्ञानिक पद्धति भी एक है। पुराने जमाने में जब लोग शारीरिक मेहनत बहुत करते थे, तब गाँवोंमें जो पच जाता था, वह आज शहरोंके 'बैठकिए' जीवन में पचाया नहीं जा सकता । अन्न और दुष्पच मिठाइयोंका स्थान बनस्पतियोंको कुछ अधिक प्रमाणमें मिलना चाहिए। कपड़ेकी मँहगाई या तंगीकी हम शिकायत करते हैं परन्तु बचे हुए समयका उपयोग कातनेमें नहीं कर सकते और निठल्ले रहकर मिलमालिकों या सरकारको गालियाँ देते रहते हैं। कम कपड़ोंसे कैसे निभाव करना. सादे
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और मोटे कपड़ोंमें कैसे शोभित होना, यह हम थोड़ा भी समझ लें तो बहुत कुछ भार हलका हो जाए।
पुरुष पक्षमें यह कहा जा सकता है कि एक धोतीसे दो पाजामे तो बन ही सकते हैं और स्त्रियों के लिए यह कहा जा सकता है कि बारीक और कीमती कपड़ोंका मोह घटाया जाए । साइकिल, ट्राम, बस जैसे वाहनोंकी भाग-दौड़में, बरसात, तेज हवा या आँधीके समयमें और पुराने ढंगके रसोई-घरमें स्टोव श्रादि सुलगाते समय स्त्रियोंकी पुरानी प्रथाका पहनावा ( लहँगेसाड़ीका) प्रतिकूल पड़ता है। इसको छोड़कर नवयुगके अनुकूल पंजाबी स्त्रियों जैसा कोई पहनावा ( कमसे कम जब बैठा न रहना हो) स्वीकार करना चाहिए ।
धार्मिक एवं राजकीय विषयों में भी दृष्टि और जीवनको बदले बिना नहीं चल सकता । प्रत्येक समाज अपने पंथका वेश और आचरण धारण करनेवाले हर साधुको यहाँतक पूजता-पोषता है कि उससे एक बिलकुल निकम्मा, दूसरोंपर निर्भर रहनेवाला और समाजको अनेक बहमों में डाल रखनेवाला विशाल वर्ग तैयार होता है । उसके भारसे समाज स्वयं कुचला जाता है और अपने कन्धे. 'पर बैठनेवाले इस पंडित या गुरुवर्गको भी नीचे गिराता है।
धार्मिक संस्थामें किसी तरहका फेरफार नहीं हो सकता, इस झूठी धारणाके कारण उसमें लाभदायक सुधार भी नहीं हो सकते । पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तानसे जब हिन्दू भारतमें आए, तब वे अपने धर्मप्राण मन्दिरों और मूर्तियोंको इस तरह भूल गए मानो उनसे कोई संबन्ध ही न हो। उनका धर्म सुखी हालत का धर्म था। रूढ़िगामी श्रद्धालु समाज इतना भी विचार नहीं करता कि उसपर निर्भर रहनेवाले इतने विशाल गुरुवर्गका सारी जिन्दगी और सारे समयका उपयोगी कार्यक्रम क्या है ?
इस देशमै असाम्प्रदायिक राज्यतंत्र स्थापित है। इस लोकतंत्रमें सभीको अपने मत द्वारा भाग लेने का अधिकार मिला है। इस अधिकारका मूल्य कितना अधिक है, यह कितने लोग जानते हैं ? स्त्रियोंको तो क्या, पुरुषोंको भी अपने हकका ठीक-ठीक भान नहीं होता; फिर लोकतंत्रकी कमियाँ और शासनकी त्रुटियाँ किस तरह दूर हों ? ___जो गिने-चुने पैसेवाले हैं अथवा जिनकी आय पर्याप्त है, वे मोटरके पीछे जितने पागल हैं, उसका एक अंश भी पशु-पालन था उसके पोषणके पीछे नहीं। सभी जानते हैं कि समाज-जीवनका मुख्य स्तंभ दुधारू पशुओंका पालन
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और संवर्धन है । फिर भी हरेक धनी अपनी पूँजी मकान में, सोने-चाँदीमें, जवाहरात में या कारखाने में लगानेका प्रयत्न करता है परन्तु किसीको पशु संवर्धन द्वारा समाजहितका काम नहीं सूझता । खेतीकी तो इस तरह उपेक्षा हो रही है मानो वह कोई कसाईका काम हो, यद्यपि उसके फलकी राह हरेक श्रादमी देखता है ।
ऊपर निर्दिष्ट की हुई सामान्य बातोंके अतिरिक्त कई बातें ऐसी हैं जिन्हें सबसे पहले सुधारना चाहिए । उन विषयों में समाज जब तक बदले नहीं, पुरानी रूढ़ियाँ छोड़े नहीं, मानसिक संस्कार बदले नहीं, तब तक अन्य सुधार हो भी जाएँगे तो भी सबल समाजकी रचना नहीं हो सकेगी । ऐसी कई महत्वकी बातें ये हैं :
१ – हिन्दू धर्मकी पर्याय समझी जानेवाली ऊँच-नीचके भेदकी भावना, जिसके कारण उच्च कहानेवाले सवर्ण स्वयं भी गिरे हैं और दलित अधिक दलित बने हैं । इसीके कारण सारा हिन्दू-मानस मानवता - शून्य बन गया है ।
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२– पूँजीवाद या सत्तावादको ईश्वरीय अनुग्रह या पूर्वोपार्जित पुण्यका फल मान कर उसे महत्त्व देनेकी भ्रान्ति, जिसके कारण मनुष्य उचित रूपमें और निश्चिन्ततासे पुरुषार्थं नहीं कर सकता ।
३ -- लक्ष्मीको सर्वस्व मान लेनेकी दृष्टि, जिसके कारण मनुष्य अपने बुद्धि-बल या तेजकी बजाय खुशामद या गुलामीकी और अधिक कता है ।
४ - स्त्री - जीवन के योग्य मूल्यांकन में भ्रांति, जिसके कारण पुरुष और स्त्रियाँ स्वयं भी स्त्री-जीवन के पूर्ण विकास में बाधा डालती हैं ।
५ – क्रियाकांड और स्थूल प्रथाओं में धर्म मान बैठनेकी मूढ़ता, जिसके कारण समाज संस्कारी और बलवान बनने के बदले उल्टा अधिक संस्कारी और सच्चे धर्मसे दूर होता जाता है ।
समाजको बदलनेकी इच्छा रखनेवालेको सुधार के विषयोंका तारतम्य समझकर जिस बारे में सबसे अधिक जरूरत हो और जो सुधार मौलिक परिवर्तन ला सकें उन्हें जैसे भी बने सर्वप्रथम हाथमें लेना चाहिए और वह भी अपनी शक्तिके अनुसार | शक्तिसे परेकी चीजें एक साथ हाथमें लेनेसे सम्भव सुधार भी रुके रह जाते हैं ।
समाजको यदि बदलना हो तो उस विषयका सारा नक्शा अपनी दृष्टिके
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________________ सामने रखकर उसके पीछे ही लगे रहनेकी वृत्तिवाले उत्साही तरुण या तरुणियोंके लिए यह आवश्यक है कि वे प्रथम उस क्षेत्रमें ठोस काम करनेवाले अनुभवियों के पास रहकर कुछ समयतक तालीम लें और अपनी दृष्टि स्पष्ट और स्थिर बनाएं। इसके बिना प्रारम्भमें प्रकट हुश्रा उत्साह बीचमें ही मर जाता है या कम हो जाता है और रूढ़िगामी लोगोंको उपहास करनेका मौका मिलता है। फरवरी 1651] [ तरुण,