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पहले पड़ती है । सारे नहीं तो थोडेसे भी लोग जब समझते हैं कि कहनेवाला व्यक्ति सच्ची ही बात कहता है और उसका परिणाम उसपर दीखता भी है, तब उनकी वृत्ति बदलती है और उनके मन में सुधारकके प्रति अनादरकी जगह आदर प्रकट होता है । भले ही वे लोग सुधारक के कहे अनुसार चल न सकेँ, तो भी उसके कथन के प्रति आदर तो रखने ही लगते हैं ।
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श्रौरों से कहने के पहले स्वयं बदल जानेमें एक लाभ यह भी है कि दूसरों को सुधारने यानी समाजको बदल डालने के तरीकेकी अनेक चाबियाँ मिल जाती हैं । उसे अपने आपको बदलनेमें जो कठिनाइयाँ महसूस होती हैं, उनका निवारण करने में जो ऊहापोह होता है, और जो मार्ग ढूँढ़े जाते हैं, उनसे वह औरोंकी कठिनाइयाँ भी सहज ही समझ लेता है । उनके निवारण के नए-नए मार्ग भी उसे यथाप्रसंग सूझने लगते हैं । इसलिए समाजको बदलनेकी बात कहनेवाले सुधारकको पहले स्वयं दृष्टांत बनना चाहिए कि जीवन बदलना जो कुछ है, वह यह है | कहने की अपेक्षा देखनेका असर कुछ और होता है और गहरा भी होता है । इस वस्तुको हम सभीने गाँधीजी के जीवन में देखा है । न देखा होता तो शायद बुद्ध और महावीरके जीवन परिवर्तन के मार्गके विषय में भी संदेह बना रहता |
इस जगह मैं दो-तीन ऐसे व्यक्तियोंका परिचय दूँगा जो समाजको बदल डालने का बीड़ा लेकर ही चले हैं । समाजको कैसे बदला जाए इसकी प्रतीति वे अपने उदाहरण से ही करा रहे हैं। गुजरातके मूक कार्यकर्त्ता रविशंकर महाराजको - जो शुरूसे ही गाँधीजी के साथी ओर सेवक रहे हैं, ― चोरी और खून करनेमें ही भरोसा रखनेवाली और उसीमें पुरुषार्थ समझनेवाली 'बारैया' जातिको सुधारनेकी लगन लगी । उन्होंने अपना जीवन इस जातिके बीच ऐसा श्रोतप्रोत कर लिया और अपनी जीवन पद्धतिको इस प्रकार परिवर्तित किया कि धीरे-धीरे यह जाति आप ही आप बदलने लगी, खूनके गुनाह खुद-ब-खुद कबूल करने लगी और अपने अपराधके लिए सजा भोगनेमें भी गौरव मानने लगी । आखिरकर यह सारी जाति परिवर्तित हो गई ।
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रविशंकर महाराजने हाईस्कूल तक भी शिक्षा नहीं पाई, तो भी उनकी वाणी बड़े-बड़े प्रोफेसरों तकपर असर करती है । विद्यार्थी उनके पीछे पागल बन जाते हैं । जब वे बोलते हैं तब सुननेवाला समझता है कि महाराज जो कुछ कहते हैं, वह सत्य और अनुभवसिद्ध है। केन्द्र या प्रान्तके मन्त्रियों तक पर उनका जादू जैसा प्रभाव है । वे जिस क्षेत्र में कामका बीड़ा उठाते हैं, उसमें बसनेवाले उनके रहन-सहन से मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं—क्योंकि उन्होंने
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