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और संवर्धन है । फिर भी हरेक धनी अपनी पूँजी मकान में, सोने-चाँदीमें, जवाहरात में या कारखाने में लगानेका प्रयत्न करता है परन्तु किसीको पशु संवर्धन द्वारा समाजहितका काम नहीं सूझता । खेतीकी तो इस तरह उपेक्षा हो रही है मानो वह कोई कसाईका काम हो, यद्यपि उसके फलकी राह हरेक श्रादमी देखता है ।
ऊपर निर्दिष्ट की हुई सामान्य बातोंके अतिरिक्त कई बातें ऐसी हैं जिन्हें सबसे पहले सुधारना चाहिए । उन विषयों में समाज जब तक बदले नहीं, पुरानी रूढ़ियाँ छोड़े नहीं, मानसिक संस्कार बदले नहीं, तब तक अन्य सुधार हो भी जाएँगे तो भी सबल समाजकी रचना नहीं हो सकेगी । ऐसी कई महत्वकी बातें ये हैं :
१ – हिन्दू धर्मकी पर्याय समझी जानेवाली ऊँच-नीचके भेदकी भावना, जिसके कारण उच्च कहानेवाले सवर्ण स्वयं भी गिरे हैं और दलित अधिक दलित बने हैं । इसीके कारण सारा हिन्दू-मानस मानवता - शून्य बन गया है ।
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२– पूँजीवाद या सत्तावादको ईश्वरीय अनुग्रह या पूर्वोपार्जित पुण्यका फल मान कर उसे महत्त्व देनेकी भ्रान्ति, जिसके कारण मनुष्य उचित रूपमें और निश्चिन्ततासे पुरुषार्थं नहीं कर सकता ।
३ -- लक्ष्मीको सर्वस्व मान लेनेकी दृष्टि, जिसके कारण मनुष्य अपने बुद्धि-बल या तेजकी बजाय खुशामद या गुलामीकी और अधिक कता है ।
४ - स्त्री - जीवन के योग्य मूल्यांकन में भ्रांति, जिसके कारण पुरुष और स्त्रियाँ स्वयं भी स्त्री-जीवन के पूर्ण विकास में बाधा डालती हैं ।
५ – क्रियाकांड और स्थूल प्रथाओं में धर्म मान बैठनेकी मूढ़ता, जिसके कारण समाज संस्कारी और बलवान बनने के बदले उल्टा अधिक संस्कारी और सच्चे धर्मसे दूर होता जाता है ।
समाजको बदलनेकी इच्छा रखनेवालेको सुधार के विषयोंका तारतम्य समझकर जिस बारे में सबसे अधिक जरूरत हो और जो सुधार मौलिक परिवर्तन ला सकें उन्हें जैसे भी बने सर्वप्रथम हाथमें लेना चाहिए और वह भी अपनी शक्तिके अनुसार | शक्तिसे परेकी चीजें एक साथ हाथमें लेनेसे सम्भव सुधार भी रुके रह जाते हैं ।
समाजको यदि बदलना हो तो उस विषयका सारा नक्शा अपनी दृष्टिके
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