Book Title: Praman Lakshano ki Tarkik Parampara Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/229017/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण लक्षणोंकी तार्किक परम्परा प्रमाणसामान्यलक्षणकी तार्किक परम्पराके उपलब्ध इतिहासमें कणांदका स्थान प्रथम है । उन्होंने 'अदुष्टं विद्या' ( ६.२.१२ ) कहकर प्रमाणसामान्यका लक्षण कारणशुद्धि मूलक सूचित किया है। अक्षपादके सूत्रों में लक्षणक्रम में प्रमाणसामान्यलक्षण के प्रभावकी त्रुटिको वात्स्यायन' ने 'प्रमाण' शब्द के निर्वचन द्वारा पूरा किया। उस निर्वचनमें उन्होंने कणाद की तरह कारण शुद्धिको तरफ ध्यान नहीं रखा पर मात्र उपलब्धिरूप फलकी ओर नजर रखकर 'उपलब्धिहेतुत्व' को प्रमाणसामान्यका लक्षण बतलाया है । वात्स्या नके इस निर्वचनमूलक लक्षण में आनेवाले दोषोंका परिहार करते हुए बाचस्पति मिश्र ने 'अर्थ' पदका संबन्ध जोड़कर और 'उपलब्धि' पदको ज्ञानसामान्यबोधक नहीं पर प्रमाणरूप ज्ञान विशेषबोधक मानकर प्रमाणसामान्यके लक्षणको परिपूर्ण बनाया, जिसे उदयनाचार्य ने कुसुमाञ्जलि में 'गौतमनयसम्मत' कहकर अपनी भाषा में परिपूर्ण रूपसे मान्य रखा जो पिछले सभी न्याय-वैशेषिक शास्त्रों में समानरूपसे मान्य है । इस न्याय-वैशेषिककी परम्परा के अनुसार प्रमाण सामान्यलक्षण में मुख्यतया तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं inf १- कारणदोष के निवारण द्वारा कारण शुद्धिकी सूचना । २ - विषयबोधक अर्थ पदका लक्षण में प्रवेश । ३ --- लक्षण में स्व- परप्रकाशत्वकी चर्चाका अभाव तथा विषयकी अपूर्वता - श्रनधिगतता के निर्देशका अभाव । यद्यपि प्रभाकर" और उनके अनुगामी मीमांसक विद्वानोंने 'अनुभूति' १. 'उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि इति समाख्यानिर्वचनसामर्थ्यात् बोद्धव्यं प्रमीयते अनेन इति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः ' - न्यायभा० १.१.३. २. ' उपलब्धिमात्रस्य अर्थाव्यभिचारिणः स्मृतेरन्यस्य प्रमाशब्देन श्रभिधानात् ' - तात्पर्य० पृ० २१. ३. 'यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते ॥ मितिः सम्यक् परिच्छित्तिः तद्वत्ता च प्रमातृता । तदयोगव्यवच्छेदः मामाण्यं गौतमे मते ॥' न्यायकु· ४.१.५. । ४. 'अनुभूतिश्च नः प्रमाणम्' – बृहती १. १. ५, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ मात्रको ही प्रमाणरूपसे निर्दिष्ट किया है तथापि कुमारिल एवं उनकी परम्परावाले अन्य मीमांसकोंने न्याय -वशेषिक तथा बौद्ध दोनों परम्पराओं का संग्राहक ऐसा प्रमाणका लक्षण रचा' है; जिसमें 'प्रदुष्टकारणारब्ध' विशेषणसे कणादकथित कारणदोषका निवारण सूचित किया और 'निर्बाधत्व' तथा 'अपूर्वा - fer' विशेषण के द्वारा बौद्ध परम्पराका भी समावेश किया । "तत्रा पूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाघवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥” यह श्लोक कुमारिलक क माना जाता है । इसमें दो बातें ख़ास ध्यान देने की हैं- १-लक्षणमें श्रनधिगतबोधक 'अपूर्व' पदका श्रर्थविशेषणरूपसे प्रवेश । २ – स्व- परप्रकाशस्यकी सूचनाका अभाव ! बौद्ध परम्परामें दिङ्नागर ने प्रमाणसामान्यके लक्षण में 'स्वसंवित्ति' पदका फलके विशेषणरूपसे निवेश किया है । धर्मकीर्त्ति के प्रमाणवार्त्तिकवाले लक्षण में वात्स्यायन 'प्रवृत्तिसामर्थ्य' का सूचक तथा कुमारिल आादिके निर्वाveer पर्याय 'विसंवादित्व' विशेषण देखा जाता है और उनके न्यायविन्दुवाले लक्षण में दिङ्नागके अर्थसारूप्यका ही निर्देश है ( न्यायवि० १.२० . ) । शान्तरचितके लक्षण में दिङ्नाग और धर्मकीर्ति दोनोंके अाशयका संग्रह देखा जाता है - १. 'श्रीपत्तिकगिरा दोषः कारणस्य निवार्यते । श्रबाधोऽध्यतिरेकेण स्वतस्तेन प्रमाणता || सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरम्यथा ॥ श्लोकवा० श्रीस० श्लो० १०, ११. ' एतच्च विशेषणत्रयमुपाददानेन सूत्रकारे कारण दोषबाधकशानरहितम् श्रगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् इति प्रमाणलक्षणं सूचितम् ' -- शास्त्रादी० पृ० १२३. 'अनधिगतार्थगन्तृ प्रमाणम् इति भट्ट - मीमांसका श्राहुः' सि० चन्द्रो० पृ० २०. २. 'अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणम् इति प्रमाणसामान्यलक्षणम् ।' प्रमाएस० टी० पू० ११. ३. 'स्वसंवित्तिः फलं चात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥' प्रमाणस० १. १०. ४. 'प्रमाणमविसंवादि शानमर्थक्रियास्थितिः । श्रविसंवादनं शाब्देष्यभिप्रायनिवेदनात् ॥' - प्रमाणवा० २. १. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ "विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते। स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥" -तत्त्वसं. का. १३४४ । इसमें भी दो बातें खास ध्यान देने की हैं-- १- अभी तक अन्य परम्पराओंमें स्थान नहीं प्राप्त 'स्वसंवेदन' विचारका प्रवेश और तद्वारा ज्ञानसामान्यमें स्व-परप्रकाशस्वकी सूचना । __असङ्ग और वसुबन्धुने विज्ञानवाद स्थापित किया। पर दिङ्नागने उसका समर्थन बड़े जोरोंसे किया । उस विज्ञानवादकी स्थापना और समर्थन पद्धतिमें ही स्वसंविदितत्व या स्वप्रकाशस्वका सिद्धान्त स्फुटतर हुश्रा जिसका एक या दूसरे रूपमें अन्य दार्शनिकोंपर भी प्रभाव पड़ा-देखो Buddhist Logio rol. I. P. 12. २-मीमांसककी त { स्पष्ट रूपसे अनधिगतार्थक ज्ञानका ही प्रामाण्य । : श्वेताम्बर दिगम्बर नों जैन परम्पराओं के प्रथम तार्किक सिद्धसेन और समन्तभद्र ने अपने-अपने लक्षण में स्व-परप्रकाशार्थक 'स्व-परावभासक' विशेषणका समानरूपसे निवेश किया है। सिद्धसेन के लक्षण में 'बाधविवर्जित' पद उसी अर्थ में है जिस अर्थमें मीमांसकका 'बाधवर्जित' या धर्मकीर्तिका 'अविसंवादि' पद है। जैन न्यायके प्रस्थापक अकलंकने' कहीं 'अनधिगतार्थक' और 'अविसंवादि' दोनों विशेषणोंका प्रवेश किया और कहीं 'स्वपरावभासक' विशेषणका भी समर्थन किया है । अकलंक के अनुगामी माणिक्यनन्दी ने एक ही वाक्यमें 'स्व' तथा 'अपूर्वार्थ पद दाखिल करके सिद्धसेन-समन्तभद्रकी स्थापित और अकलंकके द्वारा विकसित जैन पर १. 'प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।' -न्याया० १. 'तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।' -आप्तमी० १०१. 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्'–बृ० स्वयं० ६३. ____२. 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् , अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।'अष्टश• अष्टस• पृ० १७५. उक्तं च-'सिद्धं यन्न परापेवं सिद्धौ स्वपररूपयोः । तत् प्रमाणं ततो नान्यदविकल्पमचेतनम् ।' न्यायवि. टी. पृ. ६३. उक्त कारिका सिद्धिविनिश्चय की है जो अकलंक को ही कृति है। ३. 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।' -परी० १.१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पराका संग्रह कर दिया । विद्यानन्द ने अकलंक तथा माणिक्यनन्दी की उस परम्परासे अलग होकर केवल सिद्धसेन और समन्तभद्रकी व्याख्या को अपने 'स्वार्थ व्यवसायात्मक' जैसे शब्द में संग्रहीत किया और 'अनधिगत' या 'अपूर्व' पद जो अकलंक और माणिक्यनन्दीकी व्याख्या में हैं, उन्हें छोड़ दिया । विद्यानन्दका व्यवसायात्मक' पद जैन परम्परा के प्रमाणलक्षणमें प्रथम ही देखा जाता है पर वह अक्षपाद के प्रत्यक्षलक्षण में तो पहिले ही से प्रसिद्ध रहा है । सन्मति के टीकाकार अभयदेव ने विद्यानन्दका ही अनुसरण किया पर 'व्यवसाथ' के स्थान में 'निर्णीति' पद रखा । वादी देवसूरिने तो विद्यानंद के ही शब्दों को दोहराया है । ० हेमचन्द्र ने उपर्युक्त जैन- जैनेतर भिन्न-भिन्न परं पराका श्रौचित्य अनौचित्य विचारकर अपने लक्षण में केवल 'सम्यक्', 'अर्थ' और 'निर्णय' ये तीन पद रखे । उपर्युक्त जैन परम्परात्रों को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि आ• हेमचन्द्र ने अपने लक्षण में काट-छाँट के द्वारा सशोधन किया है । उन्होंने 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्योंर्ने लक्षण में सन्निविष्ट किया था, निकाल दिया । 'अवभास', 'व्यवसाय' श्रादि पदोंको स्थान न देकर अभयदेव के 'निर्णीति' पदके स्थान में 'निर्णय' पद दाखिल किया और उमास्वाति, धर्मकीति तथा मासर्वंशके सम्यक् पदको अपनाकर अपना 'सम्यगर्थनिर्णय' लक्षण निर्मित किया है । - आर्थिक तात्पर्य में कोई खास मतभेद न होनेपर भी सभी दिगम्बर श्वेताम्बर श्राचार्यों के प्रमाणलचण में शाब्दिक भेद है, जो किसी अंश में विचार विकासका सूचक और किसी अंश में तत्कालीन भिन्न-भिन्न साहित्यके अभ्यासका परिणाम है । यह भेद संक्षेपमें चार विभागों में समा जाता है । पहिले विभागमें 'स्व-परा १. ' तत्स्वार्थ व्यवसायात्मज्ञान मानमितीयता । लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥' – तत्त्वार्थश्लो० १. १० ७७. प्रमाणप० पृ० ५३. २. 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।' –न्याय सू० १. १. ४. ३. 'प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानम् ।' सन्मतिटी० पृ० ५१८. ४. 'स्वपव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । ' ५. 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः । ' ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिः । प्रमाणम् ।' न्यायसार पृ० १. प्रमाणन० १. २. तत्त्वार्थ० १. १. 'सभ्यन्यायवि० १. १. 'सम्यगनुभवसाधनं - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वभास' शब्दवाला सिद्धसेन समन्तभद्रका लक्षण अाता है जो संभवतः बौद्ध विज्ञानवादके स्व-परसंवेदनकी विचारछायासे खाली नहीं है, क्योंकि इसके पहिले अागम ग्रंथों में यह विचार नहीं देखा जाता। दूसरे विभागमें अकलंकमाणिक्यनन्दीका लक्षण श्राता है जिसमें 'श्रविसंवादि', अनधिगत' और 'अपूर्व' शब्द आते हैं जो असंदिग्ध रूपसे बौद्ध और मीमांसक ग्रंथों के ही हैं। तीसरे विभागमें विद्यानन्द, अभयदेव और देवसूरिके लक्षणका स्थान है जो वस्तुतः सिद्ध सेन-समन्तभद्रके लक्षणका शब्दान्तर मात्र है पर जिसमें अवभास के स्थान में 'व्यवसाय' या 'निर्णीति' पद रखकर विशेष अर्थ समाविष्ट किया है / अन्तिम विभागमें मात्र प्रा. हेमचन्द्रका लक्षण है जिसमें 'स्व', 'अपूर्व', 'अनधिगत' आदि सब उड़ाकर परिष्कार किया गया है / ई. 1636 ] [प्रमाण मीमांसा