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मात्रको ही प्रमाणरूपसे निर्दिष्ट किया है तथापि कुमारिल एवं उनकी परम्परावाले अन्य मीमांसकोंने न्याय -वशेषिक तथा बौद्ध दोनों परम्पराओं का संग्राहक ऐसा प्रमाणका लक्षण रचा' है; जिसमें 'प्रदुष्टकारणारब्ध' विशेषणसे कणादकथित कारणदोषका निवारण सूचित किया और 'निर्बाधत्व' तथा 'अपूर्वा - fer' विशेषण के द्वारा बौद्ध परम्पराका भी समावेश किया ।
"तत्रा पूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाघवर्जितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥”
यह श्लोक कुमारिलक क माना जाता है । इसमें दो बातें ख़ास ध्यान देने की हैं-
१-लक्षणमें श्रनधिगतबोधक 'अपूर्व' पदका श्रर्थविशेषणरूपसे प्रवेश । २ – स्व- परप्रकाशस्यकी सूचनाका अभाव !
बौद्ध परम्परामें दिङ्नागर ने प्रमाणसामान्यके लक्षण में 'स्वसंवित्ति' पदका फलके विशेषणरूपसे निवेश किया है । धर्मकीर्त्ति के प्रमाणवार्त्तिकवाले लक्षण में वात्स्यायन 'प्रवृत्तिसामर्थ्य' का सूचक तथा कुमारिल आादिके निर्वाveer पर्याय 'विसंवादित्व' विशेषण देखा जाता है और उनके न्यायविन्दुवाले लक्षण में दिङ्नागके अर्थसारूप्यका ही निर्देश है ( न्यायवि० १.२० . ) । शान्तरचितके लक्षण में दिङ्नाग और धर्मकीर्ति दोनोंके अाशयका संग्रह देखा जाता है
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१. 'श्रीपत्तिकगिरा दोषः कारणस्य निवार्यते । श्रबाधोऽध्यतिरेकेण स्वतस्तेन प्रमाणता || सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरम्यथा ॥ श्लोकवा० श्रीस० श्लो० १०, ११. ' एतच्च विशेषणत्रयमुपाददानेन सूत्रकारे कारण दोषबाधकशानरहितम् श्रगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् इति प्रमाणलक्षणं सूचितम् ' -- शास्त्रादी० पृ० १२३. 'अनधिगतार्थगन्तृ प्रमाणम् इति भट्ट - मीमांसका श्राहुः' सि० चन्द्रो० पृ० २०.
२. 'अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणम् इति प्रमाणसामान्यलक्षणम् ।' प्रमाएस० टी० पू० ११.
३. 'स्वसंवित्तिः फलं चात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥' प्रमाणस० १. १०.
४. 'प्रमाणमविसंवादि शानमर्थक्रियास्थितिः । श्रविसंवादनं शाब्देष्यभिप्रायनिवेदनात् ॥' - प्रमाणवा० २. १.
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