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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
डॉ० प्रेमसुमन जैन प्राचीन भारतीय आर्य भाषा काल में जो भाषाएं प्रचलित थीं उनके रूप ऋग्वेद की ऋचाओं में उपलब्ध होते हैं। अतः वैदिक भाषा ही प्राचीन भारतीय आर्य भाषा है। वैदिक युग की भाषा में तत्कालीन प्रदेश विशेषों की लोक-भाषा के कुछ रूप भी प्राप्त होते हैं -विशेषकर अथर्ववेद की भाषा में । इससे स्पष्ट है कि वैदिक भाषा के अतिरिक्त उस समय बोलचाल की भी कोई भाषा रही होगी। इसी कथ्य जनभाषा से धीरे-धीरे वैदिक साहित्य की भाषा, जिसे छांदस् कहा गया है, विकसित हुई है । वैदिक भाषा में प्राकृत भाषा के तत्त्वों के समावेश से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
जिन लोकभाषाओं से वैदिक युग समृद्ध था, उन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है-(१) उदीच्य या उत्तरीय विभाषा, (२) मध्यदेशीय विभाषा और (३) प्राच्या या पूर्वीय विभाषा । इनमें से प्राच्या देश्य भाषा उन लोगों द्वारा प्रयुक्त होती थी, जो वैदिक संस्कृति से भिन्न विचार वाले थे। इन्हें व्रात्य कहा गया है । इस प्रकार छांदस् और प्राच्य विभाषा से जो भाषा विकसित हुई उसे भगवान् महावीर के समय में मागधी नाम से जाना गया है। इस प्रकार विकास की दृष्टि से प्राकृत और संस्कृत दोनों सहोदरा हैं। एक हो स्रोत जनभाषा से दोनों उद्भूत है। क्रमशः इन भाषाओं का साहित्य धामिक एवं विधा की दृष्टि से भिन्न होता गया। अतः इनके स्वरूप में भी स्पष्ट भेद हो गये। संस्कृत नियमबद्ध हो जाने से एक ही नाम से व्यवहृत होती रही। वह देव भाषा हो गयी । प्राकृत में निरन्तर लोकभाषा के शब्दों का समावेश होता रहता था। अतः वह रही तो प्राकृत, किन्तु नाम नये-नये धारण करती रही। पालि, अर्घमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची, अपभ्रंश आदि से गुजरती हुई प्राकृत भारतीय आधुनिक भाषाओं तक पहुंची है।
__भारतीय आधुनिक भाषाओं और प्राकृत के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के पूर्व प्राकृत के अर्थ को जान लेना आवश्यक है। प्राचीन विद्वान् नमिसाधु ने प्राकृत शब्द की व्याख्या को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार प्राकृत शब्द का अर्थ है- व्याकरण आदि संस्कारों से रहित लोगों का स्वाभाविक वचन-व्यापार । उससे उत्पन्न अथवा वही वचन-व्यापार प्राकृत है। प्राकृत पद से प्राकृत शब्द बना है, जिसका अर्थ हैपहिले किया गया। जैनधर्म के द्वादशांग ग्रन्थों में ग्यारह अंग ग्रन्थ पहिले किये गये हैं। अतः उनकी भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि सभी को सुबोध है। इसी
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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
२८५ प्राकृत के देश भेद एवं संस्कारित होने से अवान्तर विभेद हुए हैं। अतः प्राकृत शब्द की व्युत्पति करते समय 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्' अथवा 'प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्' अर्थ को स्वीकार करना चाहिए। जन सामान्य की स्वाभाविक भाषा प्राकृत है। विभिन्न प्राकृतें
प्राकृत भाषा के प्रयोग में एकरूपता नहीं है। विभिन्न विभाषाओं के बीज क्रमशः उसमें सम्मिलित होते रहे हैं । प्राकृत भाषा के स्वरूप की दृष्टि से दो भेद किये जा सकते हैं - (१) कथ्य प्राकृत और (२) साहित्य की प्राकृत । प्राकृत जनभाषा के रूप में प्राचीन समय से बोली जाती रही है, किन्तु उसका कोई उदाहरण हमारे समक्ष नहीं है । जो कुछ भी प्राकृत का स्वरूप हमारे सामने आया है, वह साहित्य के माध्यम से। इस साहित्यिक प्राकृत के भाषा के प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं-प्रथम युग, मध्ययुग और अपभ्रंश युग ।
ई० पू० छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक के बीच प्राकृत में रचे गये साहित्य की भाषा प्रथम युगीन प्राकृत कही जा सकती है।
ईसा को द्वितीय शताब्दी से छठी शताब्दी तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा गया है, उसे मध्ययुगीन प्राकृत कहते हैं । वास्तव में इस युग की प्राकृत साहित्यिक प्राकृत थी, किन्तु जनसामान्य की भाषा प्राकृत से भी उसका सम्बन्ध बना हुआ था। प्रयोग की भिन्नता की दृष्टि से इस समय तक प्राकृत के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन हो गया था । तदनुरूप प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृत के ये पाँच भेद निरूपित किये हैं-अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी एवं पैशाची। प्राकृत एवं अपभ्रंश
मध्ययुग में ईसा की दूसरी से छठी शताब्दी तक प्राकृत भाषा का साहित्य में कई रूपों में प्रयोग हुआ । वैयाकरणों ने प्राकृत भाषा में भी नियमों के द्वारा एकरूपता लाने का प्रयत्न किया, किन्तु प्राकृत में एकरूपता नहीं आ सकी। यद्यपि साहित्य में कृत्रिम प्राकृत का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था। इससे वह लोक से दूर हटने लग गयी थो । लेकिन जिन लोक प्रचलित भाषाओं में साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ था, वे लोक भाषाएँ अभी भी प्रवाहित हो रही थीं। उन्होंने एक नयी भाषा को जन्म दिया, जिसे अपभ्रंश कहा गया है । यह प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था है।
प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का क्षेत्र प्रायः एक जैसा था तथा एक विशेष प्रकार का साहित्य इनमें लिखा गया है। विकास की दृष्टि से भी इनमें घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः कई विद्वानों ने प्राकृत-अपभ्रंश को एक मान लिया है, जबकि ये दोनों स्वतंत्र
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जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन भाषाएँ हैं। अपभ्रंश जन सामान्य की भाषा का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करती है। इसके अतिरिक्त विभक्ति, प्रत्यय, परसर्गों में भी प्राकृत और अपभ्रंश में स्पष्ट अन्तर है। अपभ्रंश में देशी रूपों की बहुलता है। यह उकार बहुला भाषा है।
अपभ्रंश को आभीरी, भाषा, देशी एवं अवहट्ट आदि नाम भी समय समय पर दिये गये हैं। ये सब नाम अपभ्रंश के विकास को सूचित करते हैं । पश्चिमी भारत की एक बोली-विशेष आभीरी से अपभ्रंश प्रभावित है। जन भाषा की बोली होने से इसे भाषा कहा गया है। कथ्य भाषा होने से यह देशी कही गयी है तथा परवर्ती अपभ्रंश के लिए अवहट्ट कहा गया है, जो अपभ्रंश और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है । वह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की पूर्ववर्ती अवस्था है। प्राकृत अपभ्रंश का दाय : क्षेत्रीय भाषाएं
__ जब लोकभाषाएं साहित्य में रूढ़ हो जाती हैं तब जन सामान्य में नयी लोकभाषा का व्यवहार होने लगता है। इस प्रकार लोकभाषाएं विकसित होती रहती हैं। प्राकृत अपभ्रंश के साथ भी यही हुआ। प्राकृतों में कृत्रिमता आ जाने से तथा साहित्य तक सीमित होने से अपभ्रंश भाषा उदय में आयी थी। जब अपभ्रंश का साहित्य में सर्वाधिक प्रयोग होने लगा तथा वह नियमबद्ध होने लगी तो आगे चलकर लोक में अन्य क्षेत्रीय भाषाएं पनपने लगीं। आधुनिक आर्य भाषाओं ने प्राकृत संस्कृत के गुणों को अपनाकर अपभ्रंश के प्रभाव से अपने को अधिक स्पष्ट और सरल बनाया है। उनमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश इन तीनों की विशेषताएं एकत्र हुई हैं। किन्तु लोकभाषा होने के कारण प्राकृत और अपभ्रंश का दाय उनके विकास में अधिक है। यह संक्रान्ति काल की कुछ रचनाओं के अध्ययन से जाना जा सकता है।
____ संक्रान्ति काल की कुछ रचनाएं इस बात की सबल प्रमाण हैं कि प्राचीन अपभ्रंश आदि में नवीन भाषाओं का कैसे संमिश्रण हो रहा था । अब्दुल रहमान के सन्देशरासक में स्वर संकोच होने लग गया था। संयुक्त व्यंजनों में से प्रायः एक ही सुरक्षित रखा जाता था। जैसे-उच्छ्वास > उस्सास > उसास आदि । इसी तरह प्राकृतपेंगलम् एवं पुरातनप्रबन्धसंग्रह की भाषा क्रमशः अपभ्रंश की स्थिति को छोड़ती हुई लोकभाषाओं की ओर बढ़ रही थी। पश्चिमी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के बीज इनमें देखे जा सकते हैं।
उक्तिव्यक्तिप्रकरणम् की भाषा में काशी, कौशल प्रदेश की काव्य भाषा के स्वरूप का प्रामाणिक परिचय मिलता है। विशेषकर अवधी भाषा का प्राचीन रूप इनमें देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ की भाषा में आधुनिक भारतीय भाषाओं को जन्म देने वाली सामान्य प्रवृतियाँ परिलक्षित होती हैं । वर्ण-रत्नाकर मैथिली का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। इसकी भाषा में मैथिली के प्राचीनतम रूप तो सुरक्षित हैं ही,
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बंगला, मगही और भोजपुरी भाषाओं के प्राचीन रूपों पर भी इससे प्रकाश पड़ता है । कीर्तिलता नामक अवहट्ठ भाषा का ग्रन्थ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है ।
चर्यापद की भाषा की कुछ विशेषताएं बंगला के विकास पर प्रकाश डालती हैं । बंगला तथा पूर्वी भारत की अन्य भाषाएं असमिया, उड़िया आदि मागधी - प्राकृत व अपभ्रंश की प्रवृतियों से अधिक प्रभावित हैं । ज्ञानेश्वरी की भाषा में मराठी भाषा का प्राचीन रूप देखने को मिलता है, जो महाराष्ट्री प्राकृत से विकसित माना जाता है ।
आधुनिक भाषाओं के पोषक तत्त्व
भारतीय आधुनिक भाषाएं आज भाषा व साहित्य की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध हैं । उनके विकास की लम्बी परम्परा है । किन्तु यह कह पाना कठिन है कि किस प्राकृत व अपभ्रंश विशेष से कौन सी आधुनिक भाषा का जन्म हुआ है । केवल भाषागत समानता के आधार पर कुछ अनुमान ही किया जा सकता है कि इस अपभ्रंश से यह क्षेत्रीय भाषा उत्पन्न हुई होगी । अतः प्राकृत और अपभ्रंश को आधुनिक भाषाओं की जननी मानने के स्थान पर उनकी पोषक मानना अधिक ठीक है । इस प्रकार के पोषक तत्त्व इन भाषाओं में खोजे भी जा सकते हैं । वस्तुतः भारतीय आधुनिक भाषाओं का जन्म उन विभिन्न लोकभाषाओं से हुआ है, जो प्राकृत व अपभ्रंश से प्रभावित थीं । उनका उस समय कोई नामकरण नहीं था । अतः वे विभिन्न क्षेत्रों की अपभ्रंश के नाम से जानी गयी हैं ।
प्राकृत अपभ्रंश ने आधुनिक भारतीय भाषाओं को कई तरह से प्रभावित किया है । भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है । अतः उसे इतना सरल होना चाहिए कि कहने एवं सुनने वाले के बीच विचारों का सम्प्रेषण बना रहे। एक दूसरे के अन्तरंग को वे समझ सकें । प्राकृत अपभ्रंश ने इसी सरलीकरण को स्वयं अपनाया तथा दाय के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं को यह विरासत सौंपी है । भाषा का सरलीकरण उन शब्दों को ग्रहण करने से आता है जो जन सामान्य के बीच अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं । प्राकृत व अपभ्रंश ने ऐसे ही देशी शब्दों को प्राथमिकता दी थी । हेमचन्द्र की देशीनाममाला इस प्रकार के शब्दों का भण्डार है । आधुनिक आर्य भाषाओं में भी ऐसे अनेक शब्द आज प्रयुक्त होते हैं, जो प्राकृत अपभ्रंश की यात्रा करते हुए यहां तक पहुँचे हैं।
किन्तु लोक शब्दों से ही किसी भाषा का काम नहीं चलता । उसे शिष्टभाषा के शब्द एवं प्रवृतियों को भी अपनाना पड़ता है । यही कारण है कि प्राकृत व अपभ्रंश में तत्सम और तद्भव शब्दों का भी समावेश है । भारतीय भाषाओं के इतिहास से यह
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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन भलीभाँति ज्ञात होता है कि कभी लोकभाषाओं ने देशी शब्दों को साहित्य के सिंहासन पर बैठाया तो कभी परिष्कृत शब्दों को भी लोक मानस के अनुकूल उन्होंने गढ़ा है। ध्वनि विकास के द्वारा ऐसे शब्द किसी भी भाषा में प्रयुक्त होते रहते हैं। पश्चिमी भाषाए”
आधूनिक आर्य भाषाओं और बोलियों के वर्गीकरण तथा उनके प्राचीन रूप के अध्ययन अनुसन्धान में डॉ० ग्रियर्सन और डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी के मत उल्लेखनीय माने जाते हैं । अन्य विद्वानों ने भी इस विषय पर कार्य किया है। पश्चिमी भारत की आधुनिक भाषाओं में सिन्धी, पंजाबी, राजस्थानी और गुजराती प्रमुख हैं। सिन्ध के ब्राचड़ प्रदेश में बोली जाने वाली अपभ्रंश से सिन्धी भाषा का विकास माना जाता है। कैकय प्रदेश की अपभ्रंश से पश्चिमी पंजाबी ( लंहदी, मुल्तानी ) का तथा टक्क अपभ्रंश से पूर्वी पंजाबी भाषा का विकास स्वीकार किया गया है। किन्तु अभी तक सिन्धी एवं पंजाबी भाषाओं का प्राकृत अपभ्रंश के साथ विशेष अध्ययन प्रस्तत नहीं किया गया है। प्राकृत ग्रन्थों में इन देशों के व्यापारियों का पर्याप्त उल्लेख मिलता है। उद्योतनसूरि ने तो कुवलयमालाकहा में सैन्धव और टक्क देश के व्यापारियों की भाषा के शब्दों की बानगी भी प्रस्तुत की है। राजस्थानी
जिसे आज राजस्थानी कहा जाता है वह भाषा नागर अपभ्रंश से उत्पन्न मानी जाती है, जो मध्यकाल में पश्चिमोत्तर भारत की कथ्यभाषा थी। राजस्थानी भाषा के क्षेत्र और विविधता को ध्यान में रखकर इसकी जनक भाषा को सौराष्ट्र अपभ्रंश तथा गुर्जरी अपभ्रंश भी कहा जाता है। क्योंकि राजस्थानी का सम्बन्ध बहत समय तक गुजराती भाषा से बना रहा है। राजस्थानी भाषा के अन्तर्गत जो बोलियाँ हैंहाड़ौती, ढूंढारी, मेवाड़ी और मारवाड़ी आदि उन सब पर प्राकृत एवं अपभ्रंश का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । ध्वनिपरिवर्तन और व्याकरण दोनों की दृष्टि से राजस्थानी मध्ययुगीन भाषाओं से प्रभावित है।
राजस्थानी के संज्ञा रूपों की रचना पर प्राकृत का सीधा प्रभाव है। प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के एक वचन के अकार को ओकार होता है। राजस्थानी में भी यही प्रवृत्ति उपलब्ध है । यथा-घोड़ो, छोरो आदि । प्राकृत अपभ्रंश की भाँति राजस्थान में भी विभक्तियों की संख्या कम हो गयी है।
प्राकृत के सर्वनामों की संख्या अपभ्रंश में कम हो गयी थी। अपभ्रंश से बहुत से सर्वनाम राजस्थान में यथावत् अपना लिये गये हैं। प्राकृत और अपभ्रंश का हं, हउं (मैं) राजस्थानी में खूब प्रचलित है। यथा--
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घड़
शा
बीहइ
बोहै
कीधौ
हउँ कोसीसा कंत हूं पापी हेकलौ आदि ।
इसी तरह अपभ्रंश के कांइ (क्या) का प्रयोग राजस्थानी में अधिक होता है। काई छ (ढूंढारी) कंइ है (मेवाड़ी), कंइ हुओ (मारवाड़ी) आदि प्रयोग द्रष्टव्य हैं ।
राजस्थानी भाषा की अनेक धातुएँ प्राकृत एवं अपभ्रंश से ग्रहीत हैं। उनमें बहुत थोड़ा परिवर्तन हुआ है । तुलनात्मक दृष्टि से कुछ क्रियाएँ द्रष्टव्य हैं यथाप्राकृत राजस्थानी
अर्थ घडइ
बनाता है जांच जांचे
मांगता है खण्डइ खांडै
तोड़ता है धारइ
धारता है डरता है
पूरा करता है किदो
किया होसइ होसी
होगा छोल्लिज्जइ छोले
छीलता है इसी प्रकार राजस्थानी भाषा में ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं, जो थोड़े से ध्वनि परिवर्तन के साथ प्राकृत व अपभ्रंश से ग्रहण कर लिये गये हैं। गुजराती
गुजराती और राजस्थानी में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इन पर मध्य देश की शौरसेनी प्राकृत व अपभ्रंश का अधिक प्रभाव है। श्री एल० पी० टेसीटरी ने गुजराती और राजस्थानी के स्वरूप आदि पर विशेष प्रकाश डाला है तथा उन पर प्राकृत के तत्त्वों को स्पष्ट किया है। प्राकृत और गुजराती के कुछ समान शब्द इस प्रकार हैं। प्राकृत
अर्थ अंगोहलि अंघोल
शरीर का स्नान उत्थल्ल-पत्थल्ला उथल-पाथल
उलट-फेर ओइल्ल ओलबु
ओढ़नी उण्डा उण्डा
गहरा काठु
बदनाम, बुरा गहिल्ल गहिल
मन्दबुद्धि (घेलु) कूकड़ी
मुर्गी
गुजराती
कटु
कुक्कडी
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२९०
लड़का
मडु
जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन छोयर
छोकरा डोय डोयो
लकड़ी की चम्मच मडय
मृत डब्ब डाबु
बांया लीट लीटी
रेखा रान
जंगल गुजराती के बहुत से सर्वनाम भी अपभ्रंश से सीधे आये हैं । हेमचन्द्र के अनुसार अपभ्रंश में कथं, तथा केथा को एम और इम आदेश होते हैं । जैसे
केम समप्पउ दुढ दिण गुजराती के केम छ, एम छे आदि प्रयोगों में यही प्रवृत्ति देखी जा सकती है। पूर्वी भाषाएँ
पूर्वी भारत में इस समय कई भाषाएं प्रचलित हैं। उनमें भोजपुरी, मगही, मैथिली, उड़िया, बंगाली और असमिया प्रमुख हैं। इनमें कई विधाओं में साहित्य भी लिखा गया है तथा ये बोल-चाल की भी भाषाएँ हैं। इन भाषाओं का विकास जिस क्षेत्र में हुआ है, वहाँ प्राचीन समय से प्राकृत व अपभ्रंश बोली जाती रही हैं, जिसे मागधी व अर्धमागधी कहा जाता था। अतः स्वाभाविक रूप से ये भाषाएँ मागधी प्राकृत व अपभ्रंश से प्रभावित होकर विकसित हुई हैं। इनका प्राकृत व अपभ्रंश से क्या और कितना सम्बन्ध है, इस विषय पर विद्वानों ने विशेष अध्ययन प्रस्तुत किये हैं । तुलनात्मक दृष्टि से कुछ साम्य-वैषम्य यहाँ द्रष्टव्य हैभोजपुरी
बिहार में बोली जाने वाली भाषाओं में भोजपुरी प्रमुख है। यद्यपि इसके बोलने वाले विभिन्न प्रान्तों में भी निवास करते हैं। भोजपुरी भाषा के व्याकरण एवं भाषा वैज्ञानिक तत्त्वों के अध्ययन के आधार पर इस भाषा का सम्बन्ध अर्धमागधी प्राकृत के साथ अधिक दृढ़ होता है। इस भाषा में प्राकृत तत्त्वों की प्रचुरता है। संक्रान्तिकाल के जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें भी भोजपुरी के उदाहरण प्राप्त होते हैं। ध्वनितत्त्व की दृष्टि से भोजपुरी में प्राकृत के समान निम्न विशेषताएं पायी जाती हैं ।
(१) ह्रस्व स्वरों का दीर्घ और दीर्थों का ह्रस्व हो जाना । यथा -जीहा-जोभ चक्क-चाक, आआस-अकास ।
(२) ध्वनि का विभिन्न स्वरों में परिवर्तन । यथा-- किसन-किसुन, मच्चु-मिरतु, माय-मतारी।
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२९१ ( ३ ) अकारण अनुनासिक प्रवृत्ति का पाया जाना । यथा-गाम-गांव, महिषीभइंस ।
(४) विभिन्न वर्गों के स्थान पर दूसरे वर्णों का प्रयोग । यथा-शकुन-सगुन, किस्सा-खिस्सा, केला-केरा।
भोजपुरी भाषा में ध्वनितत्त्व के अतिरिक्त व्याकरण की दृष्टि से भी प्राकृत की प्रवृत्तियां पायी जाती हैं। भोजपुरी के संज्ञारूपों की रचना पर प्राकृत का स्पष्ट प्रभाव है तथा विभक्ति-लोप के साथ परसों का प्रयोग अपभ्रंश के प्रभाव से इसमें आया है। षष्ठी विभक्ति में भोजपुरी में जो परसर्ग जोड़े जाते हैं, वे प्राकृत के हैं। यथा
उनकरा काम भी करत अइव ।
तोहरा काम से हम अलग रहिता । यहाँ करा और हरा क्रमशः प्राकृत की कर धातु और अम्हारा आदि शब्दों से आये प्रतीत होते हैं।
भोजपुरी के सर्वनामों का प्राकृत से सीधा सम्बन्ध है। वैकल्पिक रूपों का पाया जाना प्राकृत की ही प्रवृति है । कुछ सर्वनाम दृष्टव्य हैं
प्रा०-मए तु तुम्ह तुम्हाण अप्पाणं । भो०-मयं तु तहें तोहनी अपने।
भोजपुरी भाषा की क्रियाओं में भी प्राकृत के तत्त्व उपलब्ध हैं। अधिकांश धातुओं का मूल प्राकृत धातुएं हैं। यथा-कूटे >कुट्ट, काढ़ > कड्ढ, चुकरचुक्क, डूब > डुब्ब, सीझ सिज्झ, आदि । भोजपुरी में प्राकृत के समान ही वर्तमान, भूत, भविष्यत्, आज्ञाविधि और संभावना ये पांच काल होते हैं। भोजपुरी की क्रियाएं प्राकृत की भाँति ही सरल हैं ।
प्राकृत के अनेक शब्द भोजपुरी में स्वीकार कर लिये गये हैं। कुछ शब्द प्राकृत के प्रत्ययों को जोड़कर बनाये गये हैं तथा कुछ शब्द सीधे ले लिये गये हैं। यथाभोजपुरी
प्राकृत का प्रत्यय इनकरा
इन + करा गमइ गम+इ
इल्ल घरेलु घर + एलु
आल ईहां
हि हा मझिला. मज्झिल्ल+आक
इल्लअ
केर
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जनविद्या एवं प्राकृत : अन्त रशास्त्रीय अध्ययन
भोजपुरी
प्राकृत का प्रत्यय कहत कह + अत
अन्त डरावन डर+आवन
आप्पण करतव कर+तव
तव्व बेड़ा
बेडिला मउगी
माउग्गाम अंगोला
अंगालिअं मैथिली
मिथिला के आस-पास के क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा मैथिली के रूप में प्रसिद्ध हुई है। वर्तमान में साहित्य की दृष्टि से भी यह समृद्ध भाषा है। इसका विकास भी मागधी अपभ्रंश से हुआ है। भोजपुरी की भांति मैथिली में भी प्राकृत का स्पष्ट प्रभाव है। यह संस्कृत से भी प्रभावित है। मैथिली के स्वर और व्यंजनों के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं, जिनमें प्राकृत की विशेषताएं स्पष्ट हैं । संस्कृत प्राकृत
मैथिली कृत्यगृह कच्चहरिअ
कचहरी कर्दम कद्दम
कादों शृणोति सुणइ
सुन्तव द्रक्ष्यति देक्खति
देखव लोहकार लोहाल
लोहार शेवाल सेवाल
सेमर लघु श्रृंखला सिक्खल
सिक्करी तिलक टिलक
टिकुली पीठिका पिढिआ
पिरहिआ गोपाल गोआल
गोआर, ग्वारा . उड़िया
__ उड़िया प्राचीन उत्कल अथवा वर्तमान उड़ीसा की भाषा है। बंगला से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। विद्वानों का मत है कि लगभग १४वीं शताब्दी में यह बंगला से पृथक् हो गयी होगी। मागधी अपभ्रंश की पूर्वी शाखा से उड़िया व बंगला का विकास हुआ माना जाता है। उड़िया में भी प्राकृत की सामान्य प्रवृत्तियाँ उपलब्ध होती हैं । यथा
नहु
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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
मह
मुह
(i) ऋकार का इ में परिवर्तन-~
शृगाल >सिआल >सिआल
हृदय > हिअअ> हिआ ( ii ) ऐ का ए में परिवर्तन
वैद्य>वेज्ज>वेज
तैल > तेल्लं > तेल (iii) दीर्घ स्वरों का प्रयोग ---
भक्त>भत्त>भात
हैस्त >हत्थ>हाथ (i) ख, घ, थ, घ, फ, भ, का ह में परिवर्तनसंस्कृत प्राकृत
उड़िया मुख सखी सही
सही लघुक
लहुक नाथ
नाह वधु
बहु ( ii) संयुक्त व्यञ्जनों का सरलीकरणग्राम
गाअ ध्वनि
धणि स्थान
ठाण स्तन
थन अग्नि अगि
अगि सपत्नी सवत्ति
सावत युग्म जुग्ग
जुग वल्कल वक्कल
वकल उडिया की क्रियाओं में प्राकृत से थोड़ा अन्तर है। किन्तु उनका विकास अपभ्रश के माध्यम से हुआ है। क्रियाएं एक वचन व बहुवचन से ही सम्बन्धित है। यथाअपभ्रंश हरइ
हरन्ति उड़िया हरइ
हरन्ति __इस प्रकार उड़िया भाषा व्याकरण और ध्वनि तत्त्वों की दृष्टि से प्राकृत व अपभ्रंश के अधिक नजदीक है। बंगला और असमिया आदि भाषाएं भी मध्ययुगीन
ठा
थण
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बुन्देली
अर्थ
जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन आर्य-भाषाओं से पर्याप्त प्रभावित हैं । किन्तु इस दृष्टि से अभी उनका अध्ययन किया जाना शेष है। मध्यदेशीय भाषायें
आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाकों के विकासक्रम में मध्यदेश की लोक-भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। शौरसेनी और अर्धमागधी प्राकृतों का मध्यदेश में अधिक प्रसार था । अतः यहाँ विकसित होने वाली बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभाषा, अवधी, बघेली एवं छतीसगढ़ी बोलियों पर इनका प्रभाव अधिक है। ये बोलियाँ पश्चिमी और पूर्वी हिन्दी की उपभाषायें हैं। इनमें रचित साहित्य प्राकृत और अपभ्रंश की प्रवृतियों से अछूता नहीं है। बोल-चाल की भाषाओं में भी मध्ययुगीन आर्य-भाषाओं का प्रभाव नजर आता है । इस दशा में समग्ररूप से अध्ययन किया जाना अभी अपेक्षित है। बुन्देली भाषा के शब्द द्रष्टव्य हैं
प्राकृत गोणी गौन, गोनी
२ मन वजन की बोरी चंगेडा चंगेरी
डलिया चिल्लरी
चिलरा चुल्लि चूला-चूलैया
चूल्हा चोप्पड चुपड़ा
लगाया हुआ छेलि छिरियाँ
बकरी जोय जोहना
देखना जुहार
नमस्ते करना डगलक डिगला
ढेला ढोर ढोर
पशु तित्त तीतो
गीला धुसिय धुस्सा
मोटा चादर नाहर नाहर
सिंह पट्टउल पटेल
प्रधान परइ परों
परसों पाडी पड़िया
भैंस पूरा
घास का पुलिन्दा बड्डा बड्डा
बड़ा बाग्गुर बगुर
समूह मुलहा मुरहा
मूल में उत्पन्न पुत्र
जोहार
पूल
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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
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प्राकृत लाग वियाल विहाण सुहाली
बुन्देली लाग व्यारी भ्याने सुहारी
अर्थ चुंगी विकाल भोजन (रात्रि भोजन) प्रभात पुड़ी
मराठी
मराठी
दक्षिण भारत में महाराष्ट्र में प्राचीन समय से ही संस्कृत और प्राकृत का प्रभाव रहा है। महाराष्ट्री प्राकृत चकि लोकभाषा थी अतः उसने आगे आने वाली अपभ्रंश और आधुनिक मराठी को अधिक प्रभावित किया है। प्राकृत और महाराष्ट्री भाषा का तुलनात्मक अध्ययन कई विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। यद्यपि महाराष्ट्री प्राकृत ही मराठीभाषा नहीं है। उसमें कई भाषाओं की प्रवृत्तियों का सम्मिश्रण है। फिर भी प्राकृत के तत्त्व मराठी में अधिक हैं। जो शब्द ५-६ठी शताब्दी के प्राकृत ग्रन्थों में प्रयुक्त होते थे वे भी आज की मराठी में सम्मिलित हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि प्राकृत और मराठी का सम्बन्ध बहुत पुराना है-भाषा और क्षेत्र दोनों की दृष्टि से । मराठी के वे कुछ शब्द यहाँ प्रस्तुत हैं जो प्राकृत साहित्य में भी प्रयुक्त हुए हैं तथा जिनके दोनों में समान अर्थ हैं। प्राकृत
अर्थ अणिय अणिया
अग्रभाग अंगोहलि आंघोल
गले तक का स्नान उन्दर उन्दीर
चूहा कच्छोट्ठ कासोटा
कटिवस्त्र करवती करवत
करवा कोल्लुग
कोल्हा गार
गार गुडिया गुठी तोटण
घोड़ा चिक्खल्ल
चिखल छेलि
सेलि छेप्प
शेपूटी जल्ल जाल
शरीर का मैल ढिंकुण ढेकूण
खटमल तुंड तोंड
मुह तक्क ताक
मठा सूती चादर
गीदड़ पत्थर
कीचड़
बकरी
तूलि
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जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
नेऊण पोट्ट
पेट
मेदणा
साला
प्राकृत मराठी
अर्थ णिरूत निरूते
निश्चय दद्दर दादर
सीढ़ी दोद्धि दूधी
लौकी नेऊन
ले जाकर पोट मुक्क मुकणो
भौंकना माउच्छिय माउसी
मौसी मेला मेला
मेला मेहुण रंगावलि रांगोली
रंगोली बाउल्ल बाहुली
गुड़िया सुण्ह कन्नड़, तमिल, तेलगु
केवल मराठी ही नहीं, अपितु दक्षिण भारत की अन्य भाषाएँ भी प्राकृत के प्रभाव से अछूती नहीं हैं। यद्यपि उनमें संस्कृत के शब्दों की अधिकता है तथापि उन्होंने लोक-भाषाओं से भी शब्दों का संग्रह किया है। दक्षिण की कन्नड़, तमिल, तेलगु मलयालम आदि भाषाओं में प्राकृत के तत्त्व विषय को लेकर स्वतन्त्र अनुसन्धान की आवश्यकता है । कुछ विद्वानों ने इस विषय पर कार्य भी किया है। इन भाषाओं में प्रयुक्त प्राकृत से विकसित कुछ शब्द इस प्रकार हैंप्राकृत
कन्नड़ ओलग्ग
ओलग, ओलगिसु सेवा करना करडा करडे
करटा कण्दल
मारना लड़ाई कुरर कुरी,कुरब
भेड़, गड़रिया कोट्ट कोटे
किला चबेड चप्पालि
ताली मारना देसिय देशिक
पथिक धगधग धाधगिसु
तेजी से चलना पल्लि पल्ली, हल्ली
गाँव पुल्लि पुलि, हुलि
बाघ पिसुण पिसुणि
कहना
अर्थ
कद
परिसंवाद-४
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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
प्राकृत
अत्रक
कडप्प
कुरर
कोह
पिल्लम
प्राकृत
कडप्प
कुरुलु
चबेड
डोम्बि
पुल्लि
राष्ट्रभाषा हिन्दी और प्राकृत
प्राकृत
अक्खाड
अरहट्ठ
उक्खल
उल्लुट
कक्कडी
कहारो
कोइला
कुहाड
खट्टीक
३८
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में हिन्दी का प्रमुख स्थान है । देश के अधिकांश लोगों द्वारा यह बोली जाती है । राष्ट्रभाषा होने का गौरव इसे प्राप्त है । देश के विभिन्न भागों और भाषाओं की सम्पर्क भाषा होने के कारण हिन्दी में विभिन्न भाषाओं के शब्द भी सम्मिलित हो गये हैं । संस्कृत के शब्द भी इसमें ग्रहीत किये गये हैं, किन्तु हिन्दी में प्राकृत अपभ्रंश जैसी लोक भाषाओं के शब्द भी कम नहीं हैं । यदि इन शब्दों की जानकारी हो तो हिन्दी के हरेक शब्द की व्युत्पत्ति के लिए संस्कृत पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा । हेमचन्द्र की देशीनाममाला तथा प्राकृत अपभ्रंश के अन्य ग्रन्थों के वे कुछ शब्द यहाँ उद्धृत हैं जो हिन्दी में सीधे ग्रहण कर लिये गये तथा उनके अर्थ में भी कोई परिवर्तन नहीं आया है ।
हिन्दी
अखाड़ा
रहट
ओखली
उलटा
ककड़ी
तमिल
अक्का
कलप्पइ
कोरि
कोट्टइ
पिल्लइ
तेलगु
कलपे
कुहाड़ा
खटीक
कुरुलु
चप्पट
डो निलि
कहार
कोयला
प्राकृत
चिड़िय
चारो
चुल्लि
चोक्ख
छइल्लो
छल्लि
झमाल
झाडं
झंझडिया
अर्थ
माँ
समूह
भेड़
किला
पशु का छोटा बच्चा
अर्थ
समूह
घुंघराले बाल
ताली बजाना
भगिन
बाघ
हिन्दी चिड़िया
चारा
चूल्हा
चोखा
छैला
२९७
छाल
झमेला
झाड़
झंझट
परिसंवाद -४
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२९८
प्राकृत
खलहान खड्ड खल्ल गंठी गड गोबर चाउला बेट्टिय बड्डा पोट्टली
हिन्दी खलिहान खडडा खाल गांठ गड्डा गोबर चांवल
जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन
प्राकृत हिन्दी डोरो
डोर तग्गं
तागा डाली
डाली थिग्गल
थेगला नाई
नाई बप्प
बाप बइल्ल
बैल भल्ल सलोण सलौना साडी साड़ी
बेटी
बड़ा पोटली
कुट्ट
भिडइ
खुद्द
डंस
हिन्दी भाषा में प्राकृत शब्द ही नहीं ग्रहण किये गये हैं, अपितु बहुत सी हिन्दी की क्रियाएँ भी प्राकृत की हैं । तुलनात्मक दृष्टि से कुछ क्रियाएँ द्रष्टव्य हैं । प्राकृत हिन्दी
प्राकृत
हिन्दी उड्ड उड़ना झिल्लिअ
झेलना कड्ढ काढ़ना देक्ख
देखना कूदना बुज्झ
बुझना कूटना पिट्ट
पीटना खेल्ल खेलना
भिड़ना खोदना बोल्ल
बोलना चुक्क चूकना
डसना चुण्ण चुगना संभलिय
संभलना चमक्क
चमकना बइठ छड्ड
छोड़ना पिंजिय
छूटना भेट्टिआ भेटना छोल्लिअ
छोलना निक्काल निकलना जाग जागना लुक्कइ
लुकना जोडिया जोड़ना पल्लट्ट
पलटना झुल्लवि झूलना हल्लइ
हलना शब्द और धातुओं के अतिरिक्त प्राकृत को अन्य प्रवृत्तियां भी हिन्दी में परिलक्षित होती हैं । द्विवचन का प्रयोग नहीं होता, संयुक्त व्यंजनों में सरलीकरण है।
बैठना पीजना
छ
परिसंवाद-४
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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
२९९
विभक्तियों का अदर्शन तथा परसर्गो का प्रयोग प्राकृत अपभ्रंश के प्रभाव से हिन्दी में होने लग गया है | किसी भी जनभाषा के लिए इन प्रवृत्तियों से गुजरना स्वाभाविक है । वही हिन्दी भाषा जन-जन तक पहुंच सकती है, जो सुगम और सुबोध हो ।
इस प्रकार प्राकृत विभिन्न कालों और क्षेत्रों की भारतीय भाषाओं को निरन्तर प्रभावित करती रही है । आधुनिक भारतीय भाषाओं की संरचना और शब्द तथा धातुरूपों पर भी प्राकृत का स्पष्ट प्रभाव है । यह उसकी सरलता और जन- भाषा होने का प्रमाण है। न केवल भारतीय भाषाओं के विकास में अपितु इन भाषाओं के साहित्य की विभिन्न विधाओं को भी प्राकृत अपभ्रंश भाषाओं के साहित्य ने पुष्ट किया है । यह इस बात का प्रतीक है कि राष्ट्रीय एकता के निर्माण में भाषा कितना महत्त्वपूर्ण माध्यम होती है सुरक्षा भाषा की उदारता पर ही निर्भर है । प्राकृत अपभ्रंश भाषाएं उन्हीं का प्रभाव आज की भारतीय भाषाओं में है । शब्द संग्रहीत हो पाते हैं। डॉ० कत्रे के शब्दों में कहा जाय तो मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का भाषावैज्ञानिक दृष्टि से प्राचीन और नवीन भारतीय आर्य भाषाओं के निर्माण में स्पष्ट योगदान है और यह एक मजबूत कड़ी है, जो कि प्राचीन और नवीन को जोड़ती है।
।
संस्कृति की इस क्षेत्र में तभी उनमें
अग्रणी रही हैं । अनेक भाषाओं के
सन्दर्भ
१. सुकमार सेन, ए कम्पेरेटिव ग्रामर आफ मिडिल इण्डो आर्यन लेग्वेजेज ।
२. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण ।
३. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियां ।
४. उदयनारायण तिवारी, हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास ।
५. रत्ना श्रेयान, ए क्रिटीकल स्टडी आफ महापुराण आफ पुष्पदन्त ।
६ ए० एन० उपाध्ये, कन्नड वर्डस इन देशी लेक्जनस् ।
७. नामवर सिंह, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग । ८. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत एण्ड हिन्दी ।
९. नेमिचन्द्र शास्त्री, भोजपुरी भाषा में प्राकृत तत्त्व ।
१०. वशिष्ठ नारायण झा, प्राकृत एण्ड मैथिली । ११. के० बी० त्रिपाठी, प्राकृत एण्ड उड़िया । १२. प्रेमसुमन जैन, राजस्थानी भाषा में प्राकृत तत्त्व ।
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परिसंवाद -x
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________________ 300 जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन 13. आर० एन० दाण्डेकर, प्रोसीडिंग्स् आफ द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, 1969, पूना / 14. गिर्यसन, लिग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया, खण्ड 1, भाग 1 / 15. के० एम० मुन्शी, गुजराती एण्ड इटस् लिटरेचर / 16. तगारे, हिस्टारिकल ग्रामर आफ अपभ्रंश। 17. वीरेन्द्र श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन / 18. एस० एम० कत्रे, प्राकृत लेंग्वेजेज एण्ड देयर कन्ट्रीव्यूसनस् दु इण्डियन कल्चर / 19. एच० सी० भयाणी, अपभ्रंश एण्ड ओल्ड गुजराती स्टडीज / 20. सुनीति कुमार चटर्जी, ओरिजन एण्ड डेवलपमेंट आफ बंगाली लेग्वेज / 21. टर्नर, नेपाली-शब्दकोश / जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, ( राजस्थान ) परिसंवाद-४