Book Title: Pippal Gaccha Gurvavali
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पल गच्छ गुर्वावलि श्री भंवरलालजी नाहटा मध्यकालीन जैन इतिहास के साधनों में पट्टावलियों-गुर्वावलियों आदि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैन धर्म के प्रचारक आचार्यों की परंपरा अनेक शाखाओं में विभक्त हो गई। फलतः जैन गच्छों की संख्या सौ से अधिक पाई जाती है । पिप्पलगच्छ उन्हीं में से एक है जिसके प्राचार्यों की नामावलि सम्बन्धी कई रचनाएँ गुरु स्तुति, गुरु विवाहलउ, गुरु नुं धूल, गुरु माल, आदि पाई जाती हैं। इस गच्छ की पट्टावलि विस्तार से प्राप्त नहीं हुई, अतः जैसा चाहिए इस गच्छ का इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता और न ही प्राप्त रचनाओं में आचार्यों का समय आदि ही दिया हुआ है। मैं ये रचनाएँ कुछ वर्ष पूर्व एक प्रति से नकल कर के लाया था। वे कई वर्षों के पश्चात् यहाँ प्रकाशित की जा रही हैं । प्राप्त प्रतिमा-लेखों से स्पष्ट है किये रचनाएँ पिप्पल गच्छ की त्रिभविया शाखा से सम्बन्धित हैं। इस गच्छ की तालध्वजी आदि अन्य शाखाएँ भी थीं, पर उनकी पट्टावलियाँ प्राप्त नहीं हैं। प्रतिमा लेखों श्रादि से कुछ आचार्यों के नामों का ही पता चलता है। संस्कृत गुरु स्तुति से विदित होता है कि यह गच्छ चतुर्दशी को पाक्षिक पर्व मानता था । 1 बृहद्गच्छ ( बड़ गच्छ) की पट्टावलि से स्पष्ट है कि पिप्पल गच्छ वास्तव में उसकी एक शाखा जिस प्रकार उद्योतनसूरि ने बड़वृक्ष के नीचे आठ श्राचार्यों को श्राचार्यपद दिया और उनकी संतति बड़गच्छीय कहलाई, इसी प्रकार शांतिसूरि ने भी सिद्ध श्रावक कारित नेमिनाथ चैत्य में आठ शिष्यों को श्राचार्यपद दिया था । संभवतः पिप्पलक स्थान या पीपल वृक्ष के कारण इस गच्छ का नाम पिप्पलक या पीपलिया गच्छ पड़ा। खरतर गच्छ में भी इसी नाम की एक शाखा जिनवर्द्धनसूरि से चली । वह मालवे के किसी पीपलिया स्थान विशेष से सम्बन्धित प्रतीत होती है। पिप्पल गच्छ का उसी स्थान से सम्बन्ध है या नहीं, यह अन्वेषणीय है । इस गच्छ के प्रभावक श्राचार्य शांतिसूरि हुए। संस्कृत गुरु स्तुति के अनुसार चक्रेश्वरी देवी से श्राप पूजित थे और पृथ्वीचंद्र चरित श्रापने बनाया । जैसलमेर भंडार की सूची के अनुसार प्रस्तुत पृथ्वीचंद्र चरित की वीर सं. १६३१ वि. सं. १९६९ में मुनिचंद्र के लिये रचना हुई । ग्रंथ परिमाण ७५०० श्लोकों का है । प्राकृत भाषा में यह रचा गया और इसकी १६० पत्रों की ताड़पत्रीय प्रति सं. १२२५ में पाटण में लिखित जैसलमेर भंडार में प्राप्त है । " इगतीसाहिय सोलस सएहिं वासाण निव्वुए वीरे । कत्ति चरम तिहीए कित्तियरिक्खे परिसमत्तं ॥ जो सव्वदेव मुणिपुंगव दिक्खिएहिं साहित्ततक समएस सुसिक्खिएहिं ॥ संपावित्र्यो वर पयं सिरिचंद सूरि पूजहिं पक्खमुवगम्म गुणेसु भूरि ॥ संवेगं बुनिवा (या) एयं सिरि संतिसूरिणा तेरा । वजरियं वरचरियं मुणिचंद विशेयं वयगात्रो || उपर्युक्त प्रशस्ति से स्पष्ट है कि शांतिसूरि को सर्वदेवसूरि ने दीक्षित किया था और उन्होंने साहित्य, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आचार्य विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रंथ तर्क एवं दर्शनशास्त्र उन्हीं से सीखा था । श्राचार्यपद श्रीचंद्रसूरि से प्राप्त हुआ। जिस मुनिचंद्र शिष्य के वचन से इस चरित्र की रचना की गई वे शांतिसूरि द्वारा श्राचार्यपद पर स्थापित आठ आचार्यों से भिन्न थे। गुरु स्तुति में उन आठ आचार्यों के नाम ये हैं- १ महेन्द्रसूरि २ विजयसिंहसूरि, ३ देवेन्द्रचंद्रसूरि, ४ पद्मदेवसूरि, ५ पूर्णचंद्रसूरि, ६ जयदेवसूरि, ७ हेमप्रभसूरि और ८ जिनेश्वरसूरि । शांतिसूरि के सम्बन्ध में १७ वीं शताब्दि के दो उल्लेख मिलते हैं जिनके अनुसार आपने सात सौ श्रीमाली कुटुम्बों को श्रीमालनगर में प्रतिबोध दिया था । पिप्पलगच्छी गुरु बड़ा, श्री शांतिसूरि सुजान । प्रतिबोधिया कुल सातसई, श्रीमालपुर ईठाण । (सं. १६७२ थिरपुर में राजसागररचित लवकुश रास ) पुण्यसागर रचित अंजना सुंदरी चौपाई में जोकि सं. १६८९ में रची गई, शांतिसूरि के सम्बन्ध में निम्नोक्त विवरण दिया है। श्रीवड़ गच्छ गुरु गाइइ, शांतिसूरि गणधार । चक्रेसरी पद्मावती भगती करइ वार वार ॥ भंग व भाखी धूली कोट समेत । कुटुम्ब श्रीमाली सात सइ उगारयो गुरण हेत ॥ भोज चुरासी राज मइ, जीत्या वाद विशाल । शासन जिन सोभाविउ वादी विरुद वेताल || तिरण गच्छ पीपल थापीउ, आठ शाखा विस्तार । संवत रुद्र बावीसह, समइ हुई सुख कार ॥ ते गच्छ दीसई दीपतु, नयर साचोर मंझारि । वीर जिनेश्वरनुं तिहां, तीर्थ प्रगट उदार ॥ उपर्युक्त उद्धरण में वादी वेताल शांतिसूरि को पिप्पल गच्छ स्थापक शांतिसूर से श्रभिन्न माना है जो विचारणीय है । वादी वेताल शांतिसूरि से थारापद गच्छ प्रसिद्ध हुआ । प्रभावक्चरित्र के अनुसार सं. १०९६ में वादी वेताल शांतिसूरि का स्वर्गवास हो गया था और उनके गुरु का नाम विजयसिंहसूर था । एक ही नाम वाले समकालीन आचार्यों के सम्बन्ध में भूल या भ्रांति होना सहज है । कुछ बातें एक दूसरे के लिये भ्रमवश लिख दी जाती हैं। श्री मोहनलाल देशाई ने भी अपने "जैन साहित्यनो इतिहास " पृष्ठ २०६ में महाराजा भोज द्वारा सन्मानित वादी वेताल शांतिसूरि को पिपलगच्छ का स्थापक धर्मरत्न लघुवृत्तिका रचयिता माना है। दोनों श्राचायों के समय पर विचार करते हुए यह सही नहीं प्रतीत होता । पृथ्वीचंद्र चरित सं. ११६१ की रचना है। इधर बादी वेताल शांतिसूरि का स्वर्गवास सं. १०९६ में हो चुका था। अतः दोनों एक नहीं हो सकते। प्रभावक चरित्र पर्यालोचन में वादी वेताल शांतिसूरि रचित उत्तराध्ययन टीका और तिलक मंजरी टिप्पण का उल्लेख है, पर पाटण भंडार सूची के पृष्ठ ८७ के अनुसार तिलक मंजरी टिप्पण के रचयिता शांतिसूरि पूर्णतल गच्छ के थे । यथा श्री शांतिसूरिरिह श्रीमति पूर्णतले (ल्ले ) गच्छे वरो मतिमतां बहुशास्त्रवेत्ता नामयं विरचितं बहुधा विमृश्य संक्षेपतो वरमिदं बुध टिप्पिनं भोः । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पल गच्छ गुर्वावलि प्रभावकचरित्र में शांतिसूरि के ३२ शिष्य बतलाये हैं और उन्होंने मुनिचंद्रसूरि को पाटण में प्रमाणशास्त्र का अभ्यास कराया था, यह लिखा है। उपर्युक्त पृथ्वीचंद्र चरित भी मुनिचंद्र के कथन से रचा गया था । यदि वादी वेताल शांतिसूरि का स्वर्गवास १०९६ में हो गया तो वादी देवसूरि के गुरु मुनिचन्द्र सूरि का उनसे पढ़ना विचारणीय हो जाता है। वादिदेवसरि के प्रबन्ध के अनुसार उनका स्वर्गवास संवत् ११७८ में हुआ था। वादी वेताल के गुरु का नाम विजयसिंहसूरि था। तब पिप्पल गच्छ के स्थापक शांतिसूरि के शिष्य का नाम विजयसिंहसूरि था। इनकी श्राद्ध प्रतिक्रमण चूर्णी सं. ११८३ में रचित है । उसकी प्रशस्ति में सर्वदेवसूरि और श्री नेमचंद्रसूरि के शिष्य के रूप में शांतिसूरि का उल्लेख है। यथा-- श्री सम्बएव सिरी नेमचन्द नामधेया मुनीसरा गुणिणो होत्था तत्थ पसत्था तेसिं सीसा महामइणो जे पसमस निर्दसणं मुदही दक्खिन्न वारि वारस्स कव्व रयणाण रोहण, खाणी खमिणो अमियवाणी सिरियं संति मुणिंदा तेसिं सीसेण मंद मइणोवि आयरिय विजयसिंहेण, विरइया एस चुन्नीत्ति । १. अंजनारास की प्रशस्ति के अनुसार पिप्पलगच्छ की स्थापना सं. ११२२ में हुई थी, यह समय विचारणीय है। २. विजयसिंह सूरि-इनसे रचित श्राद्ध प्रतिक्रमणचूर्णी का उल्लेख ऊपर किया गया है। यह ४५९ श्लोक परिमाण की है। सं. ११८३ के चैत्र में इसकी रचना हुई। सं. १४६३ के लेख के अनुसार आपने सं० १२०८ में डीडला के मूलनायक की प्रतिष्ठा की थी। ३. देवभद्रसूरि, ४. धर्मघोषसूरि, ५. शीलभद्रसूरि, ६. पूर्णदेवसूरि-इनका विशेष वृत्तांत ज्ञात नहीं हैं । ७. विजयसेनसूरि-गुरु माला में इनको "पासदेव पट्ट उद्धरण" लिखा है। ८. धर्मदेवसूरि-इन्होंने गोहिलवाड़ के राजा सारंगदेव को देवी के प्रसाद से उसके तीन पूर्वजन्म बतलाए, इससे त्रिभविया नामक शाखा प्रसिद्ध हुई। थाराउद्र में घूघल को राना बनाया व तीन भव बतला के प्रतिबोधित किया। घूघल ने सरस्वती मंडप बनाया था। ९. धर्मचंद्रसूरि-इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति पर संवत् १३७१ का लेख प्रकाशित है। इन्होंने मोख राजा को संघपति बनाया। १०. धर्मरत्नसूरि-इनका विशेष वृत्तांत अज्ञात है। ११. धर्मतिलकसूरि-इनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा लेख सं. १४३७ का मिलता है। १२. धर्मसिंहसूरि-इनके उपदेश से गूदिय नगर में जैन मंदिर बना। १३. धर्मप्रभसूरि-ये थिरराज की पत्नी सिरिया देवी के पुत्र थे। पाल्ह और पेथ सौदागर ने इनकी प्राचार्यपद स्थापना का उत्सव किया। इन्होंने सं. १४४७ में चंद्रप्रभ मंदिर की प्रतिष्ठा की। गोहिलवाड़ के राजा सारंगदेव के राज्य व ठाकुर साधु के प्रति राज्य में चंद्रप्रभ मंदिर में मंत्री हेमा ने वीर प्रभु का जन्मोत्सव किया, इस उल्लेख वाली एक रचना प्राप्त हुई है। मंत्री हेमा द्वारा कल्पसूत्र बढ़वाने का भी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ उल्लेख है। गूंदी नगर में हिंसा निवारण का प्रतिबोध देकर श्रावक बनाये। आपके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा लेख सं. १४७६ तक के प्रकाशित हैं। १४. धर्मशेखरसूरि-इनके द्वाराप्रतिष्ठित प्रतिमात्रों के लेख सं. १४८४-८९-९७-१५०३-५-९ के प्रकाशित हैं। १५. धर्मसागरसूरि-आपके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के लेख सं. १५१७-२३-३७ के प्रकाशित हैं। आपके शिष्य विमलप्रभसूरि के पट्टधर सौभाग्यसागरसूरि के शिष्य राजसागर रचित प्रसन्नचंद्र राज रास सं. १६४७ थिरपुर और लव-कुश रास सं. १६७२ जेठ सुदी तीज थिरपुर में रचित प्राप्त है। १६. धर्मवल्लभसूरि-इनके द्वारा प्रतिष्टित प्रतिमा लेख सं. १५५३ के प्रकाशित हैं। गुर्वावलि में यहीं तक की प्राचार्यों की नामावलि मिलती है। अब अन्य साधनों के आधार से परवर्ती प्राचार्य आदि का परिचय दिया जा रहा है। १७. धर्मविमलसूरि-इनसे प्रतिष्ठित प्रतिमा का लेख सं. १५८७ का प्रकाशित है। संभव है यह धर्मवल्लभसूरि के पट्टधर हों। १८. धर्महर्षसरि अापके प्रशिष्य से लिखित सं. १६७० की प्रति का पष्पिकालेख जैन प्रशस्ति संग्रह में प्रकाशित है। इनके समकालीन पिप्पल गच्छ के अन्य प्राचार्य लक्ष्मीसागर का उल्लेख सं. १६३९ की प्रशस्ति में मिलता है। इन लक्ष्मीसागरसूरि के समय में ही पुण्यसागर ने नयप्रकाश रास सं. १६७७ एवं अंजना रास सं. १६८९ में रची। पिप्पलगच्छ की इस त्रिभविया शाखा का प्रभाव साचोर और थिरपुर में अधिक रहा, ऐसा प्रतीत होता है। संभव है वहाँ के भंडारों में कुछ अधिक सामग्री----पट्टावलि व इस गच्छ के रचित ग्रंथ प्राप्त हों। अब इस गच्छ की अन्य शाखाओं के कुछ प्राचार्यों के उल्लेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें यहाँ दिया जा रहा है। १. वीरदेवसूरि-इनका प्रशस्ति लेख सं. १४१४ का प्राप्त है। आपके शिष्य वीरप्रभसूरि के उल्लेख सं. १४५४-१४६१-१४६५ के ज्ञात हैं। इनके शिष्य "हीरानंदसूरि" अच्छे कवि थे। उनके रचित विद्याविलास पवाडो सं. १४८५, वस्तुपालतेजपालरास सं. १४९४, दशाणभद्ररास, जम्बूविवाहलो, कलिकालरास सं. १४८९, स्थूलिभद्र बारहमास प्राप्त है। बाबू के सं. १५०३ के लेख में वीरप्रभ के साथ हीरसूर का उल्लेख है। संभवतः वे हीरसूर आप ही हो। २. गुणरत्नसूरि-इनके प्रतिमा लेख सं. १५०७-१३-१७ के प्राप्त हैं। इनके समय में आणंदमेक ने कल्पसूत्र व कालिकाचार्य कथा की भास बनाई। प्रतिमा लेखों से आपकी शाखा का नाम 'तालध्वजि' व आपके पट्टधर गुणसागरसूरि [ले. सं. १५२४,२८,२९] होने का पता चलता है। गुणसागरसूरि के पट्टधर शांतिसूरि का सं. १५४६ का लेख प्रकाशित है। इनके अतिरिक्त और भी कई प्राचार्यों के नाम प्रतिमालेखों में मिलते हैं पर उनकी गुरुशिष्य परंपरा आदि का पता न मिलने के कारण यहां उनका उल्लेख नहीं किया गया। वास्तव में यह गच्छ १५ वी १६ वीं शताब्दि में खूब प्रभावशाली रहा है। फलतः इन दो शताब्दियों के पचासों प्रतिमालेख प्रकाशित मिलते हैं। उनसे उन अाचार्यों के समय का ही पता चलता है। विशेष विवरण तो पट्टावलियों के प्राप्त होने से ही मिल सकता है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पल गच्छ गुर्वावलि १७ वीं शताब्दि तक इस गच्छ के श्राचार्यों एवं विद्वानों के उल्लेख मिलते हैं। इसके पश्चात् इस गच्छ के प्राचार्य एवं यतिगरण कब तक कौन कौन हुए, इसके जानने के लिये कोई भी साधन प्राप्त नहीं है। ___ इस गच्छ के विद्वानों के रचित ग्रंथ बहुत ही थोड़े हैं। जिन चार पांच ग्रंथकारों का पता चला, उनका निर्देश ऊपर किया ही जा चुका है। इतने दीर्घ काल में इतने श्राचार्य व मुनिगण हुए हैं। उनका साहित्य अवश्य ही कुछ विशेष रूप से मिलना चाहिए या संभव है वह इस गच्छ के उपासकों के ज्ञानभंडारों में पड़ा हो । तथा उन ग्रंथों की प्रतिलिपियों का प्रचार अधिक न हो पाया जिससे वे रचनाएँ अज्ञात ही रह गई। पिप्पल गच्छ गुरुस्तुति जज्ञे वीरजिनासुधर्मगणभृत् तस्माच्च जम्बूस्ततः। संख्यातेषु गतेषु सूरिषु भुवि श्रीवज्रशाखाभवत् ॥ तस्यां चन्द्रकुलं मुनीन्द्रविपुलं तस्मिन् वृहद्गच्छता । तत्राभूयशसः प्रसादितकुकुभ्श्रीसर्वदेवप्रभुः ॥१॥ श्रीनेमिचन्द्राभिधसूरिरस्मात् जज्ञे जगन्नेत्रचकोरचन्द्रः । चारित्रलक्ष्मीललितांगहार प्रौप चापोरुशुभानुकारः ॥२॥ यादीन्द्रः कविपुङ्गवैकतिलकः सत्कीर्तिली(ला)सरः । क्रोड़फ्रीड़दशेषसजनमहो चारित्रचूड़ामणिः ॥३॥ नंद्यादुद्भतभाजनं स भगवान् श्रीशांतिसूरिप्रभुः । पृथ्वीचंद्रचरित्रसत्रमकरो यो विश्वदतोत्सवः ॥ ४ ॥ श्रीमन्महेन्द्रो विजयाख्यसिंहो देवेन्द्रचंद्रः शुचिपद्मदेवः। श्रीपूर्णचन्द्रो जयदेवसूरि हेमप्रभो नाम जिनेश्वरस्य ॥४॥ सिद्धश्रावकारिते निरुपमे श्रीनेमिचैत्ये पुरा । पूज्यैरष्टगुणा निजपदे संस्थापयांचक्रिरे ॥ श्रीमपिप्पलगच्छनायक तया विज्ञाय होराबलं । विख्याता भुवि शांतिसूरिगुरवः कुर्वन्तु वो मंगलम् ॥ ५ ॥ चक्रेश्वरी यस्य पुपोष पूजां सिद्धो भवद् यस्य गिरा नमस्यः । श्रीवृक्षगच्छाम्बरसप्तसप्तिः श्रीशांतिसूरिः सुगुरुर्बभूव ॥ ६॥ तदनु मदनुहंता शाशनो द्योतकारी, जयति विजयसिंहसूरि भूरिप्रतिष्ठः । सबलकलिविघातं संयमासिप्रहारैरकृतस्कृतपात्रं भव्य कोकैकभानु ॥७॥ तत्पट्टपंकेरुहराजहंसः श्रीदेवभद्रो गुणभृद्रराज । उवास यः सज्जनमानसेषु निर्दूषणखेलितशुद्धपक्षः ॥ ८॥ तदन्तरं निर्जितमोहमल्लः श्रीधर्मघोषः सुगुरुगरीयान् । संसारपूरेण तु नीयमानं रक्ष यो धार्मिकलोकमेक ॥ ६ ॥ सच्चन्द्रसूर्याविव तस्य पट्टे बभूवतुर्दोर्जायतौ गणेशौ । श्रीशीलभद्रः प्रथमः प्रवीणः सूरिस्ततः श्रीपर पूर्णदेवः ॥ १० ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ विजयसेनगुरुस्तदनंतरं विजयते वसुधातलमंडनः । निवडकमरिपून् समसायकैरपजहार विकारविरागवान् ॥ ११ ॥ भवत्रयं यः कलयांचकार ज्ञानोदधिरौतमवद्गणशः । नरेन्द्रसामन्तसहस्रवंद्यः श्रीधर्मदेवो जयताद्गणेशः॥ १२ ॥ तन्च...मुख्यो वृतस्य पक्षः चतुर्दशीपक्षविचारदक्षः । समग्रसिद्धांतविलासवेदी श्रीधर्मचन्द्रो जयताद्गगतां ॥ १३ ॥ तत्पशैलेन्द्रमृगेन्द्रतुल्यः श्रीधर्मरत्नसुगुरुश्चकास्ति । महाव्रतैः पंचभिरेव योसौ पंचाननत्वं बिभरांबभूव ॥ १४ ॥ स्तुतिं गुरूणां सुगुणैर्गरूणा दिनोदये यः पठति प्रमोदात् । तस्यानिशं भक्तितरंगभाजो लब्धिर्विशाला परिरम्भणी स्यात् ।। १५ ।। इति श्री गुरुस्तुति समाप्तः ॥ पीपल गच्छ गुरु विवाहलु पास जिणिदि पसाउ कीउ, धरिणिंद्रि जस अापिय ज्ञान । त्रिहं भव सुद्धि इम जाणीए । पीपल गच्छि संतूठिय, सरसति सतगुर सकति वखाणीइ ए ॥१॥ सारंग राय सुपरि कहीय, त्रिहुं भवंतर धर्मदेवसूरि ।...त्रिहुं भव सुद्धि सोल कला धर्मचंद्रसूरि, संघपति कीउ मोख नरिंद ।...त्रिहु भव सुद्धि आठ महासिध प्रगट हूय, तप तेज तरणि धर्मरत्नसूरि ।...त्रिहुं भव सुद्धि० धरमतिलकसूरि गुरुतिलको, तिहुयणि मोहिश्रो वाणि रसाल ।...त्रिहुं भव सुद्धि अनागत बुद्धि धर्म सिंघसूरि, गूदियनयरि प्रसाद मंडाविय ।...त्रिहुं भव सुद्धि० थिरराज सिरियाएविसुत बांधव, सहि जयवंत रवितलि।...त्रिहं भव सुद्धि० पाल्ह पेथ सौदागरूए, ठविय पाटसिरि धर्मप्रभसरि।...त्रिहं भव सुद्धि सतितालइ श्रीसंघ सहितो, देव चंद्रप्रभ प्रतिकराविय।...त्रिहुं भव सुद्धि० भविक त्रिभविया गुरु नमउ, जिम मन वंछित पामउ नवनिहि।...त्रिहं भव सुद्धि० ॥ इति गुरु वीवाहलु समाप्त ॥ गुरुनु धूल स्वामिणि सरसति वीनवू तुझप्रति, देवीय दइ इति विपुलमति।। भाव उपन्न चित्ति, सगुण गणधर भत्ति, भणिस भोलिम भवियण सुणउ ए॥ सवि सुणउ भवियण भणिस भोलिम, भत्ति चित्ति निरंतरो। सिद्धंत सारविचार संसइ, सवे भंजइ मनिवरो। नव तत्त नव रस रंगि रसना, वयणिवाणी जस तणी दिणिदिणिहि दहदिशि कित्ति अहनिशि, तूं पसाइं स्वामिणी ॥ स्वा० ॥१॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पल गच्छ गुर्वावलि पीपलगच्छ गुर गरुअो गणघर, श्रीयधर्मदेवसूरि हऊया प्रवर । त्रिभवन सुद्धि जस गुरिजगि भाखीउ, दाखीउ प्रगट प्रमाण पहु॥ पहु प्रगट दाखिय भब्ध भाखिय, राउ सारंग दे तणो। अनेकि नेकि प्रमाण पयड़ी, भगूं केता गुण घणा। श्रीधर्मचंद्रह चंदयम जगि, मोहतिमर विहंडणो। तस पाटि धम्महसूरि रयण्ह, गच्छ पीपल मंडणो । पीपल ॥२॥ य(जि?)णवर प्रणीत पयासीय, धम्म धर्मतिलकसूरि सूरिवर।। तस तणइ अनक्रमि श्रीय धर्मसंघ सूरि तासपाटि श्रीधर्मप्रभसूरि। तस पाटि धर्मप्रभसूरि, गुर वर ठामि गूंदी सोहए। अवध बध जन सयल, सावइ तीह प्रति पड़िबोह ए। गरूय गुर पन्नत तत्तह, झाय झाण निरंतरो।। कस्तूरि अगर कपूर चंदनि, धुव खेवइ यणवरो॥ यणवर० ॥ ३॥ जयवंतु यण शासणि सोहए, मोहए मणउ भवियण तणाए । सफल कला संपन्न सुहजि सुन्दर, मंदिर महिमानिधान नर ।। नरनिपुण सुंदर महिम मंदिर, चतुर गुर दया पुरो। विवेक विनय विचार वक्ता, न कोइ समवड़ि नरवरो । संगति सुखनधि शोक नासइ, घणउं बहु गुणवंतश्रो। कंमित्त मत प्रति सूरि सदगुर, तेजि तपि जयवंतउ ॥ जयवंतु० ।। ४ ।। ॥ इति गुर नु धुल समाप्त ॥ छः।। पीप्पल गच्छ गुर्वावलि-गुरहमाल वीरजिणेसर पाय, समरीय सरसति सामिणीय । वरणि, सुगुरुवर राय, पीपल गच्छ अलंकरण ।।१।। चंद्र गच्छि सुविसाल, संतिसूरि गुरु बरणीए। निम्मल कीर्ति माल, जगि सचराचर लहलह ए ॥ २॥ ... बोलई बाल गोपाल, सांतिसूरि जसु पयडु जगे। जीतउ दूसम कालु, विजयसंह सूरि तासु पटे ।। ३ ।। धर्मविजयु जणि कीधु, दूसम दल बलु निरजिणीउ । विजयसिंह सूरि लीधु, सुजस सबहू जगि सासतउ ॥४॥ तासपटि देव भद्र, सूरि राउ प्रसंसीए गरू उ गुणहसमुद्र, मानमहातमि अागलउ ।। ५ ।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्राचार्य विजयवल्लभरि स्मारक ग्रंथ धर्मघोष सूरि राउ, धरम माग प्रकास करो । प्रह ऊठी गुरु पाय, पणमउ भविया एक मनि ॥ ६ ॥ अविचल जिरणवरु धम्म, श्रविचलु संजम भरु लियउ । धम्मघोष सूरि जम्मु, धनु धनु महि मंडलि भराउ || ७ || तसु पटि गरु प्रमाणु, सीलभद्र सूरिहि रयणु । कल गंजिय माण, पूर्णदेवसूरि वरणी ॥ ८ ॥ विजयसेन सूरि जाणि, पासदेव पट उद्धरण । महिमा मान प्रमाणि, महिमंडल महिमागलउ ॥ ६ ॥ धनु धनु धर्मदेव सूरि, सारंग रा प्रतिबोधिउ । ऊगमतइ नितु सूरि, सुहगुरु नितु नितु परणमीए ॥ १० ॥ त्रिनिभव सारंग राय, देवा सिंहिं गुरि कहीय । घूघल जग विक्खाय, पड़िवोही त्रिनि भत्र कहीया ॥ ११ ॥ घूघल राणि कीधु, थारा उद्रे वर नयरे । उतिम जगि जस लीधु, सरसति मंडपु कारविउ ॥ १२ ॥ गोम गुरु निसंकु, धर्मदेव सूरि अवतरिउ । तसुपटि गयण मयंक, धर्मचंद्र सूरि गुरु रयणु ॥ १३ ॥ मण महा भड़ माण, लीलां दूसमि निरजिणीउ । धरम रत्न सूरि जाणु, धम्म धुरंधर अवतरिउ ॥ १४ ॥ धर्म तिलक सूरि धीरु, पींपल गच्छह मंडणउ । मोह मय भड़ वीरु, जीत लीला बाहुबले ॥ १५ ॥ धरमसिंह सूरि सीहु, विसम महाभड़ वसि करण । धरम काज धुरि लीह, लहइ वीरु कविता गुणिहिं ॥ १६ ॥ सुपटि महिलि भाणु, धर्मप्रभसूरि गुरु गरुनो गुणि- । आगम छंद प्रमाण जाण, राउ जयवंतु जगे ॥ १७ ॥ सुललित वाणि रसालु, धर्मशेखर सूरि गुरु पवरो । नामिहिं ऋधि विसालु, जगि जयवंता जाणीइ ए ॥ १८ ॥ राय राणा दीइ मान, गरूया गुरु गुण गाईइ ए । पार न लाभइ जान, धर्मसागर सूरि धर्म निधे ॥ १६ ॥ महिमावंत अपार, श्री धर्मवल्लभ सूरि जगि जागी ए ज्ञान तर उ भंडार, बालापणि पट ऊधरउ ए ॥ २० ॥ गुण गण रयण विशाल, गुरह माल भवियरण सुखउ । मूली मोह जाल, भव समुद्द लीलां तरउ ॥ २१ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पल गच्छ गुर्वावलि वीर जन्मोत्सव में जिणवर जन्मि करइ सोमाई, तह नई राखइ देवि बाई । पीपल गच्छ परधान सुगीजर, श्री धर्मप्रभ सूरि प्रणमीजइ ॥ ५ ॥ साहित्य प्रति साहस धीरो, श्री सारंगदेव गुण गम्भीरो । कल्पवंचावर साहसधीरो, हेमु मंत्री ऋति सविचारो ॥ ६ ॥ ५ वीरजन्माभिषेक सौधर्म्मवासी वरदो विमान: द्वात्रिंशलक्षाधिपः समानाः । सौधर्म्मनामा हरिराजगाम श्रीवीर जन्मोत्सवकर्तुकामः ॥ १ ॥ पूर्व सम्मदः पूर्व दिक्पतिः पूर्वदिग्मुख । स्नान सिंहासनं भेजे शक्रः क्रोड़ीकृतुप्रभुः ॥ २ ॥ हो भविक लोको ! धर्म्म प्रभावको द्वादशत्रतपालकु सावधानतया समाकर्यता 'हो भविक लोक पुण्य प्रभाव ! सावधान थिका सांमलुः । हुं सौधर्म्मइ देवलोकि । सौधर्म्मवतंसि विमानि बत्रीस लाख विमान तराइ परिवारि नेकि देव देवांगना तेहे परवर्यु हुंतु । ईराइ भरतखेत्रि मध्यम खंडि गोहिलवाड देसि राजि श्री सारंगदेव तराइ राजि । ठाकुर साधु तरणइ प्रतिराजि आाठमा तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभस्वामि तराइ भुवनि । श्री धर्म्मप्रभसूरि तराइ कल्पि वाच्यमानि मंत्रीश्वर हेमा तराइ उपरोधि चरम तीर्थंकर श्री महावीर तर जन्म जाणी महोच्छव करिवा श्रव्या छउं ॥ छ ॥ इशानवासी वर इन्द्रराजश्चतुर्भुज, शूलधृतौ करौ च । वृषेण श्राद्यो वृषवाहनश्च देवैः कृतं पुष्पकमास्थितोहं ॥ १ ॥ इहांतरे घोषनिनादत्रोधितो धृतो विमानैरिह चागतोहं । संख्येय लख्यैः किल अष्टविंशतैः समागतो वीरमहोत्सवेन ॥ २ ॥ ईशानकल्पादुत्तीर्य तिर्यग् दक्षिणवर्त्मना । एत्यं नंदीश्वरं दक्ष्यैशाना रतिकरे गिरौ ॥ ३ ॥ श्रावकाः पुण्यप्रभावकाः सकलकल्याणकारकाः सावधानतया श्रूयतां । मीशानदेवलोक तर अष्टाविंशति विमान लक्षैरिह वीरमहोत्सवेन गुंदिकायां समागतो वर्त्तामहे ॥ अहो श्रावकु पुण्यप्रभावकु सकल कल्याणकारक सावधान थिका सांभलु । हुं ईशान देवलोक तु श्रठावीस लाख विमान तणउ अधिपति स्वामी । शूलपाणी वृषभवाहन हुंतउ । महाघोषा घंटा तराइ निनादि करी । पुष्पकविमानरूढः ईशान कल्पतु दक्षिण दिशिई ऊतरी नंदीश्वर तराइ मात्रिं श्रावी गुहिलवाडि देसि राज श्री सारंगदेव तराइ राजि ॥ १ ॥ छ ॥ २१ सनत्कुमाराधिपतिः सुरेन्द्रः समागतो जन्म महोत्सवाय । महच्चभत्त्याभिरभार संयुतः सुरासुरैः कांचनचूलिकायां ॥ १ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ श्रागाद्वादशभिर्लक्षैः वृतो वैमानकैः सुरैः।। सनत्कुमारः सुमानो विमानस्थः प्रभो पुरः / / 2 / / अहो भविक लोको धर्मार्थसार्थको द्वादशव्रत पालकः सावधानतया श्रूयतां / अहो! पुण्यप्रभावकु श्रावकु सावधान थिका सांभलउ। हूंबार लक्ष विमान तणउ अधिपति स्वामी अनेकि देव देवी तणे परिवारि परिवर्यउ हुँतउ ईणई जंबूद्वीप दक्षिण भरतार्द्धि मधिमखंडि गोहिलवाडि देशि राज श्री सारंगदेव तण राजि ॥१॥छ॥ माहेन्द्राधिपतिः सुरासुरव्रतो संसेव्यते स्वर्गम् / लक्षाष्टाधिप संश्रितो सुरवधू संवीज्यते...चारै / / इत्थं वीरमहोत्सवं च विधिना ज्ञात्वा हरि संस्मृन् / श्रीवत्सांकित नाम देवसदनं हेमं विमानं श्रितं // 1 // माहेन्द्राष्ट विमाने लक्ष्यैर्युक्तो महर्द्धिभिः। श्री वत्साख्य विमानेन प्रभो रम्यएर्णमागतम् / / 2 / / METERANA - MA: