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पिप्पल गच्छ गुर्वावलि
प्रभावकचरित्र में शांतिसूरि के ३२ शिष्य बतलाये हैं और उन्होंने मुनिचंद्रसूरि को पाटण में प्रमाणशास्त्र का अभ्यास कराया था, यह लिखा है। उपर्युक्त पृथ्वीचंद्र चरित भी मुनिचंद्र के कथन से रचा गया था । यदि वादी वेताल शांतिसूरि का स्वर्गवास १०९६ में हो गया तो वादी देवसूरि के गुरु मुनिचन्द्र सूरि का उनसे पढ़ना विचारणीय हो जाता है। वादिदेवसरि के प्रबन्ध के अनुसार उनका स्वर्गवास संवत् ११७८ में हुआ था।
वादी वेताल के गुरु का नाम विजयसिंहसूरि था। तब पिप्पल गच्छ के स्थापक शांतिसूरि के शिष्य का नाम विजयसिंहसूरि था। इनकी श्राद्ध प्रतिक्रमण चूर्णी सं. ११८३ में रचित है । उसकी प्रशस्ति में सर्वदेवसूरि और श्री नेमचंद्रसूरि के शिष्य के रूप में शांतिसूरि का उल्लेख है। यथा--
श्री सम्बएव सिरी नेमचन्द नामधेया मुनीसरा गुणिणो होत्था तत्थ पसत्था तेसिं सीसा महामइणो जे पसमस निर्दसणं मुदही दक्खिन्न वारि वारस्स कव्व रयणाण रोहण, खाणी खमिणो अमियवाणी सिरियं संति मुणिंदा तेसिं सीसेण मंद मइणोवि
आयरिय विजयसिंहेण, विरइया एस चुन्नीत्ति । १. अंजनारास की प्रशस्ति के अनुसार पिप्पलगच्छ की स्थापना सं. ११२२ में हुई थी, यह समय विचारणीय है।
२. विजयसिंह सूरि-इनसे रचित श्राद्ध प्रतिक्रमणचूर्णी का उल्लेख ऊपर किया गया है। यह ४५९ श्लोक परिमाण की है। सं. ११८३ के चैत्र में इसकी रचना हुई। सं. १४६३ के लेख के अनुसार आपने सं० १२०८ में डीडला के मूलनायक की प्रतिष्ठा की थी।
३. देवभद्रसूरि, ४. धर्मघोषसूरि, ५. शीलभद्रसूरि, ६. पूर्णदेवसूरि-इनका विशेष वृत्तांत ज्ञात नहीं हैं । ७. विजयसेनसूरि-गुरु माला में इनको "पासदेव पट्ट उद्धरण" लिखा है।
८. धर्मदेवसूरि-इन्होंने गोहिलवाड़ के राजा सारंगदेव को देवी के प्रसाद से उसके तीन पूर्वजन्म बतलाए, इससे त्रिभविया नामक शाखा प्रसिद्ध हुई। थाराउद्र में घूघल को राना बनाया व तीन भव बतला के प्रतिबोधित किया। घूघल ने सरस्वती मंडप बनाया था।
९. धर्मचंद्रसूरि-इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति पर संवत् १३७१ का लेख प्रकाशित है। इन्होंने मोख राजा को संघपति बनाया।
१०. धर्मरत्नसूरि-इनका विशेष वृत्तांत अज्ञात है। ११. धर्मतिलकसूरि-इनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा लेख सं. १४३७ का मिलता है। १२. धर्मसिंहसूरि-इनके उपदेश से गूदिय नगर में जैन मंदिर बना।
१३. धर्मप्रभसूरि-ये थिरराज की पत्नी सिरिया देवी के पुत्र थे। पाल्ह और पेथ सौदागर ने इनकी प्राचार्यपद स्थापना का उत्सव किया। इन्होंने सं. १४४७ में चंद्रप्रभ मंदिर की प्रतिष्ठा की। गोहिलवाड़ के राजा सारंगदेव के राज्य व ठाकुर साधु के प्रति राज्य में चंद्रप्रभ मंदिर में मंत्री हेमा ने वीर प्रभु का जन्मोत्सव किया, इस उल्लेख वाली एक रचना प्राप्त हुई है। मंत्री हेमा द्वारा कल्पसूत्र बढ़वाने का भी
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