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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
पर्यावरण प्रदूषण और जैन दृष्टि
-डॉ. सुषमा
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में अन्यतम । में वैचारिक प्रदूषण का (मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण) का
है। इसका प्रारम्भ कब और किसके द्वारा हुआ अथवा इस संस्कृति परिगणन नहीं हुआ है। यद्यपि प्रदूषण के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्त्व SSOS का बीजवपन किन द्वारा हुआ, इस प्रसंग में भिन्न-भिन्न विद्वानों के इसका ही है। इसके अप्रदूषित रहने पर शेष के प्रदूषण की
भिन्न-भिन्न मत हैं। एक परम्परा वेदों को आदि ज्ञान मानती है और सम्भावना कम से कम होती है। वैचारिक प्रदूषण के अभाव से उन्हें ही भारतीय संस्कृति का मूल स्वीकार करती है। इसके विपरीत व्यक्ति निरन्तर सचेष्ट रहेगा कि उसके किसी भी व्यवहार से जल, दूसरी परम्परा सृष्टि को अनादि मानकर वर्तमान संस्कृति का वायु, भूमि, अन्तरिक्ष, द्यु आदि कोई भी प्रदूषित न होने पाएं। प्रारम्भ आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव से मानती है।
इस प्रकार वैचारिक प्रदूषण को सम्मिलित कर लेने से उसके __ हम प्रायः अनेकानेक प्राचीन ग्रन्थों में ऋषि-मुनि शब्दों का
भेदोपभेदों के कारण पर्यावरण प्रदूषण के अनेक प्रकार हो प्रयोग एक साथ प्राप्त करते हैं। 'ऋषि' शब्द वैदिक परम्परा के
सकते हैं। तत्त्वज्ञानियों के लिए प्रयुक्त और 'मुनि' शब्द जैन परम्परा में पर्यावरण प्रदूषण का नाम लेने पर स्थूल रूप से हमारा ध्यान आदरणीय तत्त्वदर्शियों के लिए व्यवहृत होता है। इन दोनों शब्दों जल, वायु, पृथ्वी, अन्तरिक्ष आदि की ओर जाता है। प्राचीनका युग्म के रूप में प्रयोग देखकर यह मानना अनुचित न होगा कि काल में जब भारतीय संस्कृति अपने तेजस्वी रूप में प्रतिष्ठित थी, भारतीय संस्कृति के बीज वपन से लेकर अधुनातन विकास पर्यन्त उसके फलस्वरूप जन-जन के विचारों में शुद्धता, समता, दोनों परम्पराओं का समान रूप से योगदान रहा है। दोनों की परोपकारिता आदि गुण विद्यमान थे, उस समय पर्यावरण प्रदूषण अपनी-अपनी मान्यताएँ इतर परम्परा में इस प्रकार प्रतिबिम्बित हुई की समस्या नहीं रही है। उस काल में अग्नि, जल, वायु पृथ्वी हैं कि उन्हें बहुत बार अलग से देख पाना सम्भव नहीं है। अतएव आदि को देवता के रूप में अथवा माता के रूप में स्वीकार किया मैं वैदिक परम्परा में प्राप्त कुछ संकेतों को भी जैन दृष्टि से पृथक जाता था उनको परिशुद्ध बनाये रखने के लिए समाज अत्यन्त नहीं सोच सकती।
गतिशील था। आलेख के पस्तत विषय पर्यावरण की सीमा बहुत व्यापक है। वर्तमान समय में जब मानव विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति करता इसमें जल, वाय, पृथ्वी, आकाश (ध्वनि), ऊर्जा और मानव चेतना हुआ प्रकृति और उसके अंग-पृथ्वी आदि के प्रति मातत्व की
आदि सभी को संगृहीत किया जाता है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन । भावना को भुला बैठा है और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए इतिहास ग्रन्थ महाभारत में पर्यावरण के अन्तर्गत पृथ्वी, जल,
लालायित हो उठा है, तो अनजाने ही उसके हाथों से प्रकृति के DDA अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ की। सभी अंगों का प्रदूषण प्रारम्भ हो गया है। फलतः आज प्रकृति का 1299 गणना की गयी है।
प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि विचारशील वैज्ञानिक प्रदूषण के
प्रसंग में चिन्तित हो उठे हैं और वे अनुभव करने लगे हैं कि वैदिक परम्परा में धु. अन्तरिक्ष, पृथिवी, जल, औषधि,
प्रदूषण के फलस्वरूप पृथ्वी का तापमान बढ़ने लगा है। यदि यही वनस्पति और इनके बाद विश्वदेव नाम से पर्यावरण के अन्य अंगों
क्रम रहा तो सम्भावना है कि अगले २७ वर्षों के अन्दर पृथ्वी के की ओर संकत किया गया है। एवं इन्हें निर्दोष तथा शान्तिदायी
तापमान में न्यूनतम दो डिग्री सेन्टीग्रेड की वृद्धि हो जायेगी, (उपयोगी) बनाये रखने की कामना की गयी है। प्रकृति के उन
परिणामतः हिम पिघलकर जल के रूप में समुद्रों में इतना पहुँचेगा तत्त्वों में विजातीय हानिकारक तत्त्वों के मिश्रण से प्रायः प्रदूषण
कि मालद्वीप जैसे द्वीप समुद्र की गोद में समा जायेंगे। भारत, उत्पन्न होता है, जिसे वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण के नाम से जाना
बांगला देश और मिश्र जैसे समुद्रतटीय देशों का अस्तित्व भी जाता है।
संदिग्ध हो जायेगा। विगत् कुछ वर्षों में भी इस उष्णतावृद्धि के आधुनिक विचारकों ने पर्यावरण प्रदूषण के सामान्यतः आठ फलस्वरूप जो समुद्री तूफान बार-बार आये हैं, उनमें १९६३ में विभाग किये हैं-१. जल प्रदूषण, २. वायु प्रदूषण, ३. मृदा प्रदूषण, २२००, १९६५ में ५७००, १९७० में ५०,000 और १९८५ ४. ध्वनि प्रदूषण, ५. रेडियोधर्मी, ६. जैव प्रदूषण, ७. रासायनिक में १०,000 व्यक्ति अपना जीवन खो बैठे हैं। २९-३० नवम्बर प्रदूषण और ८. वैद्युत प्रदूषण। पर्यावरण प्रदूषण के इस विभाजन १९८८ का तूफान भी प्रलयकारी रहा है। इनके अतिरिक्त अन्य में प्रथम तीन तो वे आधार हैं, जिनमें प्रदूषण होता है तथा शेष छोटे-बड़े तूफानों में भी जो धन-जन की हानि हुई है, वह अत्यन्त पांच प्रदूषण के कारण हैं। पर्यावरण प्रदूषण के इन आठ विभागों भयावह तथा चौंकाने वाली है।
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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पर्यावरण प्रदूषण के मूल कारण-जैसा कि पहले संकेत किया
पालन अणुव्रत और महाव्रत के रूप में निर्धारित किया गया है। जा चुका है कि स्थूल पर्यावरण प्रदूषण के पीछे वैचारिक प्रदूषण क्योंकि तत्त्वदर्शी तीर्थंकरों ने यह अनुभव किया कि यदि अहिंसा मुख्य कारण हुआ करता है और उस वैचारिक प्रदूषण में भी
का पालन न किया गया तो कालान्तर में प्रकृति के असंतुलन से संकुचित स्वार्थ, लोभ, विषयवासना और उसकी पूर्ति के लिए उत्पन्न भूमि, जल और वायु का प्रदूषण कभी भी प्रलयंकारी हो साधन एकत्र करने की प्रवृत्ति कारण हुआ करती है। फलस्वरूप
सकता है। प्रदूषित विचारों वाला मानव जीवहिंसा, मित्रवृत्ति का नाश, असंतुलित तीव्र औद्योगीकरण, शहरीकरण आदि में प्रवृत्त
भगवान् महावीर ने पृथ्वीकाय की हिंसा का निषेध करते B RE होता है।
हुए कहा है-'जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं
पुढवि सत्थं समारंभेमाणे अण्णेवेणेगरूवे पाणे विहिंसई तं परिण्णाय 2000 जीवहिंसा-प्रकृति ने विविध जीव-जन्तुओं को इस रूप में
मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्यं समारंभेज्जा नेवऽण्णेहिं पुढवि-सत्थ उत्पन्न किया कि वे कभी परस्पर शत्रुता के कारण, कभी अपने
समारंभावेज्जा नेवण्णे पुढवि-सत्यं समारंभे ते समणुजाणेज्जा।'४ शरीर से निकलने वाली गन्ध के कारण प्रकृति का सन्तुलन बनाये
अर्थात् नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त रखते हैं। उदाहरणार्थ, कृषि को हानि पहुँचाने वाले अनेक कीड़ों
होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करने वाला व्यक्ति नाना प्रकार को मेढ़क और चूहे आदि समाप्त करते हैं किन्तु उनकी वृद्धि भी
के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। मेधावी पुरुष हिंसा के अधिक हानिकर हो सकती है, इसलिए प्रकृति ने सों को उत्पन्न
परिणाम को जानकर स्वयं पृथ्वी शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों कर दिया है, जो चूहों और मेढ़क आदि को आहार बनाकर
से उसका समारंभ न करवाये, उसका समारंभ करने वालों का PROOP संतुलन बनाये रखने में अपना योगदान करते हैं। सो की
| अनुमोदन भी न करे। आज अनेक प्रकार के खनिज पदार्थों के अधिकता भी भयावह हो सकती है, इसलिए मयूर, चील्ह आदि
लिए विशेषकर पत्थर के कोयले के लिए पृथ्वी का जबरदस्त पक्षी प्रकृति ने उत्पन्न किये हैं, जो सर्यों की संख्या को भी नियंत्रित
दोहन किया जा रहा है। पत्थर के कोयले के जलने, उसकी धूल, किये रहते हैं। वनों में उत्पन्न घास कई बार महत्त्वपूर्ण औषधियों
कार्बनडाईऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड तथा कुछ अन्य और वृक्षों की वृद्धि में बाधक होती है, इसलिए प्रकृति ने हरिण
ऑर्गेनिक गैसों के रूप में प्रदूषणकारी पदार्थों की भरमार हो गयी बनाये हैं, जो चरकर बाधक तृणों को समाप्त करते हैं। किन्तु
है। यदि पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा बन्द कर दी जाये, तो 2000 हरिणों की संख्या यदि अधिक हो जाए, तो वे खेतों की फसलों
कोयला तो बचेगा ही, वायु प्रदूषण पर भी नियंत्रण किया जा और तमाम उपयोगी पेड़-पौधों को नष्ट कर सकते हैं, उनके तथा
सकेगा। इस प्रकार पृथ्वीकाय की हिंसा केवल पृथ्वीकाय की हिंसा इसी प्रकार अन्य पशुओं के नियमन के लिए प्रकृति ने भेड़िया,
ही नहीं है, अपितु उसके साथ वातावरण के संतुलन का भी चीता, तेन्दुआ, बाघ और सिंह जैसे मांसाहारी पशुओं की रचना
कारण है। की है। इनमें सर्वाधिक शक्तिशाली सिंहों का उपद्रव पीड़ादायी न हो, इसलिए एक तो उनकी संख्या कम रहती है एवं दूसरे प्रकृति ने ए जीवनमित्र वृक्षों का नाश (वानस्पतिक प्रदूषण)-पर्यावरण के 0 a4 उनका स्वभाव ऐसा बना दिया है कि वे क्षुधित होने पर ही किसी । संरक्षण में वृक्षों का सर्वाधिक महत्त्व है। सामान्य रूप से वृक्ष प्राणी की हिंसा करते हैं, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार जल में मल को मनुष्यों के द्वारा दूषित वायु के रूप में निष्कासित अथवा प्रकृति समाप्त करने के लिए प्रकृति ने छोटी-छोटी मछलियों, केकड़ों, शंख, के भिन्न-भिन्न तत्त्वों के संसर्ग से स्वतः उत्पन्न होने वाली कछुआ आदि जलचरों की रचना की है और उन जलचरों में भी कार्बनडाइऑक्साइड आदि गैसों को आहार के रूप में ग्रहण करते उत्तरोत्तर दीर्घकाय तिमि, तिमिंगिल, तिमिंगिलगिल और ह्वेल आदि । हैं और उनसे सुपुष्ट होते हैं। इसके बदले में वे मानव-जीवन के जलचरों को भी उत्पन्न किया है।
लिए अत्यन्त आवश्यक ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिसके फलस्वरूप सामान्य पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए प्रकृति की यह
वायु में प्रदूषण उत्पन्न नहीं हो पाता। कार्बनडाइऑक्साइड ग्रहण
वायुम प्रदूषण उत्प व्यवस्था रही है। परन्तु स्वार्थी मानव कभी जिह्वा के स्वाद के लिए
करने का यह कार्य वृक्ष प्रायः रात्रि में करते हैं और प्रातः कभी शारीरिक शक्ति प्राप्त करने के नाम पर, कभी सौन्दर्य
ऑक्सीजन छोड़ते हैं। पीपल आदि वृक्ष ऐसे भी हैं जो मानों प्रसाधन के लिए और कभी घर की साज-सज्जा के लिए इन
ऑक्सीजन के भण्डार हैं और वे रात्रि में भी प्रभूत मात्रा में जीव-जन्तुओं की हिंसा करने में प्रवृत्त हो गया। यह जीवहिंसा ऑक्सीजन विसर्जित करते हैं। नीम, अशोक आदि कुछ वृक्ष ऐसे उत्तरोत्तर बढ़ती गयी और आज भूमि, जल और वायु का प्रदूषण हैं, जो अन्य अनेक प्रकार के वायुगत प्रदूषणों को समाप्त करके बढ़ाने में हेतु बन गयी। जैन आचार संहिता में श्रावक और श्रमण पर्यावरण, में संतुलन बनाये रखते हुए मनुष्य को स्वास्थ्य प्रदान दोनों के लिए अपने कर्त्तव्य और सामर्थ्य के अनुरूप अहिंसा का करते हैं।
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वृक्षों का एक और महत्त्व भी है। वे भोजन के लिए अपनी जिन जड़ों के द्वारा भूमिगत जलग्रहण करते हैं, उन्हीं जड़ों के द्वारा भूमि को बांधने का भी काम करते हैं, जिससे भूमिक्षरण नही होता। फलतः भूमिक्षरण से होने वाले प्रदूषण से सुरक्षा हो जाती है। पीपल, बांस आदि वृक्ष इस दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। भूमि के कटाव को रोकने के लिए इनका योगदान अविस्मरणीय है।
पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दृष्टि से वृक्षों का एक कार्य और महत्त्वपूर्ण है, यह है वायु की गति में अवरोध उत्पन्न करके बादलों को बरसने के लिए विवश करना। जहाँ वृष्टि से वृक्ष, वनस्पति बढ़ते हैं, फलते-फूलते हैं, वहीं उपर्युक्त प्रकार से वृक्ष वर्षा के प्रति कारण भी बनते हैं। इसके साथ ही वर्षा के माध्यम से भूमि पर आये हुए जल को सम्भाल कर रखने में भी वृक्षों और वनस्पतियों का बड़ा योगदान है।
जीव-जन्तुओं को सुरक्षित रखने के क्रम में वृक्षों का महत्त्व सर्वाधिक है। वृक्षों से प्राप्त फल, बीज, पुष्प और पत्र आहार के रूप में तथा सूखे काष्ठ इंधन के रूप में मनुष्य के आहार का सम्पादन करते हैं। अनेक वृक्ष और वनस्पतियाँ अपने विविध अंगों | के माध्यम से शरीरगत रोगों के निवारण में अपूर्व योगदान करती हैं। प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति में तो लगभग ७५% से अधिक औषधियों वृक्षों वनस्पतियों से प्राप्त उपादानों से ही निर्मित होती हैं। रोगनिवारण के क्षेत्र में उत्तरकालीन हानिरहित जो योगदान वानस्पतिक उपादानों का है, उसकी तुलना में अन्य स्रोतों से प्राप्त उपादान अपना कोई महत्त्व नहीं रखते।
विगत कुछ दशाब्दियों में वृक्षों का संहार करते हुए वनसम्पदा का जिस प्रकार दोहन विकसित कहे जाने वाले देशों द्वारा किया गया है, उस से आज पर्यावरण सम्बन्धी विभीषिका इतनी बढ़ गयी है कि मनुष्य को उसका कोई उपाय खोजने पर भी नहीं मिल रहा है।
जैन परम्परा में इस यथार्थ को समझते हुए वृक्षों के प्रति आत्मीयता की ही नहीं, पूजनीयता की भावना प्रतिष्ठित की गयी है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। इस परम्परा में सर्वाधिक महनीय भगवान् के रूप में आदरणीय तीर्थंकरों की तीर्थंकरत्व (केवलज्ञान) की प्राप्ति में वृक्षों की छाया का अतिशय योगदान रहा है, जिसके फलस्वरूप तीर्थंकरों की चर्चा करते हुए उनके नाम के साथ उस वृक्ष विशेष का नाम सदा स्मरण किया जाता है। जिसके नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है। ५
जैन परम्परा के अनुसार वृक्ष मानवजीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। भोजन, वस्त्र, अलंकरण, आवास, मनोरंजन आदि सभी कुछ इनसे प्राप्त होता है। फल-फूल, पत्र, कन्द आदि के रूप में ये भोजन देते हैं, पत्र छाल और इनके
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
रेशे कपास एवं आक आदि के फल से प्राप्त रुई से हमें वस्त्र आदि के रूप में आच्छादन प्राप्त कराते हैं। वृक्षों के पत्र और पुष्प तथा उन (वृक्षों) से उत्पन्न लाख शृंगार के उपादान बनकर मानव को विभूषित करते हैं। पेड़ों की टहनियों, शाखाओं और पत्तों आदि से मनुष्य अपना आवास बनाता है, तो उनके कोटरों में शुक आदि पक्षी और अनेक जीव-जन्तु वास करते हैं। कुछ पक्षी शाखाओं पर अपने नीड स्थापित करते हैं तथा अधिकांश वनचर जीव, अनेक बार मनुष्य भी वृक्षों की छाया में विश्राम प्राप्त करते हैं। सामान्य बांसों से निर्मित वंशी, असन (विजयसार) के काष्ठ से बने हुए मृदंग, तबले, वीणा आदि संगीत के साधन बनकर मनुष्य का मनोरंजन करते हैं। कीचक नामक बांस विशेष तो स्वयं ही वन में मधुर संगीत उत्पन्न करता हुआ मानव मन की व्यथा और श्रम का हरण करता है । ६ इस प्रकार वृक्ष मानव की दो-चार नहीं समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ होते हैं इसीलिए जैन मनीषियों ने वृक्षों के कल्पवृक्ष स्वरूप को पहचानते हुए उन्हें प्रतिष्ठित किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अवसर्पिणी काल के सुषमा- सुषमा विभाग में केवल कल्पवृक्षों को ही मनुष्य की समस्त जरूरतों की पूर्ति करने वाला स्वीकार किया है और व्याख्या करते हुए मानव की दस प्रकार की आवश्यकताओं तथा उनके पूरक दस प्रकार के कल्पवृक्षों की कल्पना की है । ७ जैन आचार्यों की इस कल्पना को न केवल ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों में स्वर्ग में कल्पवृक्ष की स्थिति का वर्णन किया गया है, अपितु कालिदास जैसे महाकवियों ने शकुन्तला जैसी नायिकाओं के शृंगार के लिए वृक्षों से ही अंगराग, क्षौमवसन एवं विविध प्रकार के आभरणों की प्राप्ति का भी वर्णन किया है।
वृक्षों की इस महिमा को स्वीकार करते हुए ही जैन परम्परा में चैत्यवृक्षों के नाम से वृक्षों को अत्यन्त पूजनीय स्वीकार किया गया है। इन वृक्षों में आरोग्यदायी, आनन्ददायी भोजनदायी और अन्य प्रकार के इन्द्रिय सुख देने वाले अशोक, सप्तपर्ण, आम्र, चम्पक वृक्ष प्रतिनिधिभूत हैं। इन चैत्यवृक्षों के प्रति जैनपरम्परा में सर्वाधिक आदर है, केवल तीर्थंकर ही इनसे अधिक आदर के पात्र हो पाते हैं । १० जैन परम्परा में स्वीकृत वृक्षों के प्रति आदरपूर्ण प्रेम भारतीय संस्कृति का प्रधान अंग सा बन गया है। तभी कालिदास की शकुन्तला कण्व - आश्रम के वृक्षों के प्रति सोदर स्नेह रखती है११ और उनकी ही पार्वती वृक्षों को पुत्र के रूप में हेमघटों से स्तन्यपान कराती हैं। शिव भी उन वृक्षों में पुत्र भाव रखते हैं। १२ वृक्षों के प्रति अतिशय अनुराग के कारण नवयुवतियां अपना श्रृंगार छोड़ सकती हैं किन्तु उनके प्रति अनुराग में शिथिलता नहीं आने देती |१३
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वृक्षों के प्रति देव, मानव और सामान्य प्राणी इन तीनों के अनुराग की सूचना हमें जैन पुराणों में प्राप्त देवारण्य, देवरमण,
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________________ 000000000 COM 2006 20080ORDGe | जन-मंगल धर्म के चार चरण 577 मानुषोत्तर, प्रमद, सौमनस, सहायक, नागरमण, भूतरमण आदि वन तथा वायु प्रदूषण के शिकार हो गये। वनविहीन क्षेत्रों के निवासी नामों से भी मिलती है।१४ बर्बर, क्रूर और हिंसक होते हैं क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में ऑक्सीजन की इन सब संदर्भो के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा कमी हो जाती है, परिणामतः शारीरिक और मानसिक रूप से कई सकता है कि जैन दृष्टि से प्रभावित भारतीय संस्कृति में रोग पनपते हैं। तात्पर्य यह है कि वनों के कटने से प्राकृतिक वृक्षों को जीवन का मित्र माना गया है। पेड़-पौधों की अहिंसा संतुलन में विषमता आ जाती है। वनस्पतिकाय की हिंसा के अनेकमनुष्य के अपने जीवन के लिए भी अनिवार्य है। इसी कारण विध दुष्परिणाम होते हैं-प्राणवायु का नाश, भूक्षरण को बढ़ावा, प्राचीनकाल में भारतभूमि शस्यश्यामला रही है। यहाँ फल और भूमि की उर्वराशक्ति का घटना, वर्षा के अनुपात में कमी, कन्दमूल का भण्डार रहा है तथा वृक्ष-वनस्पतियों पर ही / जनजीवन के विनाश में तीव्रता आदि। आश्रित होकर जीने वाले गो आदि पशुधन की समृद्धि से औद्योगिक प्रदूषण-भूमि आदि प्रकृति के सभी अंगों का घी-दूध आदि की नदियां बहती रही हैं। सम्प्रति न केवल पौष्टिक सर्वाधिक प्रदूषण आधुनिक विज्ञान पर आश्रित उद्योगों के कारण आहार (दूध-घी आदि) अपितु सामान्य खाद्य पदार्थों के अतिशय होता है। यह प्रदूषण सर्वाधिक तीव्र और भयानक है। इस प्रदूषण अभाव का कारण जीवनमित्र वृक्षों का नाश ही है। वर्षा का को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। (1) उद्योगों से अभाव, बाढ़ से फसलों का विनाश, भूस्खलन से जन और धन की अपसृष्ट कचरा, जो जल, वायु अथवा भूमि को प्रदूषित करता है। बर्बादी आदि सभी आपदाएँ जीवनमित्र वृक्षों के नाश के कारण ही (2) उद्योगों से प्रसूत उपभोग सामग्री, जो विविध प्रकार की गैसों उत्पन्न हुई हैं। का विसर्जन करके वायुमंडल में प्रदूषण पैदा करती है। जोधपुर विश्वविद्यालय में वानस्पतिक प्रदूषण के सम्बन्ध में (1) औद्योगिक अपसृष्ट (कचरा)-उद्योगों से कई प्रकार का आयोजित एक गोष्ठी में बोलते हुए प्रो. जी. एम. जौहरी ने कहा अपसृष्ट (कचरा) निकलता है। कोयला, डीजल, पेट्रोल अथवा था-पेड़ पौधों से ही पृथ्वी पर जीवन है। वनस्पति के बिना जैविक यूरेनियम का ईंधन के रूप में प्रयोग करके चलायी जाने वाली प्रक्रिया असम्भव है। जैविक संतुलन बनाये रखने के लिए मशीनों से विविध प्रकार की गैसे निकलती हैं, जिनमें सर्वप्रमुख पीध-संरक्षण आवश्यक है। सचमुच वनस्पति मनुष्य के लिए अनेक कार्बनडाइऑक्साइड और कार्बनमोनोऑक्साइड हैं। ये गैसें दृष्टियों से वरदान है। संसार में जितना प्राणवायु है, उसका बहुत प्राणशक्ति (जीवन शक्ति) को नष्ट करती हैं। इसके अतिरिक्त बड़ा भाग वनस्पति से ही उत्पन्न होता है। यतः मानव जीवन कार्बनडाइऑक्साइड गैस सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने तो वनस्पति पर आधारित है, वही मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं देती है किन्तु वापिसी में गर्मी के कुछ भाग को पृथ्वी पर रोक लेती की पूर्ति करती है उसका विनाश व्यक्ति का अपना स्वयं का विनाश / है। यह क्रिया क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस में सौ गुनी अधिक है। है। इसीलिए आज प्राणवायु की दृष्टि से भी वनों की कटाई रोकने / ग्रीनहाउस गैसों की स्थिति और भयावह है। इनके कारण पृथ्वी तल और पौधों को संरक्षण दिये जाने की आवश्यकता है। निश्चय ही के वनों का निरन्तर ह्रास हो रहा है। अब तक 1.1 करोड़ हेक्टेयर आज वनस्पति-सम्पदा का जिस तरह विनाश हो रहा है, वह एक वनों का नाश हो चुका है। फलतः वायुमण्डल का सन्तुलन बिगड़ चिन्ता का विषय है। पेड़-पौधों की लगभग 500 प्रजातियां नष्ट हो रहा है। गयी हैं। इसी प्रकार वनस्पति के विनाश से रेगिस्तान का जो उद्योगों से प्रसूत गैसों के कारण ही सूर्य और पृथ्वी के बीच विस्तार होता है, वह भी एक भयंकर समस्या है। रेगिस्तान का सुरक्षा कवच के रूप में स्थित ओजोन परत का क्षरण हो रहा है, विकास मानव द्वारा किया गया है और वह उसके अपने अस्तित्व जो अत्यन्त भयावह है। ओजोन परत के विच्छिन्न होने के कारण के लिए भी खतरा सिद्ध हो रहा है। पृथ्वीवासियों के अस्तित्व पर भी भय की छाया मंडराने लगी है। वनस्पति की हिंसा का तीव्र विरोध करते हुए आचारांग में सूर्य से निरन्तर पराबैंगनी किरणों का विकिरण होता है, ओजोन भगवान् महावीर ने कहा है कि कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक उन्हें रोकने के लिए कवच का कार्य करती है। सामान्य स्थिति में जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने की | अविच्छिन्न ओजोन पराबैंगनी किरणों से टकराकर ऑक्सीजन में अनुमति देता है, वह हिंसा उसके स्वयं के लिए अहितकर होती है। बदल जाती है। ये किरणें पुनः ऑक्सीजन से टकराती हैं और आवश्यकता इस बात की है कि हम महावीर की क्रान्त दृष्टि ओजोन का निर्माण होता है। इस प्रकार सन्तुलन बना रहता है। वनस्पतिकाय की अहिंसा को युगीन सन्दर्भ में गम्भीरतापूर्वक पृथ्वी पर ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत ओजोन ही है। पराबैंगनी समझाकर उसे एक नया अर्थबोध दें। इतिहास साक्षी है कि जहाँ भी किरणे अत्यन्त शक्तिशाली और इसी कारण अतिशय भयानक होती वन समाप्त हुए वहाँ संस्कृतियाँ और समाज समाप्त हो गये, क्योंकि } हैं। उनके संस्पर्श से शरीर की सुरक्षा-व्यवस्था समाप्त हो सकती है। वृक्षविहीन धरती रेगिस्तान में बदल गयी और समाज भूख, प्यास शरीर में कैंसर, आँखों के रोग आदि भयावह रोगों का जन्म हो 60
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________________ अ H oo000000000000000000000000300-3300 BG 1 2 1578 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / सकता है। वर्तमान में ओजोन कवच के छिद्रयुक्त होने से कैंसर करता है।१९ जल की इस अमृतमयता को सुरक्षित रखने के लिए रोगियों की संख्या में छः प्रतिशत वृद्धि हुई भी है। जहाँ कौटिल्य अर्थशास्त्र में जल का प्रदूषण करने वाले को कठोर उद्योगों से अपसृष्ट कुछ गैसों से वातावरण का अम्लीकरण भी दण्ड देने की व्यवस्था दी गयी थी वहीं समाज के मार्गदर्शकों ने भयंकर परिणाम देता है, इसके फलस्वरूप जर्मनी के वन उजड़ रहे / नदियों में सोने-चाँदी और ताँबे के सिक्के डालने की प्रथा धर्म के हैं, उत्तरी अमेरिका की झीलें सूख रही हैं, ब्राजील की कृषिभूमि रूप में प्रारम्भ करवा दी थी, जिससे अनजाने जल में होने वाला अनुपयोगी होती जा रही है और ताजमहल जैसे भव्य ऐतिहासिक प्रदूषण दूर हो सके और उसकी गुणवत्ता न केवल सुरक्षित रहे भवन बदरंग होते जा रहे हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपितु बढ़ती भी रहे। स्मरणीय है कि सुवर्ण के सम्पर्क में आया वातावरण में विद्यमान इन अम्लों के अधिक बढ़ जाने पर वे वर्षा हुआ जल कीटाणुरहित होकर हृदय के रोगों से सुरक्षा प्रदान करता के साथ भूमि पर आते हैं, उस समय कभी तो सल्फ्यूरिक एसिड, है और ताम्बे के संसर्ग से वह उदर रोगों को दूर करने वाला हो कभी हाइड्रोक्लोरिक एसिड और कभी नाइट्रिक एसिड की मात्रा | जाता है। इसी प्रकार रजत से भावित जल श्वांस संस्थान सम्बन्धी इतनी अधिक होती है कि उपर्युक्त हानि के अतिरिक्त प्राणियों के रोगों का निवारण करता है। सामान्य स्वास्थ्य पर भी भयंकर प्रभाव प्रकट होते हैं। इन अम्लीय / इसके अतिरिक्त उद्योगों में प्रयोग के लिए विविध प्रकार की वर्षा से नदियों का जल भी प्रदूषित हो जाता है। गैसों का भण्डारण होता है। अनेक बार उन भण्डारित गैसों का औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला अपसृष्ट जल इतना रिसाव अथवा विस्फोट आकस्मिक रूप स पर्यावरण को इतना कचरा लेकर नदियों में पहुँचता है कि उनका जल पीने को कौन प्रदूषित कर देता है कि लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना कहे, सिंचाई के योग्य भी नहीं रह जाता। इस समय देश में / पड़ता है। 1984 में भोपाल कांड, 1986 में उक्रेन स्थित सर्वाधिक दूषित जल यमुना नदी का है, जिसके वैज्ञानिक अध्ययन चेरनोबिल विस्फोट और 1986 में ही राइन नदी की भयंकर आग से पता चला है कि यमुना के प्रति 100 मिलिलीटर जल में आदि की उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। 7,500 कौलिफार्म बैक्टीरिया हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त (2) उद्योगों से प्रसूत उपभोग-सामग्री से प्रदूषण-उद्योगों द्वारा Dosto हानिकारक हैं एवं अनेक रोगों को जन्म देने वाले हैं। इसी प्रकार मानव के उपभोग के लिए जो विविध उपादान तैयार किये जाते हैं, बम्बई के निकट कल्याण अम्बरनाथ और उल्हासनगर के उद्योगों से / वे स्वयं में भी अनेक प्रकार का प्रदूषण पैदा करते हैं। इनमें निकलने वाले दूषित जल का वैज्ञानिक परीक्षण करने पर पाया शृंगार-प्रसाधन आदि कुछ पदार्थ ऐसे हैं, जो अत्यन्त सीमित क्षेत्र में गया कि उल्हास नदी में प्रतिवर्ष 1,100 किलोग्राम ताँबा, / प्रदूषण पैदा करते हैं और उनका प्रभाव मुख्यरूप से उनका उपभोग Ja %887,000 किलोग्राम सीसा, 4 लाख किलोग्राम जिन्क, 7,000 करने वालों पर पड़ता है। इसी श्रेणी में केश को काला करने वाले कि. ग्रा. पारा और 500 कि. ग्रा. क्रोमियम के कण प्रवाहित होते खिजाब को लिया जा सकता है, जो चर्मरोगों को तो उत्पन्न करता हैं, जो प्रत्यक्षतः विष हैं। शराब की फैक्टरियों से निकलने वाले ही है, कभी-कभी कैंसर का भी जन्मदाता हो जाता है। सिगरेट, जल में क्लोराइड, नाइट्रेट, फास्फेट, पोटेशियम और सोडियम के सिगार आदि पदार्थ उपभोग करने वाले के साथ पड़ोसी को भी कण होते हैं, जो नदियों के जल को ही नहीं, अपितु तालाबों और हानि पहुँचाते हैं। यद्यपि उनसे वायुमण्डल का प्रदूषण सीमित मात्रा कुओं के जल को भी प्रदूषित कर देते हैं। उद्योगों से निकला हुआ में ही होता है। कार, स्कूटर, हवाई जहाज आदि ऐसे भोग साधन DOED यह अपस्रष्ट (कचरा) जल के साथ-साथ भूमि को भी प्रदूषित हैं, जिनमें पेट्रोल का ईंधन के रूप में प्रयोग होता है और उस SED करता है और उसकी उत्पादक शक्ति को क्षीण या समाप्त कर ईंधन के प्रज्वलन के अनन्तर कार्बनमोनोऑक्साइड आदि गैसें BD देता है। निकलती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं। दिल्ली, 5 00 पानी का प्रदूषण चाहे तालाब में हो, चाहे नदी में, अन्ततः वह बम्बई, वाशिंगटन, न्यूयार्क और लन्दन आदि महानगरों में इन 23 समुद्र में ही मिलता है, इससे प्राणवायु के उत्पादन का सन्तुलन भोगसाधनों के द्वारा जो प्रदूषण उत्पन्न हुआ है, वह इस बात का बिगड़ता है। भगवान् महावीर ने कहा है-तंसे अहियाई तंसे प्रमाण है। इसी प्रकार सीमेंट, सीमेंट निर्मित चादरें आदि से अबोहिये अर्थात् जल की हिंसा मनुष्य के अहित तथा अबोधि का निकलने वाली गैसें भी स्वास्थ्य के लिए हानिकर हैं, इस पर 2000 कारण है। जल के सम्बन्ध में प्राचीनकाल से स्वीकार किया जाता है वैज्ञानिकों ने अनेक बार अपने मत प्रकट किये हैं। 2 8 कि जल अमृत का ओढ़ना और बिछौना (आस्तरण अपिधान) नगर प्रदूषण-उद्योगों के विस्तार के फलस्वरूप विगत वर्षों में है।१५ यह अभीष्ट फलों को देने वाला है और सबका पालन करने ग्रामीण जनता का नगरों की ओर आकृष्ट होना प्रारम्भ हो गया है, वाला है।१६ यह सुख और ऊर्जस्विता प्रदान करता है।१७ यह / परिणामतः छोटे कस्बे नगरों में और नगर महानगरों में परिवर्तित R 0 विश्व का शिवतम् रस है,१८ जो दीर्घायुष्य और वर्चस्व प्रदान होते जा रहे हैं। ग्रामों में जहाँ सामान्यतः दो-ढाई सौ से लेकर 50002005000550002020129 एण्मनाययय S oलययनराम सीgsidinaR6600000000000RRPISORIES सायकलयकायत 0000.00.5:00 OTO0000000.0302480052DODOOSANSAESomanusohlasRRO 409.06.26002800-00-005-03266302262200000 60000.00
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________________ 0000000000000000030890SAVE N0RRdeotato 100.0348000-00-0 / जन-मंगल धर्म के चार चरण 579 105205 दो-ढाई हजार तक आबादी होती है, वहाँ महानगरों की जनसंख्या अधिक ध्वनि उत्पन्न करते हैं कि वे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के करोड़ों तक पहुँच रही है। इन महानगरों में एक स्थान से दूसरे / कानों को बहरा कर देने के लिए पर्याप्त हैं। विगत 25-30 वर्षों स्थान की दूरी भी बहुधा 50-60 कि. मी. तक पहुँचने लगी है। से आकाशवाणी और दूरदर्शन का प्रसार होने के बाद कुछ श्रोता सेवा-संस्थानों तथा औद्योगिक इकाइयों में कार्यरत व्यक्तियों को उनका प्रयोग इस प्रकार तीव्रतम ध्वनि (Full Volume) के साथ लम्बी दूरी तय करने के लिए स्कूटर, कार, बस आदि वाहनों की करते हैं कि पास-पड़ोस के कम से कम चार-पांच घरों में शान्त आवश्यकता आ पड़ी है। इन महानगरों में वानस्पतिक (पेड़-पौधों बैठकर एकाग्रतापूर्वक कोई किसी कार्य को सम्पन्न करना चाहे, तोSOS वाले) वनों के स्थान पर कंकरीट के जंगल (ऊँची-ऊँची। वह सम्भव नहीं है। होली आदि पर्व, विवाहादि पारिवारिक उत्सव अट्टालिकाएँ) तैयार होने लगे हैं जिनमें मनुष्य घोंसलों में पक्षी की अथवा रामायण, कीर्तन, देवीजागरण आदि धार्मिक उत्सवों पर तरह रहने को विवश हो रहा है। फलतः ग्रामों की तुलना में नगरों ध्वनिविस्तारक यन्त्रों का इस बहुतायत के साथ प्रयोग होने लगा है श्य में वायवीय पर्यावरण प्रदूषण अत्यधिक मात्रा में होता है। कि उसकी तीवता को न सह पाने के कारण अनेक लोगों की कभी-कभी तो इस प्रदूषण की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि श्रवण और स्मरण शक्ति भी क्षीण हो गयी है। इससे भी भयंकर वह पर्यावरण मनुष्य के रहने योग्य नहीं रह जाता। स्थिति दिवाली, दशहरा, नववर्ष आदि पर्यों पर प्रयोग होने वाले आजीविका की खोज में निरन्तर ग्रामों से शहरों की ओर आने / पटाखों और आतिशबाजी से होती है, जिसके फलस्वरूप प्रायः सभी वाली गरीब जनता के आवासीय क्षेत्र में, जिन्हें झुग्गी-झोपड़ी या जन (विशेषतः बच्चे और रोगी) बार-बार चौंक उठते हैं, विश्राम झोपड़-पट्टी के नाम से जाना जाता है, जल-मल व्यवस्था न होने (निद्रा) नहीं ले पाते। अध्ययनशील विद्यार्थी और साधनारत तपस्वी और आवासियों की अधिकता होने के कारण जो प्रदूषण होता है, तो ऐसे दिनों में आवासीय क्षेत्र का त्याग करके बाहर (अन्यत्र) सामान्य व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। दिल्ली, बम्बई, चले जाने की कामना करते हैं। महावीर स्वामी ने 'स्वयं जिओ कलकत्ता आदि महानगरों के साठ से अस्सी प्रतिशत लोग इन्हीं। और जीने दो' का जो संदेश दिया था, यदि उसकी प्रतिष्ठा बस्तियों में रह रहे हैं। विगत दस वर्षों से ग्रामों से नगरों की ओर / सर्वसामान्य के मानस में हो जाये, तभी ध्वनि-प्रदूषण की समस्या लोगों के भागने की प्रवृत्ति के फलस्वरूप आगामी कुछ वर्षों में का समाधान हो सकता है, अन्यथा नहीं। नगरों के पर्यावरण की स्थिति अत्यन्त शोचनीय होने जा रही है। कृषि प्रदूषण-औद्योगिक प्रदूषण से उत्पन्न दूषित जल अनेक इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए शुद्ध पानी की व्यवस्था करना प्रकार के विषों से मिश्रित होकर कृषि क्षेत्रों में पहुँचता है, भूमि में निश्चित ही एक समस्या है, इसलिए उपलब्ध जल में क्लोरीन / उन विषैले तत्त्व का अवशोषण होता है। आणविक विस्फोटों से 30 मिलाकर उसे कीटाणु रहित करके उपलब्ध कराया जाता है। वायुमंडल में जो रेडियोधर्मी तत्त्व पहुंचते हैं अथवा रासायनिक क्लोरीन स्वयं में विष है, अतः विवशता में शुद्धि के नाम पर यह प्रदूषणों स वायुमण्डल में जो गैसें प्रविष्ट हो जाती है, वर्षा के जल प्रदूषण महानगरीय संस्कृति की देन हैं। माध्यम से उनके विष तत्त्व कृषि क्षेत्रों में पहुँचते हैं, जहाँ अन्न, फल, साक, सब्जी के पौधों द्वारा उनका अवशोषण होता है। फलतः इन महानगरों में मल-व्ययन की समस्या और भी कठिन है।। अन्न फल आदि सब विषैले हो जाते हैं, जो भोजन के रूप में सीवरों के माध्यम से प्रायः नगरों का सम्पूर्ण मल एकत्र होकर / प्राणियों के शरीर में पहुँच जाते हैं। यह सब कृषि प्रदूषण कहलाता नदियों में गिराया जा रहा है, जिससे नदियों का अमृतमय जल है। इसके अतिरिक्त चूहों तथा कृषि को हानि पहुँचाने वाले अन्य प्रदूषित होकर इतना विषमय हो रहा है कि पीने को कौन कहे, वह / कीड़ों के संहार के लिए जिन कीटनाशक रसायनों का प्रयोग होता 9000 स्नान योग्य भी नहीं रह गया है। है अथवा खरपतवार के उन्मूलन के लिए भी विविध रसायनों का ध्वनि प्रदूषण-महानगरीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के जो प्रयोग आज प्रचलन में आ चुका है, उनसे भी अन्न, फल आदि DDRE फलस्वरूप एक नवीन प्रकार का प्रदूषण सुरसा के मुख की भाँति विषाक्त होते जा रहे हैं, जो जन स्वास्थ्य के लिए अतिशय हानिकर निरन्तर विस्तृत होता जा रहा है, जिसे ध्वनि प्रदूषण कहते हैं। हैं। नगर और महानगरों के निवासियों में बहुधा पीलिया जैसे रोग नगरों में यातायात के रूप में प्रयुक्त होने वाले यन्त्र स्कूटर, कार, महामारी के रूप में फैलते दिखायी पड़ रहे हैं, वे औद्योगिक कचरे 10000 बस, ट्रक आदि अपने इंजन के द्वारा अथवा हार्न के द्वारा जो तीव्र से उत्पन्न कृषि प्रदूषण का ही परिणाम है। साथ ही उत्पादन में वृद्धि ध्वनि उत्पन्न करते हैं, उसने नयी प्रकार की समस्या उत्पन्न कर दी / के लिए रसायनों तथा सुरक्षा के उद्देश्य से कीटनाशकों के प्रयोग के है। बहुधा रोगी व्यक्ति हार्न की ध्वनि सुनकर बेचैन हो उठता है / फलस्वरूप अन्न और फल आदि की गुणवत्ता भी नष्ट हो रही है।। और वह बैचैनी कई बार प्राणघातक बन जाती है। तीव्र गति वाले रासायनिक प्रदूषण औद्योगिक प्रदूषणों के समान ही युद्धलिप्सा जेट और सुपरसोनिक आदि विमान अपनी उड़ान के समय इतनी से विविध प्रकार के पारम्परिक शस्त्र-अस्त्र, नाभिकीय और 200000000G OVODE JAATEmattorninternationalo9000000000000 DOD.00PIMPAaman5600303 20109030.90.000000 PRATRana- Pata.000000 56520MARA 10.0.0.000000800:0RUKOoO100045089 CONTARN ARORAKOOG RSROD
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________________ A.0.00 GORTRAO0PACण्णता 6090099 COOP00.0 NAMLOD.0000000 SANA0000000000000 fe6900%AROO%20000000ORatoda 0000000 1580 0 त :: 0000000 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ रासायनिक अस्त्रों, जिनमें एटम बम, हाइड्रोजन बम इत्यादि प्रमुख में लोभ, मोह, क्रोध अथवा संकीर्ण स्वार्थ लिप्सा से जो प्रदूषण हैं, का पर्यावरण के प्रदूषण में अतिशय महत्त्व है। द्वितीय महायुद्ध होता है, उसे वैचारिक प्रदूषण कहते हैं। यह वैचारिक प्रदूषण ऊपर में प्रत्यक्षतः हिरोशिमा और नागासाकी में किये गये अणुबम के वर्णित अन्य प्रकार के प्रदूषणों का जनक अथवा संवर्धक है। प्रयोग से जो पर्यावरण का प्रदूषण हुआ और उसके फलस्वरूप जो वैचारिक प्रदूषण के चार चरण माने जा सकते हैं-(i) अशुभचिंतन नरसंहार आदि हुआ, उसे आज 48 वर्षों के बाद भी भूलना। (ii) अभिनिवेश (आग्रह, पूर्वाग्रह और कदाग्रह) (iii) ईर्ष्या-द्वेष सम्भव नहीं है। ध्यातव्य है कि इस अणु विस्फोट के कारण प्राणियों / और उससे उत्पन्न चरित्र हनन की कुत्सित प्रवृत्तियां तथा (iv) के गुणसूत्रों में जो असंतुलन पैदा हुआ है, उससे आज भी अपंग वैचारिक प्रदूषण मुक्त लोक जीवन। सन्तानें जन्म ले रही हैं। प्रत्यक्ष प्रयोगों के अतिरिक्त इन अस्त्रों के (i) अशुभचिन्तन-मानव के हृदय में अनेक बार असीम निर्माण के उद्देश्य से किये गये विविध प्रकार के भूमिगत अथवा ब्रह्माण्ड के साथ तादात्म्य की भावना तिरोहित हो जाती है और वायुमण्डलीय परीक्षणों से जो रेडियोधर्मिता उत्पन्न होती है, उसकी संकीर्ण स्वार्थ उसे घेरने लगते हैं। इस संकीर्ण स्वार्थ के फलस्वरूप विभीषिका भी कम नहीं है। उसके हृदय में विविध प्रकार के अशुभ भावों का उदय होता है। इस प्रकार पर्यावरण का अम्लीकरण, नदियों के जल का इन अशुभ भावों में मुख्य है-लोभ, मोह और क्रोध। इनका उदय प्रदूषण, वायु में कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बनमोनोऑक्साइड आदि इन्द्रियों के विषयों के चिन्तन से होता है। इसीलिए जैन परम्परा में गैसों का मिश्रण प्राणिमात्र के लिए भयावह हो उठा है। पर्यावरण विषयचिन्तन और विषय-कथा को भी तिरस्करणीय माना गया की इस भयावह स्थिति की ओर न केवल वैज्ञानिकों अपितु विविध है।२० वस्तुतः विषयों का चिन्तन होते ही उनके प्रति आसक्ति राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों का भी ध्यान गया है और वे चिन्तित हो उठे } उत्पन्न होने लगती है। आसक्ति का जन्म कामना की सृष्टि करता है, हैं। इस चिन्ता के फलस्वरूप गतवर्ष (1992) में स्टाकहोम में | कामना की पूर्ति सदा होती रहे, यह आवश्यक नहीं है। काम्य वस्तु सम्पन्न पृथ्वी सम्मेलन में विकसित विकासशील और अविकसित के मिलने पर भी उसके उपभोग का अवसर मिल ही जाये, यह भी देशों के 120 से अधिक राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया, अपनी चिन्ताएं / आवश्यक नहीं है। दोनों ही परिस्थितियों में कामी के हृदय में 8 प्रकट की और उनके निवारण क लिए कुछ सिद्धान्त भी निर्धारित प्रतिबंधक व्यक्ति, परिस्थिति अथवा भाग्य के प्रति क्रोध सहज ही किये। इस सम्मेलन के पूर्व भी 1970, 72, 76, 77, 86, 88, } आ जाता है। क्रोध विचारशीलता का शत्रु है, अतः क्रोध का जन्म 89 में अनेक सम्मेलन पर्यावरण प्रदूषण के चिन्ता के फलस्वरूप ही होने पर विचारशीलता का प्रतिपक्षी संमोह सहजभाव से प्रकट होता हुए हैं और प्रदूषण रोकने के लिए कुछ न कुछ संकल्प भी उनमें है और वह विवेक को नष्ट कर देता है। विवेक-नाश का अर्थ है लिये गये हैं। पर्यावरण प्रदूषण से सुरक्षा के लिए सभी देशों के सर्वनाश।२१ अविवेकी व्यक्ति कभी हिंसा में प्रवृत्त होता है, कभी शासनतंत्र ने अपने-अपने यहाँ समय-समय पर अनेक नियम- छल-छद्म करता है, कभी उसमें लम्पटता जन्म लेती है और अधिनियम बनाये। उदाहरणार्थ, भारत में 1905 में औद्योगिक विविध प्रकार के परिग्रहों की कामना भी बुद्धिनाश के प्रदूषण निरोध अधिनियम, 1948,1976 में कारखाना संशोधन परिणामस्वरूप होती है।२२ इस प्रकार विषयों का चिन्तन लोभ, अधिनियम, 1968 में कीटनाशी अधिनियम, 1974 में जल / मोह, क्रोध आदि के माध्यम से सर्वनाश का कारण बन जाता है। प्रदूषण नियंत्रण कानून, 1975, 77 में जल प्रदूषण अधिनियम, / वह सर्वनाश अपना ही नहीं कई बार समाज और राष्ट्र का भी हो 1978, 81 में वायु प्रदूषण अधिनियम, 1972 में वन्यजीवन / सकता है। विषय-चिन्तन से लेकर बुद्धिनाश तक की जो विविध संरक्षण कानून, 1974 में वन्यप्राणी संवर्धन कानून और 1981 / मानसिक स्थितियां हैं, वे सभी वैचारिक प्रदूषण कही जाती हैं। में वनसंरक्षण कानून आदि बनाये गये। आज के समाज में मूलबद्ध हो रहा भ्रष्टाचार वैचारिक प्रदूषण इसके साथ ही 1948 में बनाये गये संविधान में स्वीकृत का ही दुष्परिणाम है। इसी से उत्पन्न असन्तोष विस्फोट के रूप में संकल्पों को आधार बनाकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों ने आतंकवाद के नाम से समस्त विश्व को पीड़ित कर रहा है। विविध अनेक निर्देश दिये, जिससे पर्यावरण की सुरक्षा हो सके। इसी राष्ट्रों के परस्पर संघर्ष वैचारिक प्रदूषण की ही सृष्टि हैं। युद्ध की प्रकार फ्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका आदि विश्व तैयारियां, उसमें विजय के लिए विविध प्रकार के पारम्परिक, के अन्य देशों के न्यायालयों ने भी ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय आणविक अथवा रासायनिक शस्त्रास्त्रों की होड़ इसी वैचारिक दिये, जो पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए विशेष महत्त्व प्रदूषण का परिणाम है। रखते हैं। जैन आचार्यों ने सब प्रकार के पर्यावरण प्रदूषणों के मूल रूप वैचारिक प्रदूषण-जल, वायु, मृदा, ध्वनि आदि प्रदूषण स्थूल / इस अशुभ चिन्तन रूप वैचारिक प्रदूषण को देखा था और उससे पंचभूतों में होते हैं किन्तु अष्टधा प्रकृति में से मन, बुद्धि, अहंकार / बचने के लिए श्रावकों के लिए अणुव्रत के रूप में और मुनिजनों त 2906 970OAL लणालROO aapada 000000306262S RDCASEVAR20.0.6 VARTdionreles 9.6e0:0:0:00DOO FO0 300:0.0.0.0.0. PageORDPRG 200000 POP6800000000008 2:00anoon03.00 DIANDESH
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________________ 4 1000000 POR30500050000000000 0000000000000000 Sae%A6oRohtaRa090000001905 DS.DOD2000-6P30003 | जन-मंगल धर्म के चार चरण 581 10000000 त के लिए महाव्रत के रूप में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और (योद्धा) थे, तो दूसरे मषिजीवी (कर्णिक) थे। एक वर्ग कृषि पर अपरिग्रह का पालन अनिवार्य माना था। इस वैचारिक प्रदूषण रूप / आश्रित था, तो अन्य वर्ग वाणिज्य से अपनी जीविकायापन करता महारोग से बचने अथवा उसकी चिकित्सा के लिए इन अणुव्रतों था। कुछ बुद्धिजीवी विद्या के प्रचार-प्रसार में संलग्न थे, तो अन्य अथवा महाव्रतों के पालन से बढ़कर कोई अन्य उपाय नहीं है और कला की साधना में। सभी अपनी-अपनी साधना में लीन और उससे इनकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही बनी हुई है। प्राप्त परिणामों से सन्तुष्ट थे। जैन पुराणों में इस स्थिति का विस्तार अभिनिवेश-अभिनिवेश अर्थात् आग्रह, पूर्वाग्रह और कदाग्रह से वर्णन हुआ है। भी वैचारिक प्रदूषण का एक प्रकार है। इससे ग्रस्त व्यक्ति यथार्थ / जैन परम्परा में छः प्रकार के जीव माने गये हैं-पृथ्वीकायिक को समझकर भी झूठे अभिमान के चक्कर में पड़कर अपने जीव, जलकायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव, अन्यायपूर्ण आग्रह से हटना नहीं चाहता, जिससे समाज में अनेक वनस्पतिकायिक जीव और त्रसकायिक जीव। इन सब जीवों के प्रति प्रकार की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। जैन परम्परा में सम्यक्दर्शन, पूर्ण रूप से संयम रखना ही अहिंसा है। किसी भी जीव को नहीं सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय इस वैचारिक-प्रदूषण के / सताना, परिताप नहीं पहुँचाना, बलपूर्वक शासित नहीं बनाना और निवारण का सर्वोत्तम उपाय है। शोषण नहीं करना ये सब अहिंसा के पहलू हैं। आचार्य समन्तभद्र ने चरित्रहनन की कुत्सित प्रवृत्तियाँ-समाज में प्रत्येक व्यक्ति की / रत्नकरण्डश्रावकाचार में सर्वविद्य पर्यावरण प्रदूषण के विविध योग्यता और कार्य-सामर्थ्य भिन्न-भिन्न स्तर का हुआ करता है, प्रकारों का समष्टि रूप से संकत करते हुए कहा है कि व्यर्थ ही जिसके फलस्वरूप उसकी उपलब्धियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। इस पृथ्वी को खोदना, पानी को बिखेरना, अग्नि को जलाना, वायु को स्थिति में स्वयं को हीन स्थिति में देखकर बहुत बार मनुष्य उच्च / रोकना, वनस्पति का छेदन करना, स्वयं निष्प्रयोजन घूमना और स्थिति वाले व्यक्ति के प्रति ईर्ष्याग्रस्त हो जाता है। कभी प्रतिद्वन्द्विता / दूसरों को भी निष्प्रयोजन घुमाना, यह प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड की स्थिति में अपनी असफलता देखकर प्रतिद्वन्द्वी के प्रति द्वेष का है।२६ जब तक कोई विशेष प्रयोजन न हो, त्रस जीवों की भांति जन्म होता है। ये दोनों ही मनोभाव उसे प्रतिपक्षी के चरित्रहनन की स्थावर जीवों को भी विराधना नहीं करनी चाहिए। कुत्सित प्रवृत्ति में प्रेरित करने हैं, जिसके फलस्वरूप दोनों के ही इस तथ्य को केन्द्र में रखकर ही भारतीय संस्कृति में प्रायः चित्त में अशान्ति और विक्षोभ उत्पन्न होता है। समाज भी उस सभी परम्पराओं में प्रदूषण से बचने के लिए निर्विवाद रूप से विक्षोभ से अलग नहीं रह पाता और अशान्त हो उठता है। यह स्वीकृत रहा हैअशान्ति सबकी पीड़ा का कारण बनती है। जैनविचारकों ने इस वैचारिक प्रदूषण से बचने के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता (प्रमोद) दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। और उपेक्षा (माध्यस्थ्य) वृत्तियों को अपनाने का निर्देश दिया है।२३ सत्यपूतां वदेत् वाचं मनःपूतं समाचरेत् / 27 इनके द्वारा चित्त में निर्मलता प्रतिष्ठापित हो जाती है और वैचारिक अर्थात् भूमि पर पग रखने से पहले भूमि का दृष्टि से प्रदूषण मिट जाता है। विशोधन कर लिया जाये, प्रयोग से पूर्व जल को वस्त्र से छानकर वैचारिक प्रदूषण-मुक्त लोक जीवन-जैन पुराणों के अनुसार दूषण रहित किया जाये, वाणी की पवित्रता सत्य से सुरक्षित की सृष्टि व्यवस्था में अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ में और उत्सर्पिणी जाये और मन की पवित्रता से सम्पूर्ण आचरण को निर्दोष बनाया काल के अन्त में सुषमा-सुषमा उपविभाग में मानव की उत्पत्ति जाये। युगल के रूप में होती है इसमें स्त्री-पुरुष का जोड़ा एक साथ ही इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि, जल, वायु आदि में जन्म लेता है और मरता है। उसे जीवन भर भोग साधन कल्पवृक्षों औद्योगिक अथवा वैचारिक कारणों से उत्पन्न होने वाला पर्यावरण से प्राप्त होते हैं।२४ उन्हें किसी प्रकार की कमी होती ही नहीं है, प्रदूषण ही अनन्त विपत्तियों और पीड़ाओं का कारण होता है। इसलिए उनमे वैचारिक प्रदूषण के उत्पन्न होने की कल्पना भी नहीं 'कारणाभावत् कार्याभावः' इस दार्शनिक सिद्धान्त को चित्त में की जा सकती। सुषमा काल में भी यही स्थिति रही। कालान्तर में रखकर यदि लोक जीवन समस्त प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त किया (तीसरे सुषम-दुषमा काल में) कल्पवृक्षों के समाप्त होने पर मनुष्य को अपने श्रम से भोगसाधन प्राप्त करने की आवश्यकता हुई। उस | जा सके, तो समस्त पीड़ाओं का अभाव होने से जीवन के आनन्द समय नाभिराय के पुत्र भगवान् ऋषभदेव ने असि, मषि, कृषि, समय नाभि भावो की सीमा नहीं रहेगी। विद्या, वाणिज्य और शिल्प२५ इन षट्कर्मों की समाज में सर्वविध पर्यावरण प्रदूषण मुक्त अतएव आनन्दमय एवं मधुर प्रतिष्ठापना की। फलतः उस काल में भी लोकजीवन वैचारिक लोक-जीवन की झांकी वैदिक कवि ने कामना के रूप में प्रदूषण से सर्वथा मुक्त रहा है। समाज के कुछ लोग असिजीवी / निम्नलिखित शब्दों में अभिव्यक्त की है 200ce. CON 56.0000000009 60.00000.00 0.00:0:0:0: 0 0:00 Sunob06003082700000000000000040060MPDilateTOARIORRORDTDOORDSIDC 20200.0000000000000ACht8.0.0.00 1600hre000840000000 SID009
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________________ 29000000 ONOD.00628 0000000000004 10 .00 1582 Places - मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीनः सन्त्वोषधीः। मधु नक्तभुतोऽसो मधुमत्पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता। मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः। माध्वीवो भवन्तु नः२८ अर्थात् सर्वतोभावेन पर्यावरण प्रदूषण मुक्त समाज इतना सन्तुष्ट और आनन्दित हो, जिससे प्रत्येक प्राणी यह अनुभव करे, मानों समस्त वायुमण्डल उसके लिए मधु की वर्षा कर रहा है, नदियां मधु की धारा प्रवाहित कर रही हैं, औषधियों से मधु का उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ स्रवण हो रहा है। दिन-रात भी मधुमय हैं, पृथ्वी का कण-कण मधुमय है, धुलोक में स्थित ग्रहमण्डल पिता के समान मधु रूपी स्नेह से सबको आप्लावित कर रहा है। वनस्पति, सूर्य, चन्द्र और गौवें सभी में माधुर्य का वितरण कर रही हैं। क्यों न आज भी हम सकल लोक को पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त कर इसी मधुमय सागर में अवगाहन करें। पता: साधना मन्दिर 90, द्वारिकापुरी मुजफ्फरनगर (उ. प्र.)२५१ 001 20 0 00200500-200RDABHO6000000 RGSVON- OAR सन्दर्भ स्थल 1. पर्यावरण अध्ययन, पृ. 11 (डॉ. एस. सी. बंसल, डॉ. पी. के. शर्मा) 2. अग्ने गृहपतये स्वाहा सोमाय वनस्पतये स्वाहा, मरुतामोजसे स्वाहा, इन्द्रस्थेन्द्रियाय स्वाहा पृथिवी माता मा हिंसी, मो अहं त्वाम् यजुर्वेद, 10/23 // 3. पद्मपुराण 4/48, आदिपुराण 20/261-265, हरिवंशपुराण 2/216-221 4. आचारांग 1-27, 1-34) 5. ऋषभदेव-न्यग्रोध, अजितनाभ-सप्तपर्ण, सम्भवनाथ-शाल, अनन्तनाथ पीपल इत्यादि। द्रष्टव्य तिलोयपण्णात्ति 4,604-605, 916-918, 934-940 6. (क) स कीचकर्मारुतपूर्णरन्त्रैः कूजद्भिरापादितवंशकृत्यम्। शुश्राव कुलेषु यशः स्वमुच्चैरुद्गीयमानैः वन देवताभिः रघुवंश॥२ (ख) उत्तररामचरित 2/29 7. आदिपुराण 3/22-54, हरिवंशपुराण 5/167, पाण्डवपुराण 4/213, तत्त्वार्धसूत्र 3/37 / 8. रघुवंश 14/48, नैषधीयचरित 1/15, पंचतंत्र-मित्रभेद, पृ. 2 9. क्षीमं केनचिदिन्दुपाण्डु तरुणा मांगल्यमाविष्कृत निष्ठ्यूतरचरणोपरागसुभगो लाक्षारसः केनचित्। अन्येभ्यो वनदेवताकरतलैरापर्वभागोत्थितैदत्तान्याभरणानि नः किसलयोद्भदेप्रतिद्वन्द्विभिः // अभिज्ञान शाकुन्तल / / 4/5 10. आदिपुराण 22/200-201 11. शकुन्तला-अस्ति मे सोदर स्नेहोऽप्येतेषु। अभिज्ञान शाकुन्तल, प्रथम अंक पृ. 43 12. (क) अमुं पुरः पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसी वृषभध्वजेन। यो हेमकुम्भस्तननिःसृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसा रसज्ञः रघुवंश // 2/36 (ख) कुमारसम्भव 5/14 13. अभिज्ञान शाकुन्तल 4/9 14. जैनाचार्यों के संस्कृत पुराणसाहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 209 / 15. अमृतोऽपस्तरणमसि, अमृतापिधानमसि। आश्वलायन -गृह्यसूत्र 1/24/21-22 // 16. रान्नो देवीरमिष्टये आपो भवन्तु पीतये। रां योरभि प्रवन्तु नः। -यजुर्वेद 36/12 17. आपो हि ष्ठा मयो भूवस्तान ऊर्जे दधातन। -वही, 36/14 18. यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। वही, 36/15 19. ओं सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तनु। दीर्घायुत्वाय वर्चसे। स-पारस्कर गृह्यसूत्र 2/1/9 20. स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराानिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टर मस्वशरीर संस्कारत्यागाः पञ्च। -तत्त्वार्थसूत्र 77 21. ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते॥ क्रोधाद्भवती सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ -श्रीमद्भगवद्गीता 2/62-63 22. वितर्का हिंसादयः 1.1 1.1 " लोभमोहक्रोधपूर्वकाः मदमध्याधिमात्राः '' इति प्रतिपक्षभावनम्। -योगसूत्र 2/34 23. (क) मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानावित्यलेषु। -तत्त्वार्थसूत्र 7/11 (ख) मैत्रीकरुणा मुदितोपेक्षाणां सुखदुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम्। -योगसूत्र 1/33 24. आदिपुराण 3/22-24 25. आदिपुराण 16/179, 181-182 26. (क) क्षितिसलिलदहन पवनाभ्यां विफलं वनस्पतिछेद। सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते। -रत्नकरण्डश्रावकाचार 3/34, पृ. 160 (ख) भूखननवृक्षमोट्टनशाद्वलदलनाम्बुसेचनादीनि। निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयादीनि च॥ __-पुरुषार्थसिद्धयुपायः, 143 (ग) भूपय पवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम्। यावत्प्रयोजन स्वस्य तावत्कुर्यादयं तु यत्॥ -यशस्तिलकचम्पू 7/26 27. मनुस्मृति, 6/46 28. यजुर्वेद 13/27-29 BoadIDO 2090020603300030352600DJanD.DODODOD.000000DDSONand