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________________ 4 1000000 POR30500050000000000 0000000000000000 Sae%A6oRohtaRa090000001905 DS.DOD2000-6P30003 | जन-मंगल धर्म के चार चरण 581 10000000 त के लिए महाव्रत के रूप में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और (योद्धा) थे, तो दूसरे मषिजीवी (कर्णिक) थे। एक वर्ग कृषि पर अपरिग्रह का पालन अनिवार्य माना था। इस वैचारिक प्रदूषण रूप / आश्रित था, तो अन्य वर्ग वाणिज्य से अपनी जीविकायापन करता महारोग से बचने अथवा उसकी चिकित्सा के लिए इन अणुव्रतों था। कुछ बुद्धिजीवी विद्या के प्रचार-प्रसार में संलग्न थे, तो अन्य अथवा महाव्रतों के पालन से बढ़कर कोई अन्य उपाय नहीं है और कला की साधना में। सभी अपनी-अपनी साधना में लीन और उससे इनकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही बनी हुई है। प्राप्त परिणामों से सन्तुष्ट थे। जैन पुराणों में इस स्थिति का विस्तार अभिनिवेश-अभिनिवेश अर्थात् आग्रह, पूर्वाग्रह और कदाग्रह से वर्णन हुआ है। भी वैचारिक प्रदूषण का एक प्रकार है। इससे ग्रस्त व्यक्ति यथार्थ / जैन परम्परा में छः प्रकार के जीव माने गये हैं-पृथ्वीकायिक को समझकर भी झूठे अभिमान के चक्कर में पड़कर अपने जीव, जलकायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव, अन्यायपूर्ण आग्रह से हटना नहीं चाहता, जिससे समाज में अनेक वनस्पतिकायिक जीव और त्रसकायिक जीव। इन सब जीवों के प्रति प्रकार की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। जैन परम्परा में सम्यक्दर्शन, पूर्ण रूप से संयम रखना ही अहिंसा है। किसी भी जीव को नहीं सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय इस वैचारिक-प्रदूषण के / सताना, परिताप नहीं पहुँचाना, बलपूर्वक शासित नहीं बनाना और निवारण का सर्वोत्तम उपाय है। शोषण नहीं करना ये सब अहिंसा के पहलू हैं। आचार्य समन्तभद्र ने चरित्रहनन की कुत्सित प्रवृत्तियाँ-समाज में प्रत्येक व्यक्ति की / रत्नकरण्डश्रावकाचार में सर्वविद्य पर्यावरण प्रदूषण के विविध योग्यता और कार्य-सामर्थ्य भिन्न-भिन्न स्तर का हुआ करता है, प्रकारों का समष्टि रूप से संकत करते हुए कहा है कि व्यर्थ ही जिसके फलस्वरूप उसकी उपलब्धियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। इस पृथ्वी को खोदना, पानी को बिखेरना, अग्नि को जलाना, वायु को स्थिति में स्वयं को हीन स्थिति में देखकर बहुत बार मनुष्य उच्च / रोकना, वनस्पति का छेदन करना, स्वयं निष्प्रयोजन घूमना और स्थिति वाले व्यक्ति के प्रति ईर्ष्याग्रस्त हो जाता है। कभी प्रतिद्वन्द्विता / दूसरों को भी निष्प्रयोजन घुमाना, यह प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड की स्थिति में अपनी असफलता देखकर प्रतिद्वन्द्वी के प्रति द्वेष का है।२६ जब तक कोई विशेष प्रयोजन न हो, त्रस जीवों की भांति जन्म होता है। ये दोनों ही मनोभाव उसे प्रतिपक्षी के चरित्रहनन की स्थावर जीवों को भी विराधना नहीं करनी चाहिए। कुत्सित प्रवृत्ति में प्रेरित करने हैं, जिसके फलस्वरूप दोनों के ही इस तथ्य को केन्द्र में रखकर ही भारतीय संस्कृति में प्रायः चित्त में अशान्ति और विक्षोभ उत्पन्न होता है। समाज भी उस सभी परम्पराओं में प्रदूषण से बचने के लिए निर्विवाद रूप से विक्षोभ से अलग नहीं रह पाता और अशान्त हो उठता है। यह स्वीकृत रहा हैअशान्ति सबकी पीड़ा का कारण बनती है। जैनविचारकों ने इस वैचारिक प्रदूषण से बचने के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता (प्रमोद) दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। और उपेक्षा (माध्यस्थ्य) वृत्तियों को अपनाने का निर्देश दिया है।२३ सत्यपूतां वदेत् वाचं मनःपूतं समाचरेत् / 27 इनके द्वारा चित्त में निर्मलता प्रतिष्ठापित हो जाती है और वैचारिक अर्थात् भूमि पर पग रखने से पहले भूमि का दृष्टि से प्रदूषण मिट जाता है। विशोधन कर लिया जाये, प्रयोग से पूर्व जल को वस्त्र से छानकर वैचारिक प्रदूषण-मुक्त लोक जीवन-जैन पुराणों के अनुसार दूषण रहित किया जाये, वाणी की पवित्रता सत्य से सुरक्षित की सृष्टि व्यवस्था में अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ में और उत्सर्पिणी जाये और मन की पवित्रता से सम्पूर्ण आचरण को निर्दोष बनाया काल के अन्त में सुषमा-सुषमा उपविभाग में मानव की उत्पत्ति जाये। युगल के रूप में होती है इसमें स्त्री-पुरुष का जोड़ा एक साथ ही इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि, जल, वायु आदि में जन्म लेता है और मरता है। उसे जीवन भर भोग साधन कल्पवृक्षों औद्योगिक अथवा वैचारिक कारणों से उत्पन्न होने वाला पर्यावरण से प्राप्त होते हैं।२४ उन्हें किसी प्रकार की कमी होती ही नहीं है, प्रदूषण ही अनन्त विपत्तियों और पीड़ाओं का कारण होता है। इसलिए उनमे वैचारिक प्रदूषण के उत्पन्न होने की कल्पना भी नहीं 'कारणाभावत् कार्याभावः' इस दार्शनिक सिद्धान्त को चित्त में की जा सकती। सुषमा काल में भी यही स्थिति रही। कालान्तर में रखकर यदि लोक जीवन समस्त प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त किया (तीसरे सुषम-दुषमा काल में) कल्पवृक्षों के समाप्त होने पर मनुष्य को अपने श्रम से भोगसाधन प्राप्त करने की आवश्यकता हुई। उस | जा सके, तो समस्त पीड़ाओं का अभाव होने से जीवन के आनन्द समय नाभिराय के पुत्र भगवान् ऋषभदेव ने असि, मषि, कृषि, समय नाभि भावो की सीमा नहीं रहेगी। विद्या, वाणिज्य और शिल्प२५ इन षट्कर्मों की समाज में सर्वविध पर्यावरण प्रदूषण मुक्त अतएव आनन्दमय एवं मधुर प्रतिष्ठापना की। फलतः उस काल में भी लोकजीवन वैचारिक लोक-जीवन की झांकी वैदिक कवि ने कामना के रूप में प्रदूषण से सर्वथा मुक्त रहा है। समाज के कुछ लोग असिजीवी / निम्नलिखित शब्दों में अभिव्यक्त की है 200ce. CON 56.0000000009 60.00000.00 0.00:0:0:0: 0 0:00 Sunob06003082700000000000000040060MPDilateTOARIORRORDTDOORDSIDC 20200.0000000000000ACht8.0.0.00 1600hre000840000000 SID009
SR No.211327
Book TitleParyavaran Pradushan Bahya aur Antarik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Muni
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size7 MB
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