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13 पानी : सचित्त और अचित्त : समस्या एवं समाधान
पानी सजीव है । उसका प्रत्येक अणु भी सजीव है | साथ-साथ वह दूसरे जीवों की उत्पत्ति का स्थान भी होने से उसमें बहुत से प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु-कीटाणु उत्पन्न होते हैं, जो अपने शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग पैदा हो सकते हैं । अतः स्वास्थ्य की दृष्टि से भी पानी उबालकर ही पीना चाहिये । वर्तमान में कहीं कहीं पानी को अचित्त / प्रासुक बनाने के लिये उसमें थोड़ी सी भस्म या चूना या शक्कर डाल देते हैं । यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से भस्म या चूना या शक्कर डालने से पानी अचित्त प्रासुक हो जाता है तथापि भस्म या शक्कर कितना डालना और डालने के बाद कितने समय में पानी अचित्त हो पाता है उसकी कोई जानकारी किसी भी शास्त्र से या कहीं से भी प्राप्त नहीं है । वास्तव में इस प्रकार अचित्त हआ पानी सिर्फ साधु-साध्वी के लिये ही कल्प्य है क्योंकि उनके लिये किसी श्रावक-गृहस्थ भी पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि सचित्त द्रव्यों की हिंसा करे तो उसका दोष उनको लगता है किन्तु सिर्फ साधु-साध्वी के लिये ही इस प्रकार भस्म आदि डालकर पानी अचित्त किया जाय तो वह पानी अचित्त होने के बावजूद भी साधु-साध्वी के लिये अकल्प्य/अनेषणीय है । प्राचीन काल में गौचरी गये हुए साधु-साध्वी को स्वाभाविकरूप से दाल या चावल को धोया हुआ पानी या आटे को चपाटी के लिये तैयार करने के बाद उसी बरतन का धोया हुआ पानी मिल जाय जिसमें किसी भी प्रकार के खाद्य पदार्थ का स्वाद न हो और वही पानी तृषा को समाप्त करने वाला हो तो वे अपने पात्र में ले लेते थे । किन्तु श्रावकों के लिये तो तपश्चर्या के दौरान सामान्यतया तीन बार उबला हुआ अचित्त पानी ही लेने का नियम है । ऊपर बतायी हुई। वह प्राचीन जैन श्वेताम्बर परंपरा थी और वह भी शास्त्राधारित । वर्तमान में | यह परंपरा जैन साधु-साध्वी के कुछ गच्छ, संप्रदाय या विभाग में आज भी बालू है । उनका भक्तवर्ग उनके लिये इस प्रकार भस्म आदि डालकर पानी को अचित्त करते हैं जो सर्वथा अनुचित है । खास तौर पर साधु-साध्वी के लिये ही बनाया हुआ इस प्रकार का अचित्त पानी लेने से अचित्त पानी लेने का मुख्य उद्देश ही खत्म हो जाता है । अतएव श्वेताम्बर मूर्तिपूजक |
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साधु-साध्वी समुदाय में अब तीन बार उबला हुआ अचित्त पानी ही लिय जाता है । जिसे पक्का पानी भी कहा जाता है । जबकि सभ्य संस्कृत भा में उसे अचित्त पानी और शास्त्रीय परिभाषा में इसे प्रासुक पानी कहा जा
__कुछ लोग ऐसी शंका करते हैं कि हौज में इकट्ठा किया हुआ बारि का मीठा पानी, कुँए का खारा पानी, नगरपालिका/ ग्रामपंचायत आदि द्वार वितरित क्लोरिनयुक्त पानी, शुद्ध किया हुआ गंगाजल, खनिज जल गंधकयुक्त कुंडों का गर्म पानी आदि सभी प्रकार के पानी को अचित्त कर के लिये क्या एक ही पदार्थ भस्म या चूना है वे मानते हैं कि भिन्न भि प्रकार के पानी को अचित्त करने के लिये भिन्न भिन्न पदार्थ होने चाहि किन्तु यह उनका भ्रम है । _शास्त्र में सचित्त पृथ्वी, पानी आदि को अचित्त करने की दो प्रकार प्रक्रियायें बतायी गई हैं | जब एक प्रकार की सचित्त मिट्टी दूसरे प्रको की सचित्त मिट्टी के संपर्क में आती है तब दोनों प्रकार की मिट्टी अदि हो जाती है । दोनों प्रकार की मिट्टी एक दूसरे के लिये स्वकायशस बनती है और जब मिट्टी में पानी डाला जाता है तब वही मिट्टी व पान परस्पर परकायशस्त्र बनकर एक दूसरे को अचित्त करते हैं । यहाँ भर्स वनस्पतिकाय या पृथ्वीकाय है, जबकि चूना पृथ्वीकाय है । अतः किसी भी प्रकार का पानी भस्म या चूने से अचित्त हो सकता है |
जैनधर्म के सुस्थापित नियमो में से एक नियम यह है कि सब को उबाले हुआ पानी ही पीना चाहिये । उसमें साधु-साध्वी और गृहस्थ जो तप करते उसको इस नियम में कोई छूट नहीं है । जैन जीवविज्ञान के अनुसार पार्न स्वयं सजीव है।
वर्तमान में जैनदर्शन के किसी भी विद्वान/निष्णात/पंडित/तत्त्वज्ञ सामान्य विज्ञानविद् से पूछा जाय कि जैन धर्म में पानी को उबालकर पीर का विधान क्यों किया गया है, तो सभी एकसाथ कह देते हैं कि 'कच्चं पानी स्वयं सजीव है और उसमें भिन्न भिन्न प्रकार के जीवाणु भी होते । जिससे शरीर में बहुत से रोग होने कि संभावनाएँ है । सचित्त पानी । उसकी निरंतर उत्पत्ति चालू रहती है, जो पानी उबालने के बाद बंद है जाती है । अतः पानी उबाल कर पीना चाहिये । यहाँ ऐसा प्रश्न किय
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जाता है कि जैनदर्शन के अनुसार किसी भी प्राणी या व्यक्ति को अपनी
वृद्धि करने के लिये या वंशवृद्धि बंद करने के लिये प्रेरणा करना उचित नहीं है क्योंकि उसमें भी पूर्णतः अनेक दोषो की संभावना है । हमें तो सिर्फ सृष्टा बनकर निरपेक्ष भाव से, उदासीन भाव से देखना चाहिये । तो किसी मी जीव की वंशवृद्धि रोकने का हमें क्या अधिकार है ? इस प्रश्न का उत्तर ना हम सब के लिये मुश्किल है । अर्थात् पानी उबालना हमारे लिये हिंसा प्रवृत्ति ही है । चाहे वह अपने लिये हो या दूसरे के लिये । संक्षेप में उबालकर क्यों पीना चाहिये ? प्रश्न यथावत् ही रहता है । इस प्रश्न उत्तर वर्तमान अनुसंधान के आधार पर इस प्रकार दिया जा सकता है । विज्ञान के अनुसार प्रत्येक प्रवाही में धनविद्युत् आवेशयुक्त व ऋणविद्युद् जियुक्त अणु होते हैं । कुएँ, तालाब, नदी, बारिश इत्यादि के पानी में होते हैं साथ-साथ उसमें ऋण विद्युत् आवेशयुक्त अणु ज्यादा होते हैं।
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सा पानी पीने से शरीर में ताजगी का अनुभव होता है किन्तु ऐसा पानी पत् विकार पैदा करता है किन्तु जब उसे उबाला जाता है तब वह
तो हो ही जाता है किन्तु साथ-साथ उसमें स्थित ऋण विद्युद् रायुक्त अणु तटस्थ हो जाते हैं । परिणामतः उबाला हुआ पानी रिक व मानसिक विकार पैदा नहीं कर सकता है । अतएव साधु-साध्वी पश्चर्या करने वाले गृहस्थों को उबाला हुआ अचित्त पानी ही पीना ये ।
इस बात के वैज्ञानिक सबूत के रूप में मैं कहना चाहता हूँ कि अमरिका विकसित देश में अभी अभी पिछले कुछ साल से वातानुकूलित गलियों में वातावरण को धनविद्युद् आवेशमुक्त या ऋण विद्युद् आवेशयुक्त के विशिष्ट साधन ईजाद किये गये हैं और उसकी बहुत खपत भी है। सका मुख्य कारण यह है कि वातानुकूलित स्थानों में जहाँ हवा ठंडी की
है वहाँ तनिक भी गर्मी नहीं लगती है तथापि वहाँ बैठकर काम बालों को काम करने की इच्छा नहीं होती है और उन लोगों में रिक व मानसिक जड़ता पैदा हो जाती है । इस प्रकार जितना चाहे काम नहीं होता है । उसके बारे में अनुसंधान करने पर पता चला कि कूलित स्थानों में धन विद्युद् आवेशयुक्त अणुओं की संख्या बहुत होती है, यदि उसे कम किया जाय या ऋण विद्युत् आवेशयुक्त
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अणुओं की संख्या बढायी जाय तो वातावरण ताजगीपूर्ण व स्फूर्तिदायक वन जाता है । इन अनुसंधानों के आधार पर आयोनाईजेशन मशीन बनायी गर्व है । यह यंत्र प्रति सैकंड अरबों की संख्या में ऋणविद्युद् आवेशयुक्त अ पैदा करके बाहर फेंकता है । बारिश के दिनों में हम अनुभव करते हैं वि उस समय हमें सिर्फ खा-पीकर सो जाने की इच्छा होती है, और किस काम में मन लगता नहीं है क्योंकि उस समय वातावरण में धनविद्यु आवेशयुक्त अणुओं की संख्या बहुत ही होती है । अतः गर्म किया हुआ पान सिर्फ जीवदया व आरोग्यविज्ञान की दृष्टि से ही नहीं अपि तु मन व प्रसन्नता के लिये भी काफी जरूरी है । ऊपर जो कुछ कहा गया वह पूर्णद | वैज्ञानिक है । __कुछ लोग ऐसा तर्क करते हैं कि धरती के ऊपर प्राप्त सभी प्रकार पानी में मिट्टी, भस्म इत्यादि पदार्थ होते ही हैं अतः वही पानी अचित्त होता है । तो उसे पुनः अचित्त क्यों करना ? शुद्ध पानी तो सिक प्रयोगशाला में ही मिलता है । उनकी यह बात भी अवश्य विचारणीय किन्तु उसका भी समाधान है । इस प्रकार प्राप्त पानी अचित्त भी हो सका है और सचित्त भी । किन्तु अपने पास ऐसा कोई विशिष्ट ज्ञान नहीं है अद हमें शत प्रतिशत यकीन नहीं है कि यह पानी अचित्त ही है । इस कारण कदाचित वह पानी अचित्त होने पर भी हमें उसे पुनः अचित्त करना जरू
है।
__ कुछ लोग बारिश के पानी की रसोईघर के बर्तन की सतह पर जमे बार के पानी के साथ तुलना करके कहते हैं कि बारिश का पानी यदि सजीव तो रसोईघर में बर्तन की सतह का पानी भी सजीव मानना चाहिये । किन उनकी यह बात भ्रम पैदा करने वाली है । ऊपर ऊपर से दोनों प्रक्रिया समान मालुम पड़ती है तथापि दोनों में काफी अन्तर है ।
विक्रम की बारहवीं शताब्दि में हुए श्री शांतिसूरिजी विरचित जीवविचार " नामक प्रकरण व "जीवाभिगम " इत्यादि आगम में बारिश पानी को सचित्त अफाय बताया है । क्वचित् क्वचित् बारिश के पानी, मछलियाँ भी पायी जाती है । अतः बारिश के पानी को अचित्त नहीं मान चाहिये ।
सामान्यतः श्रावक दिन में एक बार सुबह में पानी छान लेते है
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________________ तक काल में चार प्रहर (मणकाल (निदाघ) परंपरा के " अचित्त पानी सचित्त होता है / पूर्ण गर्म किये हुये अर्थात् तीन बार उबले हुए अचित्त पानी के समय की मर्यादा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा के " प्रवचनसारोद्धार " नामक ग्रंथ के अनुसार उष्णकाल (निदाघ) में पाँच प्रहर (15 घंटे) तक, शीतकाल में चार प्रहर (12 घंटे) तक व वर्षा ऋतु में तीन प्रहर (9 घंटे) तक की है / बाद में वह सचित्त हो जाता है / अतएव रसोईघर में गरम बर्तन के ढक्कन पर जमी हई बाष्प से पानी में रूपांतरित जल अचित्त ही होता है क्योंकि उसमें ऊपर बताये हुए समय की मर्यादा से अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ है / जबकि बारिश के पानी को पानी में परिवर्तन होने के बाद उपर्युक्त समय से ज्यादा समय व्यतीत हो गया होता है / अतएव शास्त्रकारों ने बारिश के पानी को सचित्त बताया है / __ संक्षेपमें, प्रत्येक साधु-साध्वी व श्रावक-श्राविका एवं आरोग्यप्रद जीवन जीने की इच्छावाले सबको तीन बार उबला हुआ अचित्त पानी ही पीना चाहिये / The Eastem spiritual traditions show their followers various ways of going beyond the ordinary experience of time and of freeing themseves from the chain of cause and effect--from the bondage of karma, as the Hindus and Buddhists say. It has therefore been said that Eastern mysticism is a liberation from time. In a way same may be said of relativistic physics. Fritjof Capra