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जाता है कि जैनदर्शन के अनुसार किसी भी प्राणी या व्यक्ति को अपनी
वृद्धि करने के लिये या वंशवृद्धि बंद करने के लिये प्रेरणा करना उचित नहीं है क्योंकि उसमें भी पूर्णतः अनेक दोषो की संभावना है । हमें तो सिर्फ सृष्टा बनकर निरपेक्ष भाव से, उदासीन भाव से देखना चाहिये । तो किसी मी जीव की वंशवृद्धि रोकने का हमें क्या अधिकार है ? इस प्रश्न का उत्तर ना हम सब के लिये मुश्किल है । अर्थात् पानी उबालना हमारे लिये हिंसा प्रवृत्ति ही है । चाहे वह अपने लिये हो या दूसरे के लिये । संक्षेप में उबालकर क्यों पीना चाहिये ? प्रश्न यथावत् ही रहता है । इस प्रश्न उत्तर वर्तमान अनुसंधान के आधार पर इस प्रकार दिया जा सकता है । विज्ञान के अनुसार प्रत्येक प्रवाही में धनविद्युत् आवेशयुक्त व ऋणविद्युद् जियुक्त अणु होते हैं । कुएँ, तालाब, नदी, बारिश इत्यादि के पानी में होते हैं साथ-साथ उसमें ऋण विद्युत् आवेशयुक्त अणु ज्यादा होते हैं।
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सा पानी पीने से शरीर में ताजगी का अनुभव होता है किन्तु ऐसा पानी पत् विकार पैदा करता है किन्तु जब उसे उबाला जाता है तब वह
तो हो ही जाता है किन्तु साथ-साथ उसमें स्थित ऋण विद्युद् रायुक्त अणु तटस्थ हो जाते हैं । परिणामतः उबाला हुआ पानी रिक व मानसिक विकार पैदा नहीं कर सकता है । अतएव साधु-साध्वी पश्चर्या करने वाले गृहस्थों को उबाला हुआ अचित्त पानी ही पीना ये ।
इस बात के वैज्ञानिक सबूत के रूप में मैं कहना चाहता हूँ कि अमरिका विकसित देश में अभी अभी पिछले कुछ साल से वातानुकूलित गलियों में वातावरण को धनविद्युद् आवेशमुक्त या ऋण विद्युद् आवेशयुक्त के विशिष्ट साधन ईजाद किये गये हैं और उसकी बहुत खपत भी है। सका मुख्य कारण यह है कि वातानुकूलित स्थानों में जहाँ हवा ठंडी की
है वहाँ तनिक भी गर्मी नहीं लगती है तथापि वहाँ बैठकर काम बालों को काम करने की इच्छा नहीं होती है और उन लोगों में रिक व मानसिक जड़ता पैदा हो जाती है । इस प्रकार जितना चाहे काम नहीं होता है । उसके बारे में अनुसंधान करने पर पता चला कि कूलित स्थानों में धन विद्युद् आवेशयुक्त अणुओं की संख्या बहुत होती है, यदि उसे कम किया जाय या ऋण विद्युत् आवेशयुक्त
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