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महावीर की उन्मुक्त विचार-क्रान्तिः अनेकान्त-दर्शन
(डॉ. श्री. राजेन्द्रकुमार बंसल)
सत्यान्वेषण का आधार
दृष्टा एक, दृष्टि अनेक : अनेकांत दर्शन : चेतन एवं जड़ जगत विविधता लिये हुये है । प्रत्येक पदार्थ जगत की प्रत्येक वस्तु अनंत गुण एवं धर्मात्मक है । गुण से का अपना-अपना स्वभाव या विशिष्ट गुण-धर्म होता है जिनकी तात्पर्य वस्तु के निरपेक्ष स्वभावरूप गुणों से है, जो बिना किसी परिसीमा में उनकी अवस्था में नित परिवर्तन होता रहता है । अपेक्षा के वस्तु में विद्यमान रहते हैं और जिनकी अवस्थाओं मे पदार्थों के गुण-धर्म की अवस्थाओं का परिवर्तन भी भिन्न-भिन्न सदैव परिवर्तन होता रहता है । जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, दृष्टिकोणों के अनुसार विचार, चिंतन एवं अभिव्यक्ति का विषय ___ आनंद, सुख एवं शक्ति आदि ये गुण हैं । धर्म का तात्पर्य वस्तु के बनता है । प्रत्येक व्यक्ति की ज्ञान-क्षमता, रुचि, प्रकृति एवं उन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुणों से है जो सापेक्ष रूप से दृष्टिकोण आदि पृथक-पृथक होते हैं । इनकी विभिन्नता एवं वस्तु में विद्यमान रहते हैं जैसे आत्मा की नित्यता-अनित्यता, विविधता एक सामान्य तथ्य है जबकि एकता-समानता अपवाद । वीतरागता-रागता एवं शुद्धता-अशुद्धता आदि । आत्मा के ये स्वरूप ही प्राप्त होती है।
गुणरूप सापेक्षिक दृष्टि के विषय हैं। पदार्थों की स्वभावगत रहस्यात्मकता, परिवर्तनजन्य विविधता, आत्मा नित्य (शाश्वत) होते हुये भी संसार अवस्था में विचित्रता एवं ज्ञाता के दृष्टिकोणों की भिन्नता आदि कारणों से देहाश्रित परिवर्तन की प्रक्रिया के कारण अनित्य भी है । इसी पदार्थों का स्वरूप दृष्टिभेद एवं मतभेद का विषय बनता है । इसी प्रकार स्वभाव दृष्टि से आत्मा वीतरागी, शुद्ध एवं अनंत ज्ञान से कारण विश्व में वस्तु स्वरूप की यथार्थता के सम्बन्ध में विवाद परिपूर्ण है किन्तु वर्तमान संसार अवस्था में यह रागी, अशुद्ध एवं मतभेद, विरोध, वैमनस्य एवं विषमता युक्त व्यवस्था सर्वत्र अज्ञानी भी है। यह धर्म परस्पर विरोधी जैसे अवश्य प्रतीत होते दिखायी देती है । वैचारिक स्तर पर एकांतवादी दृष्टिकोण एवं है किन्तु यह विरोध वस्तु के स्वभाव के अनुसार संभाव्य स्तर तक आग्रह के कारण ही मानव इतिहास की ऊषाकाल से लेकर अब ही होते हैं जैसे आत्मा की नित्यता एवं अनित्यता धर्म आदि, न तक विश्व में सर्वत्र अप्रिय एवं आत्मघाती घटनायें घटती रही हैं कि चैतन्यता-अचैतन्यता । यहां यदि आत्मा अचैतन्यत्व को प्राप्त जिससे सत्यान्वेषण का मार्ग अवरुद्ध हुआ है और सत्य ज्ञान की हो जावे तो वह अपना स्वभाव ही खो देगा, जो कभी संभव नहीं परिधि के परे होता गया है । सत्य का उपासक पुजारी अज्ञानता है। के गह्वर में भ्रमित होता रहा है । अस्तु आत्मोत्थान एवं स्वच्छ
मा वस्तु के गुण-धर्मों की अवस्था में ऊर्ध्वगामी या अधोगामी सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना हेतु वैचारिक क्षेत्र में उन्मुक्त
चक्रीय परिवर्तन सदैव होते रहते है जिसका परिणाम विकास एवं चिंतन आवश्यक है।
पतन के रूप में दृष्टिगोचर होता है | वस्तु स्वभाव के कारण यह उन्मुक्त - चिंतन : आस्था की दिशा:
परिवर्तन अनायास न होकर क्रमबद्ध रूप से होता है | परिवर्तन मन के विचार एवं चिंतन की प्रक्रिया स्वस्थ एवं उन्मुक्त हो,
की यह प्रक्रिया वस्तु के त्रिकाली गुण-धर्म की धुरी से संचालित यह इस बात पर निर्भर करता है कि चेतन एवं जड़ जगत के
होती है। दूसरे शब्दों में निरंतर परिवर्तनशील वस्तुएं अपने स्वभाव स्वरूप तथा उनके सम्बन्धों के प्रति हमारी मान्यता कैसी है । यदि
एवं सत्ता से विलग-विचलित नहीं होती । यही उनकी शाश्वतता हमारी मान्यता वस्तु स्वरूप के अनंत गुण-धर्म एवं उनके
एवं ध्रुवत्व का कारण है । वस्तु स्वभाव की इस विशेषता के पारवतनशील स्वरूप के अनरूप हो. तो निश्चित ही हम यथार्थ कारण इसके सम्बन्ध में मतभेद पैदा होना स्वाभाविक है। यह सत्य के निकट होंगे । किन्तु यदि हमारी दृष्टि स्थूल रूप से
मतभेद वस्तु स्वरूप में न होकर ज्ञाता की दृष्टि में होता है । वस्तु वस्तुस्वरूप की मात्र बाह्य अवस्था पर ही हो और वह भी "करेले
स्वरूप तो जैसा है, वैसा ही है | जब विशाल या अनेकांतवादी और नीम चढ़े" के अनुसार एकान्तिक आग्रहयक्त हो तो जद दृष्टि से उसका अवलोकन किया जाता है तब वस्त स्वरूप के चेतन पदार्थों के सम्बन्धों के प्रति हम अनभिज्ञ ही रहेंगे । ऐसी
विराट सत्य का दर्शन हो जाता है अन्यथा नहीं । ऐकांतिक एवं स्थिति में वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हमें नहीं हो सकेगा और
आग्रही दृष्टि से वस्तु के सत्यांश हमारी स्थिति "कूपमण्डूक" जैसी होगी । इतना ही नहीं सत्यान्वेषण
का ही बोध हो पाता है । इस भी दृष्टि की विशालता के अभाव में असंभव है । सत्यान्वेषी
प्रकार वस्तु के अनंत गुण एवं धर्मों व्यक्ति मानसिक धरातल पर विविध वैचारिक प्रयोग वस्तुस्वरूप
का बोध अनेक अनंत दृष्टिकोणों से के अनेक धर्मात्मक स्वभाव के अनुसार उन्मुक्त चिंतन-पद्धति द्वारा
ही हो सकता है । इसमें एक दृष्टा करता है जिसे जैन दर्शन में अनेकांत दर्शन के नाम से सम्बोधित
अनेक दृष्टियों से वस्तु स्वरूप को किया गया है।
देखता है । यही अनेकांत दर्शन का उद्घोष है।
और नादार्थों के सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान हमना ही नहीं सत्यान्वेषी
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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विचित्र बातों से भरा हुआ है यह संसार । जयन्तसेन निज हित की, बात करो स्वीकार ||
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अनेकांत का सैद्धान्तिक पहलू :
अनेकांत "अनेक" और "अंत" इन दो शब्दों से मिलकर बना है। अनेक का अर्थ है एक से अधिक, जो दो से लेकर अनंत संख्या तक हो सकते है | "अंत" का अर्थ वस्तु के गुण एवं धर्म से होता है । जब "अनेक" शब्द का उपयोग वस्तु के गुणों के सदभम किया जाता है तब उसका तात्पर्य वस्त के अनंत गणों से होता है और तब "अनेक" शब्द का उपयोग दो के संदर्भ में किया जाता है तब उसका तात्पर्य वस्तु के दो विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों से होता है । इस प्रकार अनंत गुण तथा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों का एक ही वस्तु में सद्भाव स्वीकार करना अनेकांत है । व्यावहारिक दृष्टि से अनंत गुण-धर्म से युक्त जड़ चेतन वस्तुओं के सर्वअंश ज्ञान हेतु उन्हें अनेक एवं सम्पूर्ण दृष्टिकोणों से अवलोकन करना ही अनेकांत है।
वस्तु के गुण निरपेक्ष होते हैं, जिनका ज्ञान ऐकांतिक दृष्टिकोण या नय पद्धति से होता है । यह ऐकांतिक दृष्टि भी दो प्रकार की होती है। सम्यक् एकांत एवं मिथ्या एकांत | जब वस्तु के गुणों को सापेक्ष दृष्टिकोण (नय) से देखा जाता है तब वह सम्यक् एकांत कहलाता है और जब उन्हें निरपेक्ष दृष्टिकोण से देखा जाता है तो वह मिथ्या एकांत कहलाता है । सम्यक् एकांत से वस्तुस्वरूप के अंश का यथार्थ ज्ञान होता है जबकि मिथ्या एकांत से उसके अंश का अयथार्थ ज्ञान होता है क्योंकि इसमें अन्य गुणों का अभाव कर दिया जाता है । इसी प्रकार वस्तु के धर्म सापेक्ष होने के कारण अनेकांत दृष्टिकोण से ही उनका ज्ञान होता है।
अनेकांत भी सम्यक् अनेकांत एवं मिथ्या अनेकांत दो प्रकार होता है । जब वस्तु के विरोधी धर्मों को सापेक्षिक रूप से अनेक दृष्टिकोणों के संदर्भ मे देखा जाता है तब वह सम्यक् अनेकांत कहलाता है इसे जैनदर्शन में श्रुत प्रमाण कहा गया है और जब वस्तु के विरोधी धर्मों को निरपेक्ष रूप से अनेक दृष्टिकोणों के
संदर्भ में देखा जाता है तब उसे मिथ्या अनेकांत कहते हैं जिसे प्रमाणामास भी कहा जाता है । सम्यक अनेकांत से वस्तुस्वरूप के विरोधी धर्मों का सापेक्ष ज्ञान होता है जो खण्ड-खण्ड सापेक्ष ज्ञान के अंशों से सर्वांश का बोध कराता है जबकि मिथ्या अनेकांत में दो विरोधी धर्मों का एक समय में अस्तित्व सम्भव न हो सकने के कारण वस्तुस्वरूप का लोप ही कर देता है। अनेकांत - दर्शन द्वारा सर्वनयात्मक वस्तुस्वरूप का बोध: पाएकांत और अनेकांत के उक्त वर्गीकरण को निम्न सूत्र द्वारा समझा जा सकता है जो सर्वनयात्मक वस्तु - स्वरूप का बोध कराता है :(१) एकांत सम्यक् एकांत (नय) = निरपेक्ष गुण + सापेक्ष
दृष्टिकोण मिथ्या एकांत (नयाभास) निरपेक्ष गुण + निरपेक्ष
दृष्टिकोण (२) अनेकांत : सम्यक् अनेकांत (प्रमाणज्ञान) = सापेक्ष धर्म (गुण) +
सापेक्ष दृष्टिकोण समूह मिथ्या अनेकांत (प्रमाणाभास) = सापेक्ष धर्म (गुण) +
निरपेक्ष दृष्टिकोणसमूह (३) अनेकांत दर्शन: अनेकांत दर्शन (सर्वनयात्मक) - सम्यक् एकांत + सम्यक्
अनेकांत अनेकांत में अनेकांत REETIRE
उक्त विवचेन से स्पष्ट होता है कि गुणों की दृष्टि से वस्तु का स्वरूप सम्यक् एकांत एवं धर्मों की दृष्टि से सम्यक् अनेकांत होता है । जैन दर्शन में सम्य्क् एकांत को नय (दृष्टि) एवं सम्यक अनेकांत को प्रमाण (ज्ञान) कहा जाता है । इस प्रकार वस्तु का स्वरूप सर्वथा अनेकांतवादी न होकर एकांतवादी भी है जो यह सिद्ध करता है कि जैनदर्शन अनेकांत में भी अनेकांत की व्यवस्था को स्वीकृत करता है । ऐसा न होने पर अनेकांत भी एकांत रूप हो जावेगा जो वस्तुस्वरूप के प्रतिकूल है क्योंकि वस्तु स्वरूप अनेकांतात्मक होने से सर्वनयात्मक होता है | अनेकांत दर्शन का सार इस तथ्य में गर्भित है कि वस्तुस्वरूप के सर्वअंश के ज्ञान हेतु उसे सापेक्ष रूप से ही ग्रहण करना चाहिये। अनेकांत के भेद :
विविध एकांतवादियों के मध्य समन्वय हेतु अनेकांत-दर्शन के चार भेद वर्णित किये गये हैं जो इस प्रकार है :(१) कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य
आध्यात्मिक गूढ़ तत्वों से युक्त चिन्तनशील रचनाओं का जैन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन । भगवान महावीर २५०० वें निर्वाण वर्ष में आपकी प्रेरणा से
अहिंसा सेवा समिति का गठन । 'तीर्थंकर महावीर' स्मारिका का प्रकाशन | आपके प्रयलों से शहडोल में तीर्थंकर महावीर संग्रहालय एवं उद्यान' का निर्माण । कई जैन संस्थाओं के सदस्य, सलाहकार तथा पदाधिकारी । आपकी सेवा के लिए स्वर्णपदक पुरस्कृत।
सम्प्रति - कार्तिक प्रबंधन ओरियण्टल पेपर मिल्स, अमलाई (जिला. शहडौल)
डॉ. राजेन्द्रकुमार बसल एम.ए., पी.एच.डी.,
एल.एल.बी.
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
दोलत की दो 'लत' बड़ी, समझे वही सुजान । जयन्तसेन समझ विना, दोलत से ही हान ।
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(२) कथंचित् सामान्य, कथंचित् विशेष
तोड़ने-जोड़ने की द्वैध भूमिका: (३) कथंचित् अवाच्य, कथंचित् वाच्य तथा
अनेकांत दर्शन अध्यात्म के क्षेत्र में तोड़ने एवं लौकिक क्षेत्र (४) कथंचित् सत् कथंचित् असत् ।
में जोड़ने का कार्य करता है । अनेकांत की यह द्वैध भूमिकायें
बाय दृष्टि से असंगत एवं विरोधी प्रतीत होती हुयी भी एक यहां पर कथंचित् शब्द का अर्थ "अपेक्षा या ऐसा भी है",
सिक्के के दो पहलू के समान हैं जो अनेकांत में अनेकांत का बोध से है । कथंचित् शब्द पूर्वाग्रह, दुराग्रह एवं हठवादिता को दूरकर
कराती है । अखण्ड-अभेद ज्ञान स्वभावी आत्मा के त्रिकाली धर्म वस्तु स्वरूप के विविध धर्मों के अस्तित्व को स्वीकृत करता है।
की प्राप्ति वर्तमान अज्ञान रूप खण्ड भेद दृष्टि को तोड़कर ही जब हम वस्तु स्वरूप के त्रिकाली स्वभाव की ओर दृष्टिपात करते
प्राप्त की जा सकती है और जब तक अनेकांत दर्शन द्वारा खण्डहैं तो वह हमें नित्य, सामान्य, अवाच्य एवं सत् स्वरूप दिखायी ।
'खण्ड ज्ञान को जोड़ा नहीं जाता तब तक अखण्ड परिपूर्ण ज्ञान का देता है जबकि अवस्था विशेष (पर्याय) की दृष्टि से वह अनित्य,
दर्शन संभव नहीं है । इस प्रकार विचार दृष्टि से अभेद-अखण्ड विशेष वाच्य एवं असत् रूप में सामने आता है । यदि वस्तुस्वरूप
ज्ञान की प्राप्ति खण्ड-खण्ड एवं भेदज्ञान के समन्वय अर्थात् जोडने के त्रिकाली स्वभाव या अवस्था विशेष को ही उनका स्वरूप मान
के द्वारा ही संभव है जो अंततः उस समन्वित खण्ड एवं भेदज्ञान लें तो वह एकांत दृष्टि होगी और हमें वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान को तोडकर (अभावकर) ही प्राप्त होता है। चरम लक्ष्य की दृष्टि नहीं हो सकेगा | वस्तुतः वस्तु के स्वरूप में खण्ड या भेद नहीं
से खण्ड-खण्ड ज्ञान का जोड़ हेय या त्याज्य है जबकि समन्वित होता है वह तो अखण्ड अभेद रूप है । भेद तो दृष्टिकोण में
ज्ञान का सद्भाव उपादेय एवं सारभूत है | विचार प्रक्रिया की निहित होता है जिसका कारण आग्रह एवं ज्ञान की अल्पता है।
इतनी तीक्ष्ण एवं पैनी पद्धति अनेकांत दर्शन से ही सुलभ हो विराट् सत्य का दर्शन:
सकती है जो जिन शासन के विचार क्षेत्र का मूलाधार है। अनेकांत दर्शन ज्ञान की अल्पता दूरकर पूरक का कार्य अनेक दृष्टाः अनेक दृष्टि: करता है । यह वस्तु के खण्डित ज्ञान अंश का समन्वय कर
विश्व ने युग परिवर्तन की प्रक्रिया में समय-समय पर अनेक
विपनने या परिवर्तन की पक्रिया में समय अखण्ड सत्य का यथार्थ बोध करता है । इस प्रकार अनेकांत दर्शन
महान विचारकों एवं सुधारकों को जन्म दिया है । उन्होंने अपनेविवेकशील व्यक्ति का एक सशक्त उपकरण है जिसके माध्यम से
अपने समय की समस्याओं के संदर्भ में चिंतन कर तत्कालीन विराट सत्य का दर्शन होता है | इसका संबंध विचार क्षेत्र से है जो
अवस्था के संदर्भ में वस्तु स्वरूप की यथार्थता से विश्व को अवगत चिंतन की प्रक्रिया द्वारा हमे सत्य के समीप पहुंचाता है । चिंतन
कराया । यह वस्तु स्वरूप परिवर्तन की प्रक्रिया में अवस्थात्मक विचार से आचरण निर्देशित एवं प्रभावित होने के कारण अनेकांत
दृष्टि से बदलता रहा जिसके कारण उसकी व्याख्या में भी परिवर्तन दर्शन अहिंसक एवं अपरिग्रही जीवन के लिये एक अनिवार्य शर्त
होता रहा । वस्तुस्वरूप की ये विविध व्याख्यायें कालांतर में एकांत है । इस दृष्टि से अनेकांत दर्शन वह केन्द्रबिन्दु है जो हमें न केवल
वादी दृष्टिकोण के कारण मतभेद, विवाद एवं वैमनस्य का कारण सत्य के दर्शन कराता है किन्तु आत्मा के स्वरूप अर्थात् "धर्म" की
बनी । हर एक विचारक एवं उनके अनुयायियों ने उनके द्वारा प्राप्ति में एक विश्वसनीय एवं अपरिहार्य सहयोगी का कार्य करता
प्रतिपादित समर्थित वस्तु स्वरूप के एक अंश को ही पूर्ण सत्य है । वस्तुतः जीवन में धर्म का सूत्रपात ही अनेकांत दर्शन की
मानकर "अपनी ढपली अपनी राग" अलापा । उस प्रवृत्ति के स्वीकृति के साथ होता है जो अहिंसक जीवन का मूलभूत आधार
कारण मानव जगत विविध धर्म, सम्प्रदायों एवं वर्गपंथों में विभक्त
होता गया किन्तु उसे परिपूर्ण सत्य के दर्शन नहीं हो सके । चैतन्य स्वोन्मुखीवृत्ति एवं सामाजिक सहिष्णुता का उदय
आत्म तत्त्व एवं विशाल जड़ जगत के यथार्थ दर्शन - ज्ञान से वह अनेकांत दर्शन से आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों उद्देश्यों
वंचित हो गया । यह प्रवृत्ति तीर्थंकर महावीर के जीवन काल में
अपनी पराकाष्ठा पर थी। पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ बोध होता है जिसके कारण आत्मस्वरूप महावीर की देनः एकांत के बीहड़ में आत्मा की खोज: की पहिचान, ज्ञान, अनुभूति एवं अनुरूप आचरण होता है ।
तीर्थंकर महावीर के प्रतिपादन का केन्द्र बिन्दु आत्मा था । आत्मा की स्वमुखी वृत्ति का विकास होकर परोन्मुखी वृत्ति का
कोई विचारक आत्मा को नित्य कोई अनित्य और कोई क्षणिक परिहार होता है । इस प्रकार परोन्मुखी वृत्ति के जनक पर-पदार्थों
मानता था । उन्होंने वस्तु स्वरूप के अनेकांत दर्शन को दृष्टिगत के प्रति ममत्व भाव को तोड़ना अनेकांत दर्शन का प्रथम लक्ष्य है।
कर कहा कि आत्मा द्रव्य दृष्टि से, लौकिक दृष्टि से अनेकांत दर्शन व्यक्ति एवं समाज के मध्य नित्य, देह दृष्टि से अनित्य एवं पल अंतर-बाय मतभेद एवं विवाद आदि का निराकरण, सामाजिक, प्रतिपल पर्याय परिवर्तन की दृष्टि सद्भाव एवं शांति की स्थापना में सहायक होता है । अनेकांत से क्षणिक भी है । यदि एक दृष्टि दर्शन के अप्रत्यक्ष प्रभाव का ही कारण है कि भारत में विविध से ही उसे देखा जायेगा तो सम्पूर्ण प्रतिकूल संस्कृति, सभ्यता एवं मान्यता वाले व्यक्ति सहिष्णुतापूर्वक आत्मगुणों का ज्ञान नहीं हो एक साथ रहने में समर्थ हो सके । इस प्रकार अनेकांत दर्शन सकेगा । इस प्रकार उन्होंने जीवन में समन्वय दृष्टि प्रदान करता है जो इसका "उप उत्पाद" वस्तुस्वरूप के अनेकांत दर्शन को या गौण लक्ष्य है।
प्रतिपादित कर विविध मत-मतान्तरों
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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जितने जग में मनुज हैं, सब के भिन्न विचार । जयन्तसेन पन घट अति, स्वाद अनेक प्रकार ।।
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________________ एवं दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय का मार्ग प्रस्तुत कर यथार्थ सम्यक् सांसारिक समन्वय एवं एकता का सेतु: ज्ञान का बोध कराया / इसके माध्यम से महावीर ने विविध धर्मों, अनेकांत दर्शन की उपादेयता वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञान वर्गों, सम्प्रदायों एवं मत-मतान्तरों में विभक्त मानवता को एक सूत्र एक सूत्र तथा धार्मिक एवं साम्प्रदायिक मतभेदों के निराकरण तक ही में पिरोने का सहज सरल एवं सर्वत्र सुलभ सूत्र समर्पित किया। सीमित नहीं है / जीवन के विस्तृत व्यवहार क्षेत्र में समन्वय एवं अनेकांत दर्शन इस प्रकार वस्तु स्वरूप से सम्बन्धित मतभेद एकता की दृष्टि से यह चमत्कारी औषधि है / वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एवं विवाद आदि को दूरकर विविध दृष्टिकोणों को जोड़ने एवं जबकि विश्व आर्थिक दृष्टि से पूंजीवाद एवं साम्यवाद तथा समन्वित करने की उन्मुक्त वैचारिक क्रान्ति थी जिसके द्वारा वस्तु राजनैतिक दृष्टि से लोकतंत्र एवं अधिनायकत्व (तानाशाही) के द्वंद्व स्वरूप के खण्ड-खण्ड विभक्त ज्ञान का उपयोग उसकी समग्रता- में फंसा हुआ है, अनेकांत दर्शन इन विरोधी विचारधाराओं के सम्पूर्णता जानने हेतु किया जाने लगा और जिसके माध्यम से मध्य समन्वय हेतु प्रभावकारी सेतु है / आर्थिक एवं राजनैतिक अखण्ड स्वरूप का ज्ञान उसके स्वभाव की परिपूर्णता के संदर्भ में क्षेत्रों में इन दोनों परस्पर विरोधी विचारधाराओं के विविध प्रयोग संभव हुआ। निर्ममता से मानवता के ऊपर किये जा रहे हैं / परस्पर अविश्वास अहिंसक जीवन का आधार : एवं घृणा के वातावरण में समूची मानव जाति के चिरंतन विकास की गति अवरुद्ध हो गयी है। मानवीय महत्तम कल्याण के आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव में स्थिर रहे, यही उसका सहज आदर्शों की ओट में मानव जीवन यंत्रवत् बन गया है | आत्मशांत एवं अहिंसक भाव है | आत्मा में उठने वाले मोह, राग, द्वेष / वैभव एवं आत्मिकगुणों के विकास के स्थान पर भौतिक समृद्धि के परिणाम भाव-हिसा है जबकि प्राणी को मारना, सताना, अग- को वरीयता दी जा रही है। हाला भंग करना आदि द्रव्य हिंसा कहलाता है / अहिंसक जीवन का संघर्ष, स्पर्धा, अविश्वास, अवसरवाद एवं भौतिकवाद की प्रारम्भ स्वच्छ-निर्मल वैचारिक भाव भूमि से होता है | जब विचार लम्बी दौड़ में कब महानाश का बिन्दु मिल जावे, कोई कल्पना नहीं एकांगी, आग्रही होते हैं तब जीवन भी तदनुसार व्यक्तिहित में की सकती है / ऐसी स्थिति में “अनेक धर्मात्मक वस्तुस्वरूप पर केन्द्रित होकर हिंसक हो जाता है / ऐसे व्यक्ति के आचार में आधारित उन्मुक्त चिंतन पद्धति युक्त अनेकांत दर्शन ही एक मात्र अहिंसा का प्रवेश होना अशक्य है / ठीक इसके विपरीत उन्मुक्त ऐसा समन्वयकारी मार्ग है जो सांसारिक मतभेद, विवाद, वैमनस्य विचार चिंतन एवं अनेकांतिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति वस्तु स्वरूप एवं विषमता पूर्ण आचार-विचार की गहरी खाई पाटने की क्षमता की विराटता को सम्यक् रूप से समझते हुये मानसिक एवं रखता है और वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध कराकर आत्मसामाजिक धरातल पर सहज ही अहिंसक आचार पद्धति अपनाता कल्याणकारी, अहिंसक, अपरिग्रही समाज व्यवस्था द्वारा सर्वोदय हुआ अपरिग्रही जीवनयापन करता है। यही वह बिन्दु है जहां से का ठोस आधार प्रस्तुत करता है / आवश्यक है कि मस्तिष्क के जीवन में धर्म का प्रवेश होता है / इस दृष्टि से अनेकांतिक दर्शन बन्द द्वार खोलकर हम मिथ्या, एकांतवादी एवं अज्ञानयुक्त दूषित से जीवन में अहिंसक आचार एवं अपरिग्रही जीवन को सशक्त वायु का निष्कासन करे और अनेकांत दर्शन की निर्मल विचारआधार मिलता है, जो अन्यथा संभव नहीं है। ज्ञान-रश्मियों से अंतरतम को आलोकित होने दें तभी तीर्थकर महावीर की, लोककल्याणकारी साधना होगी / मधुकर-मौक्तिक भगवान् ने जो कहा है, वह सत्य है / असत्य बिल्कुल नहीं है / यहाँ तो प्रसंग आने पर हमें किसी सत्य की अनुभूति होती है / जब हम अरिहंत परमात्मा द्वारा प्रदत्त ज्ञान-चक्षुओं से इस जगत् को देखते हैं, तब यह अनुभव होता है कि अरिहंत से दूर रहने के कारण हम कितने दुःखी हो गये हैं। अरिहंत के निकट रह जाते तो दुःखी नहीं होते। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर' र एक का है / है, तो काम भयदि कोई है, कराने वाले हर व्यक्ति किसी-न-किसी को अपना साध्य बनाता है | हो सकता है, किसी का साध्य शुद्ध हो और किसी का अशुद्धः पर साध्य हर एक जीव का होता ही है। किसी का साध्य अमृत है, किसी का जहर, पर साध्य हर एक का है। सभी अपना साध्य पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। ज्ञानी कहते हैं कि यदि साध्य उल्टा है, तो काम भी उल्टा ही होगा और यदि साध्य सीधा है, तो काम भी सीधा ही होगा। हमारे लिए सीधा साध्य यदि कोई है, तो वे पंच परमेष्ठी ही हैं। यद्यपि हमारा साध्य सिद्ध पद है, फिर भी उस साध्य की स्थिति प्राप्त कराने वाले पंच परमेष्ठी हैं, इसलिए पंच परमेष्ठी भी साध्य है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (76) अलंकरण है दान का, जिस मानव के पास / जयन्तसेन मिले उसे, यशोकीर्ति अधिवास / /