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________________ महावीर की उन्मुक्त विचार-क्रान्तिः अनेकान्त-दर्शन (डॉ. श्री. राजेन्द्रकुमार बंसल) सत्यान्वेषण का आधार दृष्टा एक, दृष्टि अनेक : अनेकांत दर्शन : चेतन एवं जड़ जगत विविधता लिये हुये है । प्रत्येक पदार्थ जगत की प्रत्येक वस्तु अनंत गुण एवं धर्मात्मक है । गुण से का अपना-अपना स्वभाव या विशिष्ट गुण-धर्म होता है जिनकी तात्पर्य वस्तु के निरपेक्ष स्वभावरूप गुणों से है, जो बिना किसी परिसीमा में उनकी अवस्था में नित परिवर्तन होता रहता है । अपेक्षा के वस्तु में विद्यमान रहते हैं और जिनकी अवस्थाओं मे पदार्थों के गुण-धर्म की अवस्थाओं का परिवर्तन भी भिन्न-भिन्न सदैव परिवर्तन होता रहता है । जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, दृष्टिकोणों के अनुसार विचार, चिंतन एवं अभिव्यक्ति का विषय ___ आनंद, सुख एवं शक्ति आदि ये गुण हैं । धर्म का तात्पर्य वस्तु के बनता है । प्रत्येक व्यक्ति की ज्ञान-क्षमता, रुचि, प्रकृति एवं उन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुणों से है जो सापेक्ष रूप से दृष्टिकोण आदि पृथक-पृथक होते हैं । इनकी विभिन्नता एवं वस्तु में विद्यमान रहते हैं जैसे आत्मा की नित्यता-अनित्यता, विविधता एक सामान्य तथ्य है जबकि एकता-समानता अपवाद । वीतरागता-रागता एवं शुद्धता-अशुद्धता आदि । आत्मा के ये स्वरूप ही प्राप्त होती है। गुणरूप सापेक्षिक दृष्टि के विषय हैं। पदार्थों की स्वभावगत रहस्यात्मकता, परिवर्तनजन्य विविधता, आत्मा नित्य (शाश्वत) होते हुये भी संसार अवस्था में विचित्रता एवं ज्ञाता के दृष्टिकोणों की भिन्नता आदि कारणों से देहाश्रित परिवर्तन की प्रक्रिया के कारण अनित्य भी है । इसी पदार्थों का स्वरूप दृष्टिभेद एवं मतभेद का विषय बनता है । इसी प्रकार स्वभाव दृष्टि से आत्मा वीतरागी, शुद्ध एवं अनंत ज्ञान से कारण विश्व में वस्तु स्वरूप की यथार्थता के सम्बन्ध में विवाद परिपूर्ण है किन्तु वर्तमान संसार अवस्था में यह रागी, अशुद्ध एवं मतभेद, विरोध, वैमनस्य एवं विषमता युक्त व्यवस्था सर्वत्र अज्ञानी भी है। यह धर्म परस्पर विरोधी जैसे अवश्य प्रतीत होते दिखायी देती है । वैचारिक स्तर पर एकांतवादी दृष्टिकोण एवं है किन्तु यह विरोध वस्तु के स्वभाव के अनुसार संभाव्य स्तर तक आग्रह के कारण ही मानव इतिहास की ऊषाकाल से लेकर अब ही होते हैं जैसे आत्मा की नित्यता एवं अनित्यता धर्म आदि, न तक विश्व में सर्वत्र अप्रिय एवं आत्मघाती घटनायें घटती रही हैं कि चैतन्यता-अचैतन्यता । यहां यदि आत्मा अचैतन्यत्व को प्राप्त जिससे सत्यान्वेषण का मार्ग अवरुद्ध हुआ है और सत्य ज्ञान की हो जावे तो वह अपना स्वभाव ही खो देगा, जो कभी संभव नहीं परिधि के परे होता गया है । सत्य का उपासक पुजारी अज्ञानता है। के गह्वर में भ्रमित होता रहा है । अस्तु आत्मोत्थान एवं स्वच्छ मा वस्तु के गुण-धर्मों की अवस्था में ऊर्ध्वगामी या अधोगामी सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना हेतु वैचारिक क्षेत्र में उन्मुक्त चक्रीय परिवर्तन सदैव होते रहते है जिसका परिणाम विकास एवं चिंतन आवश्यक है। पतन के रूप में दृष्टिगोचर होता है | वस्तु स्वभाव के कारण यह उन्मुक्त - चिंतन : आस्था की दिशा: परिवर्तन अनायास न होकर क्रमबद्ध रूप से होता है | परिवर्तन मन के विचार एवं चिंतन की प्रक्रिया स्वस्थ एवं उन्मुक्त हो, की यह प्रक्रिया वस्तु के त्रिकाली गुण-धर्म की धुरी से संचालित यह इस बात पर निर्भर करता है कि चेतन एवं जड़ जगत के होती है। दूसरे शब्दों में निरंतर परिवर्तनशील वस्तुएं अपने स्वभाव स्वरूप तथा उनके सम्बन्धों के प्रति हमारी मान्यता कैसी है । यदि एवं सत्ता से विलग-विचलित नहीं होती । यही उनकी शाश्वतता हमारी मान्यता वस्तु स्वरूप के अनंत गुण-धर्म एवं उनके एवं ध्रुवत्व का कारण है । वस्तु स्वभाव की इस विशेषता के पारवतनशील स्वरूप के अनरूप हो. तो निश्चित ही हम यथार्थ कारण इसके सम्बन्ध में मतभेद पैदा होना स्वाभाविक है। यह सत्य के निकट होंगे । किन्तु यदि हमारी दृष्टि स्थूल रूप से मतभेद वस्तु स्वरूप में न होकर ज्ञाता की दृष्टि में होता है । वस्तु वस्तुस्वरूप की मात्र बाह्य अवस्था पर ही हो और वह भी "करेले स्वरूप तो जैसा है, वैसा ही है | जब विशाल या अनेकांतवादी और नीम चढ़े" के अनुसार एकान्तिक आग्रहयक्त हो तो जद दृष्टि से उसका अवलोकन किया जाता है तब वस्त स्वरूप के चेतन पदार्थों के सम्बन्धों के प्रति हम अनभिज्ञ ही रहेंगे । ऐसी विराट सत्य का दर्शन हो जाता है अन्यथा नहीं । ऐकांतिक एवं स्थिति में वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हमें नहीं हो सकेगा और आग्रही दृष्टि से वस्तु के सत्यांश हमारी स्थिति "कूपमण्डूक" जैसी होगी । इतना ही नहीं सत्यान्वेषण का ही बोध हो पाता है । इस भी दृष्टि की विशालता के अभाव में असंभव है । सत्यान्वेषी प्रकार वस्तु के अनंत गुण एवं धर्मों व्यक्ति मानसिक धरातल पर विविध वैचारिक प्रयोग वस्तुस्वरूप का बोध अनेक अनंत दृष्टिकोणों से के अनेक धर्मात्मक स्वभाव के अनुसार उन्मुक्त चिंतन-पद्धति द्वारा ही हो सकता है । इसमें एक दृष्टा करता है जिसे जैन दर्शन में अनेकांत दर्शन के नाम से सम्बोधित अनेक दृष्टियों से वस्तु स्वरूप को किया गया है। देखता है । यही अनेकांत दर्शन का उद्घोष है। और नादार्थों के सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान हमना ही नहीं सत्यान्वेषी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७३) विचित्र बातों से भरा हुआ है यह संसार । जयन्तसेन निज हित की, बात करो स्वीकार || www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.211672
Book TitleMahavir ka Unmukta Vichar kranti Anekant Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrakumar Bansal
PublisherZ_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size4 MB
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