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________________ (२) कथंचित् सामान्य, कथंचित् विशेष तोड़ने-जोड़ने की द्वैध भूमिका: (३) कथंचित् अवाच्य, कथंचित् वाच्य तथा अनेकांत दर्शन अध्यात्म के क्षेत्र में तोड़ने एवं लौकिक क्षेत्र (४) कथंचित् सत् कथंचित् असत् । में जोड़ने का कार्य करता है । अनेकांत की यह द्वैध भूमिकायें बाय दृष्टि से असंगत एवं विरोधी प्रतीत होती हुयी भी एक यहां पर कथंचित् शब्द का अर्थ "अपेक्षा या ऐसा भी है", सिक्के के दो पहलू के समान हैं जो अनेकांत में अनेकांत का बोध से है । कथंचित् शब्द पूर्वाग्रह, दुराग्रह एवं हठवादिता को दूरकर कराती है । अखण्ड-अभेद ज्ञान स्वभावी आत्मा के त्रिकाली धर्म वस्तु स्वरूप के विविध धर्मों के अस्तित्व को स्वीकृत करता है। की प्राप्ति वर्तमान अज्ञान रूप खण्ड भेद दृष्टि को तोड़कर ही जब हम वस्तु स्वरूप के त्रिकाली स्वभाव की ओर दृष्टिपात करते प्राप्त की जा सकती है और जब तक अनेकांत दर्शन द्वारा खण्डहैं तो वह हमें नित्य, सामान्य, अवाच्य एवं सत् स्वरूप दिखायी । 'खण्ड ज्ञान को जोड़ा नहीं जाता तब तक अखण्ड परिपूर्ण ज्ञान का देता है जबकि अवस्था विशेष (पर्याय) की दृष्टि से वह अनित्य, दर्शन संभव नहीं है । इस प्रकार विचार दृष्टि से अभेद-अखण्ड विशेष वाच्य एवं असत् रूप में सामने आता है । यदि वस्तुस्वरूप ज्ञान की प्राप्ति खण्ड-खण्ड एवं भेदज्ञान के समन्वय अर्थात् जोडने के त्रिकाली स्वभाव या अवस्था विशेष को ही उनका स्वरूप मान के द्वारा ही संभव है जो अंततः उस समन्वित खण्ड एवं भेदज्ञान लें तो वह एकांत दृष्टि होगी और हमें वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान को तोडकर (अभावकर) ही प्राप्त होता है। चरम लक्ष्य की दृष्टि नहीं हो सकेगा | वस्तुतः वस्तु के स्वरूप में खण्ड या भेद नहीं से खण्ड-खण्ड ज्ञान का जोड़ हेय या त्याज्य है जबकि समन्वित होता है वह तो अखण्ड अभेद रूप है । भेद तो दृष्टिकोण में ज्ञान का सद्भाव उपादेय एवं सारभूत है | विचार प्रक्रिया की निहित होता है जिसका कारण आग्रह एवं ज्ञान की अल्पता है। इतनी तीक्ष्ण एवं पैनी पद्धति अनेकांत दर्शन से ही सुलभ हो विराट् सत्य का दर्शन: सकती है जो जिन शासन के विचार क्षेत्र का मूलाधार है। अनेकांत दर्शन ज्ञान की अल्पता दूरकर पूरक का कार्य अनेक दृष्टाः अनेक दृष्टि: करता है । यह वस्तु के खण्डित ज्ञान अंश का समन्वय कर विश्व ने युग परिवर्तन की प्रक्रिया में समय-समय पर अनेक विपनने या परिवर्तन की पक्रिया में समय अखण्ड सत्य का यथार्थ बोध करता है । इस प्रकार अनेकांत दर्शन महान विचारकों एवं सुधारकों को जन्म दिया है । उन्होंने अपनेविवेकशील व्यक्ति का एक सशक्त उपकरण है जिसके माध्यम से अपने समय की समस्याओं के संदर्भ में चिंतन कर तत्कालीन विराट सत्य का दर्शन होता है | इसका संबंध विचार क्षेत्र से है जो अवस्था के संदर्भ में वस्तु स्वरूप की यथार्थता से विश्व को अवगत चिंतन की प्रक्रिया द्वारा हमे सत्य के समीप पहुंचाता है । चिंतन कराया । यह वस्तु स्वरूप परिवर्तन की प्रक्रिया में अवस्थात्मक विचार से आचरण निर्देशित एवं प्रभावित होने के कारण अनेकांत दृष्टि से बदलता रहा जिसके कारण उसकी व्याख्या में भी परिवर्तन दर्शन अहिंसक एवं अपरिग्रही जीवन के लिये एक अनिवार्य शर्त होता रहा । वस्तुस्वरूप की ये विविध व्याख्यायें कालांतर में एकांत है । इस दृष्टि से अनेकांत दर्शन वह केन्द्रबिन्दु है जो हमें न केवल वादी दृष्टिकोण के कारण मतभेद, विवाद एवं वैमनस्य का कारण सत्य के दर्शन कराता है किन्तु आत्मा के स्वरूप अर्थात् "धर्म" की बनी । हर एक विचारक एवं उनके अनुयायियों ने उनके द्वारा प्राप्ति में एक विश्वसनीय एवं अपरिहार्य सहयोगी का कार्य करता प्रतिपादित समर्थित वस्तु स्वरूप के एक अंश को ही पूर्ण सत्य है । वस्तुतः जीवन में धर्म का सूत्रपात ही अनेकांत दर्शन की मानकर "अपनी ढपली अपनी राग" अलापा । उस प्रवृत्ति के स्वीकृति के साथ होता है जो अहिंसक जीवन का मूलभूत आधार कारण मानव जगत विविध धर्म, सम्प्रदायों एवं वर्गपंथों में विभक्त होता गया किन्तु उसे परिपूर्ण सत्य के दर्शन नहीं हो सके । चैतन्य स्वोन्मुखीवृत्ति एवं सामाजिक सहिष्णुता का उदय आत्म तत्त्व एवं विशाल जड़ जगत के यथार्थ दर्शन - ज्ञान से वह अनेकांत दर्शन से आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों उद्देश्यों वंचित हो गया । यह प्रवृत्ति तीर्थंकर महावीर के जीवन काल में अपनी पराकाष्ठा पर थी। पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ बोध होता है जिसके कारण आत्मस्वरूप महावीर की देनः एकांत के बीहड़ में आत्मा की खोज: की पहिचान, ज्ञान, अनुभूति एवं अनुरूप आचरण होता है । तीर्थंकर महावीर के प्रतिपादन का केन्द्र बिन्दु आत्मा था । आत्मा की स्वमुखी वृत्ति का विकास होकर परोन्मुखी वृत्ति का कोई विचारक आत्मा को नित्य कोई अनित्य और कोई क्षणिक परिहार होता है । इस प्रकार परोन्मुखी वृत्ति के जनक पर-पदार्थों मानता था । उन्होंने वस्तु स्वरूप के अनेकांत दर्शन को दृष्टिगत के प्रति ममत्व भाव को तोड़ना अनेकांत दर्शन का प्रथम लक्ष्य है। कर कहा कि आत्मा द्रव्य दृष्टि से, लौकिक दृष्टि से अनेकांत दर्शन व्यक्ति एवं समाज के मध्य नित्य, देह दृष्टि से अनित्य एवं पल अंतर-बाय मतभेद एवं विवाद आदि का निराकरण, सामाजिक, प्रतिपल पर्याय परिवर्तन की दृष्टि सद्भाव एवं शांति की स्थापना में सहायक होता है । अनेकांत से क्षणिक भी है । यदि एक दृष्टि दर्शन के अप्रत्यक्ष प्रभाव का ही कारण है कि भारत में विविध से ही उसे देखा जायेगा तो सम्पूर्ण प्रतिकूल संस्कृति, सभ्यता एवं मान्यता वाले व्यक्ति सहिष्णुतापूर्वक आत्मगुणों का ज्ञान नहीं हो एक साथ रहने में समर्थ हो सके । इस प्रकार अनेकांत दर्शन सकेगा । इस प्रकार उन्होंने जीवन में समन्वय दृष्टि प्रदान करता है जो इसका "उप उत्पाद" वस्तुस्वरूप के अनेकांत दर्शन को या गौण लक्ष्य है। प्रतिपादित कर विविध मत-मतान्तरों श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७५) जितने जग में मनुज हैं, सब के भिन्न विचार । जयन्तसेन पन घट अति, स्वाद अनेक प्रकार ।। www.jainelibrary.org. 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SR No.211672
Book TitleMahavir ka Unmukta Vichar kranti Anekant Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrakumar Bansal
PublisherZ_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size4 MB
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